बेहोश होना और उलटी करना. किसी नाटक के साथ इन दो क्रियाओं का ज़िक्र आने पर हम यही सोचते हैं कि वो अझेल रहा होगा. तो लोग अपना अनुभव बताते हुए ये जुमले इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन अगर आपको बताया जाए कि एक नाटक ऐसा भी खेला जा रहा है जो इतना बढ़िया था कि देखने वालों ने सच में उलटी कर दी, होश खो दिया तो आप यकीन करेंगे?
अगर आपको यकीन नहीं आ रहा तो आपको न्यूयॉर्क के हडसन थिएटर जाकर ब्रॉडवे का नाटक ‘1984’ देखना चाहिए. इसमें डिस्टोपिया का चित्रण इतना जीवंत है कि देखने वाले होश खो देते हैं.
इस नाटक में ऐसा है क्या?
न्यूयॉर्क में खेला जा रहा ‘1984’ रॉबर्ट आइक डंकन मैक्मिलन का लिखा है. इन्होंने ही मिलकर नाटक का निर्देशन भी किया है. ये वाला ‘1984’ जॉर्ज ऑर्वेल के लिखे उपन्यास ‘1984’ पर आधारित है. 1949 में लिखे इस नाटक में जॉर्ज ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के भविष्य में एक डिस्टोपिया गढ़ा है. डिस्टोपिया माने एक ऐसी जगह जहां सब कुछ बुरा ही होता है.
‘1984’ की दुनिया में ब्रिटेन ओशियानिया नाम के देश का प्रांत बन जाता है और वहां समाजवाद के नाम पर एक ऐसी सरकार का नियंत्रण हो जाता है जो सोचने और प्यार करने को अपराध बना देती है. लोग बग़ावत न कर दें इसलिए प्रोपगैंडा और झूठी खबरों से लोगों का ब्रेनवॉश किया जा रहा है. लोग इस से बच नहीं सकते क्योंकि हर जगह ‘बिग ब्रदर’ नाम के एक मिथक का पहरा है. वो सब देख सकता है, सब सुन सकता है. जो किसी भी तरह की पहलकदमी करता है, उसे भयंकर टॉर्चर के ज़रिए वापस रास्ते पर लाया जाता है.
ऐसे में ओशियानिया का रहना वाला विंस्टन स्मिथ दो ‘गलतियां’ करता है – वो जूलिया से प्यार करने की हिमाकत करता है और ब्रदर को भी मानने से इनकार करता है. कुछ दिनों बाद विंस्टन और जूलिया पकड़े जाते हैं. विंस्टन को बुरी तरह टॉर्चर किया जाता है और अपने प्यार और चेतना के खिलाफ जाने के लिए मजबूर किया जाता है. विंस्टन ये सब कैसे झेलता है, यही उपन्यास की कहानी है.
साल 1984 में आई माइकल रैडफोर्ड की बनाई ‘1984’ को ऑर्वेल के उपन्यास पर बनी सबसे इमानदार फिल्म बताया जाता है. इसके एक दृश्य में विंस्टन (जॉन हर्ट) को टॉर्चर होते देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ब्रॉडवे के दर्शकों का अपनी आंखों के सामने ये सब होते देख क्या हाल होता होगा –
जॉर्ज ऑर्वेल के उपन्यास पर कई नाटक और फिल्में बनीं. अमूमन सबने टॉर्चर के दृश्यों को लोगों के मुफीद बनाने के लिए कुछ कम वीभत्स किया. लेकिन राबर्ट आइक और डंकन मैक्मिलन के ‘1984’ ने जॉर्ज की कल्पना से कतई छेड़छाड़ नहीं की. इसलिए नाटक के मंचन के दौरान टॉर्चर के दृश्य दर्शकों को बेतरह विचलित करते हैं. मंच पर बड़ी तेज़ रोशनी होती है और हिंसा के दौरान खून के फव्वारे उड़ते हैं. इसी के मुताबिक ध्वनि भी होती है. इस सब से ऐसी दहशत पैदा होती है कि लोग आयोजकों से नाटक रोकने की अपील करने लगते हैं.
न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए नाटकों की आलोचना लिखने वाले बेन ब्रैंटले ने नाटक के दृश्यों को टॉर्चर पॉर्न के करीब माना है.
जो लोग ये सब नहीं झेल पाते, उलटियां कर देते हैं, बेहोश हो जाते हैं. लंदन में जब इस नाटक का प्रिव्यू हो रहा था, तब एक बार लोग इतने भावुक हो गए थे कि झगड़ने पर उतारू हो गए थे. हंगामा रोकने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी थी. इसीलिए न्यूयॉर्क में नाटक देखने आने वालों को टिकट खरीदते वक्त चेतावनी दी जाती है.
इस कदर जीवंत मंचन की कीमत नाटक के कलाकार भी चुका रहे हैं. नाटक में विंस्टन का किरदार निभाने वाले टॉम स्टरिज की नाक टूट चुकी है और जूलिया का किरदार निभाने वाली ओलीविया वाइल्ड के होंठो पर चोट लग चुकी है. नाटक के दौरान ही ओलिविया को रीढ़ के सिरे पर भी चोट लगी थी.
लेकिन आल्हा के बाद तो लोग मर्डर ही कर देते थे
‘1984’ देखकर लोग बेहोश हो जाते हैं. लेकिन अपने यहां ही एक ऐसी प्रस्तुति होती थी जिसके बाद मर्डर तक हो जाते थे. बंदेलखंड और उत्तर भारत के कुछ और हिस्सों में गाए जाने वाले आल्हा से लोग इतने उद्वेलित हो जाते थे कि अपने पुराने दुश्मनों को मारने निकल पड़ते थे. आल्हा के चलते इतने मर्डर हुए हैं कि सरकार ने इसके गाए जाने पर ही पाबंदी लगा दी थी.
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