मुंडया थकता नहीं कर-कर के, तेरियां तरीफां,
जी करदा दिला दूं तैनूं बुर्ज़ ख़लीफ़ा.
ओ तैनूं बुर्ज़ ख़लीफ़ा…
अक्षय कुमार की लेटेस्ट मूवी, ‘लक्ष्मी’ का ट्रेंडिंग गाना. ‘लक्ष्मी’ 09 नवंबर, 2020 को रिलीज़ हुई. डिज़्नी हॉटस्टार पर. पहले आप गीत ही देख लीजिए, फिर आगे की बात करते हैं. या फिर आप ड्रीम इलेवन में टीम बना लीजिए, गीत भी हम ही देख लेते हैं. (ये था इस स्टोरी का पहला पीजे.)
देखा गीत? इस गीत में सब कुछ बड़ा अच्छा-अच्छा और हरा-हरा सा है न? 5 ट्रिलियन वाली इकॉनमी के सरकारी आंकड़ों सा. पर एक छोटी सी चीज़ मिसिंग है. वही ‘छोटी सी चीज़’ जिसका ट्रम्प के ट्वीट और बयानों में मिसिंग रहने का लंबा इतिहास है- ‘वास्तविकता’. और वो हम आपको बताते हैं. वास्तविकता ये है कि बुर्ज़ ख़लीफ़ा की दीवारों पर 3 मिनट के विज्ञापन की कॉस्ट पड़ती है 50 लाख से एक करोड़ रुपए के बीच. यानी अपनी प्रेयसी को बुर्ज़ ख़लीफ़ा दिलाने की बात तो छोड़ ही दें, अगर आप उसकी तस्वीर भी 3 मिनट तक बुर्ज़ ख़लीफ़ा की दीवारों पर लगाएंगे, तो आपकी लव-कॉस्टिंग, आउट ऑफ़ बजट चली जाएगी. और जहां तक हमें सूचना है, वित्त मंत्री ने प्रेम के लिए कोई ‘राहत पैकेज’ की बात आज तक नहीं की है. बेशक उनके बजट में 100 दर्द हों, 100 राहतें…
रही बात पूरे बुर्ज़ ख़लीफ़ा की, तो उसका कुल मूल्य ठहरा- डेढ़ बिलियन डॉलर. मने 1,50,00,00,000 डॉलर. मने 1,10,75,76,75,000 रूपये. बोले तो, ग्यारह हज़ार पिचहत्तर करोड़ रुपए.
और ये तो इसकी कॉस्ट है. प्राइस की बात तो हमने की ही नहीं. न GST जोड़ा, न एजुकेशन सेस.
कितना हुआ ये अमाउंट वैसे? गणित के बदले हिंदी में बोलें तो, बहुत-बहुत ज़्यादा. इतने रुपयों में भारत के एक-एक जीवित व्यक्ति को एक दिन, सुबह-शाम का भोजन, विद ब्रेकफास्ट एंड टी मिल जाए. या फिर अगर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ रोज़ आता रहे और हर दिन एक व्यक्ति करोड़पति बने, तो भी ये धारावाहिक 30 साल तक अबाध्य रूप से चल सकता है. वो भी तब, अगर इंट्रेस्ट ऑन इन्वेस्टमेंट की बात न की जाए. चलिए उससे अमिताभ बच्चन का भुगतान कर दिया जाएगा.
तुलसीदास के ‘हनुमंत जी की पूंछ में लगन न पाई आग…’ वाले कथन से क्यू लेकर अगर बात करें, तो इतने रुपयों में न केवल गंगा-जमुना स्वच्छ हो जाएंगी, बल्की सरस्वती भी धरती पर अवतरित हो जाएंगी.
लब्बोलुआब ये कि बुर्ज़ ख़लीफ़ा दिलाने की बात कहकर अक्षय कुमार कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ गए. जिस तरह ‘लक्ष्मी’ मूवी का पुराना नाम धार्मिक भावना को चोट करता था, उसी तरह फ़िल्म का ये गीत आर्थिक भावना को करता है. कुछ लोगों को ये आम्रपाली और जेपी की याद दिलाता है. तू छेड़ न मेरे दर्दां नूं…
मतलब अक्षय सा’ब, तब तक तो ठीक था, जब तक आप चंडीगढ़ में फ़्लैट दिलाने की बात कर रहे थे. कनाडा में भी दिला देते, तो मान लेते. चल जाता. पर बुर्ज़ ख़लीफ़ा? सीरियसली?
कुछ और फ़ैक्ट्स, जो बुर्ज़ ख़लीफ़ा से जुड़े हैं, वो ये कि 4 जनवरी, 2009 को बनकर तैयार हुई 820+ मीटर की इस बिल्डिंग में कुल 168 मंज़िलें हैं. ये इतनी ऊंची है कि 100 किलोमीटर दूर से भी दिखाई दे जाती है.
बाई दी वे, वो कौन मासूम लोग हैं, जो इसे युगल गीत, यानी दो गाना, यानी ड्यूएट बता रहे हैं. अरे मासूमों, ये दरअसल एक विज्ञापन है. प्रोडक्ट प्लेसमेंट. रियल एस्टेट वालों का. जो पहले खुल्ले में प्रॉमिस करते थे. 3-4 BHK. लग्ज़री अपार्टमेंट. अलां लोकेशन. फ़लां बिल्डर्स. ढिमका फ़ैसिलिटी. लेकिन फिर मोदी जी ने एक तरफ़ ढेर सारे शौचालय खोले और दूसरी तरफ़ रेरा लाए. तो शौच और रियल एस्टेट बिल्डर्स की प्रॉमिस, दोनों ही खुले में होना बंद हो गईं. गोया शराब, सिगरेट के विज्ञापन या ऑल्ट बालाजी का सब्सक्रिप्शन या गूगल क्रोम की इंकोगनिटो विंडो.
प्लान ये था कि जब-जब आपके प्रेमी या प्रेमिका बुर्ज ख़लीफ़ा के सामने अक्षय कुमार को गाते हुए देखेंगे, तो उनके मन में कसक जगेगी. कि कियारा अगर ‘बुर्ज डिजर्विंग ब्यूटीफ़ुल’ हैं, तो हम भी कुछ नहीं भी तो 2-3 BHK इन ग़ाज़ियाबाद, नोएडा एक्सटेंशन वाला हुस्न तो रखते ही हैं. और सदियों पहले गुलाब के फूल से शुरू हुआ गिफ़्ट का ये सिलसिला, ‘इंफ़्लेशन’ की फ़ास्ट लेन से होता हुआ फ़्लैट या पैंट हाउस तक जा पहुंचेगा. ऑफ़ कोर्स, ताजमहल जैसे इक्का-दुक्का एक्सेप्शन्स को छोड़कर.
इसलिए इस गीत के नीचे वैधानिक चेतावनी होनी चाहिए- ‘कमज़ोर दिल वाले, जो उस मकान की किश्त भर रहें हैं, जिसका पोज़ेशन उन्हें सन 2075 में मिलेगा, या जो प्राइम लोकेशन पर फ़्लैट नहीं एफ़ोर्ड कर सकते, इस गीत को न देखें.’
और बाकी लोग अगर देख रहे हैं, तो जान लीजिए कि नायक, नायिका से कोई वादा नहीं कर रहा. बस अपने मन की इच्छा बता रहा है. ‘जी करता दिला दूं…’
जैसे माया सारभाई की इच्छा थी अपनी मिडिल क्लास बहू मोनीशा का क़त्ल करने की. या जैसे कुछ लोगों कि इच्छा है, US में कमल खिलाने की. और अगर आपने इंटर में प्रायिकता पढ़ी है, तो यक़ीन कीजिए US में कमल खिलने की ज़्यादा संभावना है, प्रेमी द्वारा प्रेमिका के लिए बुर्ज़ ख़रीद लाने की तुलना में. बल्कि सुनने में आ गया है ‘कमला’ तो वहां खिल भी गई हैं. और वैसे, POTUS-LOTUS के बीच भी तो एक टाइपो भर का ही अंतर है.
पर मुझे ‘बुर्ज़ ख़लीफ़ा’ की इच्छाभर से भी आपत्ति है. क्यों है? एक ट्रेजिक चुटकुला सुनिए:
कुछ भिखारी लाइन से बैठे थे. लॉकडाउन के चलते उनका धंधा, मंदा चल रहा था. फटे कपड़ों और क़रीने से पिचकाए गए कटोरों और उस पर खुद से ही रख दिए गए कुछ सिक्कों पर भी ‘रिटर्न ऑन इंवेसमेंट’ ज़ीरो था. ऐसे में एक भिखारी जिसने दो दिन से कुछ नहीं खाया, वो खाने की एक्टिंग करने लगा. उसे बग़ल के एक भिखारी ने टोका-
पहला भिखारी: अबे! क्या कर रहा है?
दूसरा भिखारी: खाने की एक्टिंग कर रहा हूं.
पहल भिखारी: क्या खा रहा?
दूसरा भिखारी: खिचड़ी. प्याज़ और अचार.
पहला भिखारी: जब एक्टिंग ही करनी है, तो कुछ अच्छा खा. मलाई कोफ्ता. दाल मखनी. दम पुख्त.
दूसरा भिखारी: मैं खा तो लूं ये सब. पर इतना सब पचाएगा कौन? तू?
तो इस चुटकुले से ये शिक्षा मिलता है कि अगर सोते हुए सपना भी सोने का आ रहा है, तो उस सपने में भी ‘तेते पांव पसारिए, जेते लंबी सौर.’ मतलब सपना भी औक़ातानुसार देखना चाहिए. ग़लत कहते हैं वो विज्ञापन वाले. मेक इट लार्ज. वैसे भी वो ‘मेगा म्यूज़िक’ का विज्ञापन है. ये ‘मेगा म्यूज़िक’ क्या होता है, पता नहीं. पर ये पता है कि ये शराब नहीं होती.
और हां. अगर मेक इट लार्ज करना ही है, तो बता देते हैं कि मानवों द्वारा बनाई गई सबसे महंगी बिल्डिंग, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन है. आउट ऑफ़ दी वर्ल्ड. शब्दशः ये ‘है ही नहीं इस दुनिया की.’ पृथ्वी की अंदरूनी कक्षा में स्थित है. और इसका कुल मूल्य? 150 बिलियन अमेरिकन डॉलर. मतलब इस अमाउंट का अनुवाद ‘बुर्ज़ ख़लीफ़ा’ में करो तो, कुल 10 बुर्ज़ ख़लीफ़ा.
वैसे गाना क्या होता फिर:
मुंडया थकता नहीं कर-कर के, तेरियां इमेजिनेशन,
जी करदा दिला दूं तैनूं इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन.
ओ इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन…
ये स्टोरी हल्के-फुल्के ढंग से लिखी गई है, जिसमें ढेर सारी क्रिएटिव लिबर्टी ले ली गई है. बोले तो इसको एक आंख से पढ़ें और दूसरे से निकाल दें.
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