2021 में होने वाली जनगणना के बाद देश में क्या-क्या बदल सकता है?

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जनगणना. यह शब्द सुनते ही लगता है कि कोई बहुत भारी-भरकम काम है. दुनिया में दूसरे सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में यह आसान काम है भी नहीं. जनगणना का काम हर 10 साल में किया जाता है. इस बार जनगणना का पहला चरण इस साल अप्रैल से सितंबर के बीच होना था. लेकिन कोरोना महामारी की वजह से नहीं हो सका. दूसरे चरण के लिए फरवरी 2021 का समय तय किया गया है. इस काम पर लगभग 9 हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है. लेकिन इतना खर्च करके और हजारों कर्मचारियों को इसमें लगाने के बाद मिलेगा क्या? और जो आंकड़े मिलेंगे, उनसे ऐसा क्या बदल जाएगा, आज इसी के बारे में बताते हैं.

किसी भी देश में बड़ी-बड़ी नीतियां तैयार करने के लिये उसके निवासियों की सही संख्या का पता होना जरूरी होता है. जैसे उदाहरण के लिए, किसी गाँव में निवासियों की संख्या 1000 है. 600 पुरूष हैं, 400 महिलाएं हैं. स्कूल जाने वाले बच्चे 200 हैं. काॅलेज जाने वाले 100 हैं. पुरूषों की तुलना में महिलाओं और बच्चियों की तादाद कम है. 250 लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं, वगैरह-वगैरह.

अब इन सब आंकड़ों के आधार पर ये निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस गांव की मूलभूत समस्याएं क्या है? यहाँ के विकास के लिए कौन-कौन से कदम उठाए जा सकते हैं? स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के क्या-क्या उपाय संभव हैं, आदि-आदि. मोटे तौर पर कहें तो गाँव, म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन, जिला, राज्य आदि के सामाजिक-आर्थिक आँकड़ों की सही-सही जानकारी होने से हर वर्ग के लिये सही-सही नीतियां बनाई जा सकती है.

 

दो चरणों में होनी थी जनगणना

जनगणना के प्रथम चरण में नागरिकों के पास उपलब्ध बुनियादी सुविधाओं की डिटेल जुटाने की योजना थी. जैसे घर, जमीन, टीवी, फ्रिज, दोपहिया, चारपहिया वाहन आदि-इत्यादि. ये काम 2020 में 1 अप्रैल से 30 सितंबर के बीच किया जाना था. लेकिन कोविड-19 संकट की वजह से जनगणना संबंधी सभी गतिविधियां ठप्प पड़ गईं. दूसरे चरण में, 2021 में 9 से 28 फरवरी के बीच लोगों की गिनती किए जाने की योजना बनाई गई है. इसमें किसी बदलाव की अभी जानकारी नहीं है.

वैसे इस बार की जनगणना का व्यापक महत्व है. कहीं से जाति जनगणना की मांग उठ रही है, तो कहीं सीएए, एनआरसी, एनपीआर का मुद्दा गरमाया हुआ है. इन सबके अलावा 2026 के बाद देश में होने वाले चुनावों के लिए delimitation यानी परिसीमन भी होना है. और इन सबमें जनसंख्या सबसे बड़ा आधार होता है.

देश में इससे पहले जनगणना 2011 में हुई थी.

अब जान लेते हैं, जनगणना के बाद हमारे समाज और इसकी दिशा-दशा में क्या-क्या परिवर्तन देखने को मिल सकते हैं. मोटे तौर पर 2021 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 5 बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं-

 

1.शहरी-ग्रामीण इलाकों में बदलाव

आजाद भारत की पहली जनगणना जो 1951 में हुई थी, उसके मुताबिक भारत की कुल जनसंख्या के लगभग 17 प्रतिशत लोग शहरों में रहा करते थे. 60 साल बाद यानी 2011 की जनगणना में ये शहरी जनसंख्या का ये प्रतिशत बढ़कर लगभग 32 हो गया. शहरी आबादी यानी अर्बन पॉपुलेशन की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि आगामी जनगणना में इसमें बढ़ोतरी तय है. ये कितनी होगी, उसके आधार पर देश के सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोगों और नीति निर्धारकों को अर्बन पॉलिसी बनाने और मौजूदा नीतियों में आवश्यक बदलाव करने में मदद मिलेगी.

उदाहरण के तौर पर हम यदि 2011 की जनगणना के आधार पर देश की शहरी जनसंख्या की बात करें तो दो बातें स्पष्ट होती हैं-

A. 2011 की जनगणना में देश में ‘मिलियन प्लस’ शहरों (जिनकी जनसंख्या 10 लाख से ज्यादा है) की संख्या 53 थी. 2001 की जनगणना में ऐसे शहरों की संख्या 35 थी. यानि 10 साल में बड़े शहरों की संख्या में डेढ़ गुणा की वृद्धि हुई थी. इस ट्रेंड को देखते हुए यह स्वाभाविक है कि इस बार की जनगणना में यह संख्या 53 से कहीं ज्यादा रहेगी.

B. 2011 की जनगणना में देश की कुल शहरी आबादी का 43 प्रतिशत (यानी कुल जनसंख्या का 14 प्रतिशत) इन ‘मिलियन प्लस सिटीज़ में निवास करता था.

अब जब नई जनगणना का आंकड़ा सामने आएगा तो निश्चित तौर पर शहरों में बुनियादी सुविधाओं और जनसंख्या के बोझ के बीच भयानक असंतुलन (जो अभी अनौपचारिक रूप से महसूस किया जा रहा है) देखने को मिलेगा.

यही हाल गांवों का भी है. गांव से पलायन की तेज रफ्तार शहरों पर तो बोझ बढ़ा ही रही है, गांवों में भी आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को जन्म दे रही है. शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रति व्यक्ति आय, रोजगार, यातायात के साधन- ये सब वे समस्याएं हैं, जिनके कारण पलायन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है. पिछले दशक में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की संकल्पना पर आधारित PURA (Provide Urban amenities in Rural Areas) स्कीम शुरू की गई थी, लेकिन इसमें कोई उल्लेखनीय बदलाव देखने को नहीं मिला.

 

2. जमीन, जनसंख्या और पर्यावरण के बीच संतुलन – 

जब जनसंख्या बढ़ती है, तब जमीन और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. जंगल और खेती योग्य जमीनें आवास के काम में ज्यादा लाई जाने लगती हैं. आवास और बढ़ती जनसंख्या की भूख मिटाने के लिए जंगल काटे जाते हैं, तब बड़ी संख्या में जंगली जीव-जंतुओं और उनके प्राकृतिक आवासों का विनाश होता है. बायो-डायवर्सिटी एरिया, टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क- सब जगह मनुष्यों का अतिक्रमण या तो बढ़ रहा है या बढ़ने की नौबत आ रही है. जंगल कटने से धरती की आबोहवा में आने वाली कमी का नुकसान अंततः इंसानों को ही भुगतना पड़ता है. पिछले 4 दशकों से हमारी सरकारों की यह नीति रही है कि ‘देश के कम से कम 33 प्रतिशत यानी एक-तिहाई भूभाग पर जंगल होने चाहिए. लेकिन जनसंख्या के बढ़ते बोझ ने अब तक इस टार्गेट को पूरा नहीं होने दिया है. देखना होगा कि नई जनगणना से इसमें कितना बदलाव आता है.

 

3. नया परिसीमन और उसमें राज्यों की हैसियत से छेड़छाड़ –

मौजूदा परिसीमन आयोग की सिफारिशें 2026 तक मान्य हैं. उसके बाद देश में नए परिसीमन आयोग की जरूरत पड़ेगी. परिसीमन मतलब?  जनगणना के आधार पर लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाओं को नए सिरे से तय करने की प्रक्रिया. नए परिसीमन के हिसाब से संसद और विधायिका में सीटों की संख्या बढ़ाने की बातें भी अब शुरू हो गई हैं. कई लोग तर्क दे रहे हैं कि 1971 के बाद देश की 50-55 करोड़ की जनसंख्या के लिए लोकसभा की 543 सीटें तय की गई थीं. अब जबकि देश की जनसंख्या 130 करोड़ को पार कर गई है तो संसद और विधानसभाओं में भी सीटें बढ़नी चाहिए.

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी लोकसभा में सांसदों की सीटों की संख्या 543 से बढ़ाकर 1000 करने की वकालत कर चुके हैं. राजधानी दिल्ली में सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत संसद भवन की नई बिल्डिंग भी बननी है. इसके एक कक्ष में 1000 से ज्यादा लोगों के बैठने की व्यवस्था की जा रही है. इन सबसे ये संकेत तो मिलता ही है कि अगले परिसीमन में लोकसभा सांसदों की संख्या बढ़ भी सकती है.

वर्तमान में लोकसभा में सीटों की संख्या का निर्धारण 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया है. अब यदि सीटों की संख्या का फिर से निर्धारण होता है, तब उन राज्यों को नुकसान हो सकता है जो परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण के मामले में बेहतरीन प्रदर्शन करते आए हैं. और यदि ऐसा होता है, तब केन्द्र-राज्य संबंधों और सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करवाने में दिक्कतें आ सकती हैं. राज्य सरकारें सहयोग करने में आनाकानी कर सकती हैं.

 

इस मामले को आसान भाषा में समझने की कोशिश करते हैं :-

उत्तर प्रदेश में लोकसभा की इस वक्त 80 सीटें हैं जबकि केरल में 20 सीटें. मान लीजिए, नई जनगणना और परिसीमन के आधार पर यदि दोनों राज्यों की सीटें एक ही अनुपात में (यानी यूपी की 80 से बढ़कर 160 और केरल की 20 से बढ़कर 40) बढ़ाई जाती हैं, तब तो कोई दिक्कत नहीं है. लेकिन यदि इन राज्यों की आबादी में होने वाली घट-बढ़ के आधार पर (परिसीमन के मुताबिक) बढ़ाई जाती हैं, तो राज्यों के बीच का अनुपात भी गड़बड़ा जाएगा. ऐसा हुआ तो हंगामा भी हो सकता है क्योंकि संसद में राज्यों की ताकत उनके सांसदों की संख्या से तय होती है.

ये भी हो सकता है कि इस प्रकार के बवाल से बचने के लिए सरकार लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाने का विचार छोड़ दे, और सिर्फ परिसीमन के काम के लिए ही परिसीमन आयोग का गठन करे. 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी यही किया था. तब भी सीटों की संख्या बढ़ाने के विवाद में पड़ने के बजाए हर राज्य को आवंटित सीटों की मौजूदा संख्या के आधार पर ही परिसीमन करने का काम हुआ था. यानी यूपी में 80 और केरल में 20 सीटें हैं तो उतनी ही संख्या में सीटों का नए सिरे से परिसीमन हुआ था.

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत बनने वाली नए संसद भवन में सीटों की संख्या भी काफी बढ़ाई जाएगी.

 

4. केंद्रीय करों (Central Taxes) का राज्यों में बंटवारा –

केन्द्र सरकार के पास विभिन्न प्रकार के टैक्स लगाने का अधिकार होता है, जैसे इनकम टैक्स, कॉर्पोरेट टैक्स, जीएसटी, कस्टम ड्यूटी इत्यादि. इनमें कस्टम को छोड़कर लगभग सभी करों में राज्यों को उनका हिस्सा देना होता है. 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के मुताबिक, कुल टैक्स वसूली का 42 % हिस्सा राज्यों को दिया जाता है. लेकिन इस 42%  हिस्से को राज्यों के बीच बांटा कैसे जाता है? यूपी को कितना मिलता है, बिहार को कितना मिलता है, तेलंगाना को कितना मिलता है? ये सब केन्द्र सरकार तय करती है- कभी गाडगिल फॉर्मूले के आधार पर, तो कभी मुखर्जी फॉर्मूले के आधार पर. लेकिन इसमें भी वित्त आयोग द्वारा तय किया गया पैमाना सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. और यदि हम किसी भी फॉर्मूले पर नजर दौड़ाएं तो उनमें सबसे महत्वपूर्ण पैमाना राज्य की जनसंख्या होती है. इसलिए अगली जनगणना से मिलने वाले आंकड़े इस मामले में भी केन्द्र सरकार की पेशानी पर बल पैदा करेंगे.

 

5. गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले (BPL) लोगों की संख्या –

किसी भी देश के संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा उस देश के गरीब लोगों का जीवनस्तर सुधारने पर खर्च होता है. भारत में भी यही स्थिति है. सरकारें यह दावा तो करती हैं कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आ रही है. लेकिन ध्यान दीजिएगा- यह दावा हमेशा प्रतिशत में किया जाता है. संख्या के आधार पर इसकी हकीकत कुछ और ही होती है. जब भी जनगणना होती है, उसके बाद कोई न कोई कमिटी ‘गरीबी रेखा के निर्धारण’ के लिए बनाई जाती है. इन सब कमेटियों में प्रतिशत के आधार पर चाहे जो भी आंकड़े हों, लेकिन जनसंख्या के आधार पर सिर्फ एक ही ट्रेंड दिखता है. और वह ट्रेंड गरीबों की जनसंख्या में वृद्धि ही दिखाता है. नई जनगणना के बाद तमाम पुराने आंकड़े बदलते हैं. और उसके साथ शुरू होता है -धड़ाधड़ विशेषज्ञों की टीमों का गठन और उनकी रिपोर्टों का इंतजार. इस बार भी जनगणना के बाद यही सब देखने को मिलेगा.

गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए नीतियां बनाने में भी जनगणना के नतीजों का असर दिखाई देता है.

 

6. एनआरसी, एनपीआर, सीएए का मुद्दा – 

इस बार की जनगणना में ये तीनों मुद्दे भी प्रभावी रह सकते हैं. कौन नागरिक है, कौन नही है, किसके पास नागरिकता संबंधी जरूरी कागजात हैं, किसे देश में सिर्फ वर्क परमिट पर रहना है, नए नागरिकता कानून (CAA) के तहत पड़ोसी देशों से आने वाले लोगों की बसावट से जुड़ा मुद्दा भी है. इन सबका प्रभाव भी अगली जनगणना के आंकड़ों में दिखना तय है.

इन सबके अलावा, डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी 15 से 59 वर्ष के लोगों की कुल संख्या भी अगले दस वर्षों के लिए नीति निर्माण का महत्वपूर्ण आधार बनती है. डेमोग्राफिक डिविडेंड माने कामकाज करने में सक्षम लोगों की जनसंख्या. परिष्कृत हिंदी में कहें तो कार्यशील लोगों की जनसंख्या.

तो फिर तैयार हो जाइए, अपना-अपना हेडकाउंट करवाने और इसके बाद की नीतियों और घोषणाओं को देखने-सुनने के लिए.




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