शरीर को स्वस्थ रखने के लिए विभिन्न शारीरिक योग आसनों का जितना महत्त्व है उतना ही महत्त्व मन को स्वस्थ एवं हर क्षण प्रसन्न रखने के लिए कर्मयोग का है भगवान श्री कृष्ण ने गीता के निम्न श्लोक में कर्मयोग की विस्तृत विवेचना की है:
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।
कर्मयोगी इस नित्य परिवर्तनशील जगत् में रहते हुये समभाव को दृढ़ करने का सतत प्रयत्न करे। इसके लिये उपाय है कर्मों के तात्कालिक फलों के प्रति संग (आसक्ति/ममता/सुख की आशा) का त्याग। कर्मों को कुशलतापूर्वक करने के लिए श्रीकृष्ण ने जिन आसक्तियों का त्याग करने को कहा है वे सब संग शब्द से इंगित की गयी हैं अर्थात् विपरीत धारणायें, झूठी आशायें, दिवा स्वप्न, कर्म फल की चिन्तायें और भविष्य में संभाव्य अनर्थों का भय इन सबका त्याग करना चाहिये।
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