Movie Review

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January 10, 20201min00

दीपिका पादुकोण की ‘छपाक’ शुक्रवार को थिएटर्स में लग चुकी है. और देख भी ली गई है. अब वो बात जो हम यहां करने आए हैं. फिल्म की बात. फिल्म लक्ष्मी अग्रवाल नाम की एसिड अटैक सर्वाइवर की लाइफ पर बेस्ड है. कैरेक्टर्स के नाम वगैरह बदल दिए गए हैं, थोड़ी फिल्मी बातें डाल दी गई हैं. ये सब करने के बाद फिल्म की कहानी ये बनती है कि माल्ती नाम की 12वीं में पढ़ने वाली एक लड़की है. एक दिन उसके ऊपर, उसका एक जानने वाला सनकी लड़का तेजाब डाल देता है. इस केस की छानबीन होती है. कोर्ट में मामला चलता है. लेकिन माल्ती की लाइफ रुक जाती है. थोड़े मोटिवेशन के बाद वो लड़ना शुरू करती है. कोर्ट केस, बीमार मानसिकता से, भारत के कानून से, तेजाब की खुलेआम बिक्री से और खुद से. अब वो हारती हैं कि जीतती, ये अगर आपने लक्ष्मी की स्टोरी फॉलो की होगी, तो पता होगा.

फिल्म में दीपिका ने लक्ष्मी से प्रेरित माल्ती का किरदार निभाया है. इस तरह की फिल्मों में मेकअप कैरेक्टर को एस्टैब्लिश करने में बहुत मदद करता है. फिल्म के पहले हाफ में आपको कभी अंदाज़ा नहीं लगता है कि जो लड़की स्क्रीन पर दिख रही है, वो माल्ती नहीं दीपिका पादुकोण हैं. कभी किसी एसिड अटैक सर्वाइवर से रूबरू होने का मौका नहीं मिला लेकिन माल्ती को देखने के बाद लगता है कि वो भी कुछ ऐसी ही होती होंगी. नॉर्मल. हंसने वाली, गाने वाली, हर दूसरी बात पर पार्टी करने वाली. दूसरी तरफ हैं विक्रांत मैस्सी. इन्होंने अमोल नाम के उस शख्स का रोल किया है, जो एसिड अटैक सर्वाइवर्स की मदद के लिए एक एनजीओ चलाता है. बाद में जो माल्ती के साथ प्रेम में भी पड़ जाता है. वो एसिड अटैक को लेकर इसकी शिकार लड़कियों से भी ज़्यादा चिंतित रहता है. शायद उसे ये गिल्ट है कि माल्ती और तमाम लड़कियों के साथ घिनौनी हरकत करने वाले भी उसी के जेंडर से आते हैं. और उसकी चिंता कितनी जेनुइन है, वो विक्रांत का चेहरा और हाव-भाव आपको बताता है. माल्ती की वकील अर्चना के रोल में मधुरजीत सरगी का परफॉर्मेंस के मामले में स्पेशल मेंशन करना चाहिए.

 

कोर्ट में अपने बॉयफ्रेंड राजेश को उसके रिलेशनशिप को झूठलाते हुए देखती माल्ती.

जब आप फिल्म देखने बैठते हैं, तब माल्ती का कैरेक्टर उतने देर के लिए ज़रूरी रहता है, जब उनके साथ वो घटना होती है. बाकी के समय ये कैरेक्टर सिर्फ एक माध्यम भर रहता है. इस तरह के क्राइम, उसे करने वाली मानसकिता, एक्ज़ीक्यूट करने की हिम्मत, फिर लड़की की लंबी कानूनी लड़ाई और खुद को वापस पाने के प्रोसेस की तह में पहुंचकर उसे टटोलने का. इस तरह की चीज़ों को रोकने-खत्म करने की कोशिश का माध्यम. इस फिल्म को आप सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए नहीं देख सकते. क्योंकि ये वो है नहीं. आप इतने विचलित अवस्था में एंजॉय नहीं कर सकते. इसलिए आपको वो समझना पड़ेगा, जो फिल्म कह रही है. फिल्म अपने मसले से जुड़े बहुत सारे फैक्ट्स बताती है. उससे जुड़े कानूनों की बात करती है. साथ में एक एसिड सर्वाइवर के रिहैबिलिटेशन (अगर कहना चाहें तो) की कहानी भी दिखाती है. और मेरा यकीन करिए ये प्रोसेस इतना ज़्यादा मुश्किल है कि आप एक फिल्म की मदद से सिर्फ ये बात ही जान सकते हैं. एसिड अटैक सर्वाइवर्स की फिज़िकल और मेंटल कंडिशन नहीं समझ सकते. इसका नैरेटिव काफी इनक्लूसिव है. बहुत सारी चीज़ें गुथी हुई हैं. जेंडर से लेकर जाति तक. सबका अपना मर्म है. एक बार को थोड़ा सा ‘आर्टिकल 15’ वाला फील भी आ जाता है. यहां महिलाओं की और सिर्फ महिलाओं की ही बात होती है. यहां विक्टिम महिला है. इस घटना को अंजाम देने वाली भी एक महिला. पीड़िता के लिए लड़ने वाली वकील भी महिला. और कोर्ट की जज भी महिला. कुछ समझने की भी कोशिश कर रहे हैं कि बस पढ़कर आगे निकले जा रहे हैं.

इस फिल्म की भयावहता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इंटरवल के बाद जो होता, उसके साथ पानी भी गले से नीचे नहीं उतरता. ये आंख जो देख रहा है, उसकी वजह से नहीं होता. दिमाग जो सोच रहा है, उस वजह से होता है. फिल्म के डायलॉग्स काफी इन योर फेस हैं. जैसे कोर्ट से एक पक्ष में फैसला आने के बाद माल्ती अपनी एनजीओ वाली टीम के साथ पार्टी कर रही होती है. अमोल आता है और गाना बंद कर देता है कहता है, ये बहुत छोटी जीत है. इसकी खुशी नहीं मना सकते. जवाब में माल्ती कहती है- ”एसिड अटैक मुझ पर हुआ था और मुझे पार्टी करने का मन है.” ये सुनने के बाद आप सोचते हैं फिल्मों में ऐसे बात करना अलाउड है क्या? पहले ऐसा कुछ क्यों नहीं सुना. फिल्म में वैसे तो तीन गाने हैं. दो गानों का फिल्म में होना न होना बराबर था. लेकिन फिल्म का टाइटल ट्रैक जो है, वो कान को अच्छा लगता है और दिमाग खराब करके छोड़ देता है.

‘छपाक’ एक ऐसी फिल्म है, जिसके बारे में हम ये चाहेंगे कि इसकी प्रासंगिकता जल्द से जल्द खत्म हो जाए. लेकिन आज के समय में ये काफी रेलेवेंट है. इसकी गवाही दे रही है खुद फिल्म ‘छपाक’. क्योंकि उसे बनाया ही इस तरह के क्राइम को कम करने के मकसद से गया है. एक चीज़ जो फिल्म को हद से ज़्यादा यादगार बना देती है, वो है उसका एंड. ‘सैराट’ टाइप कुछ, जो पूरी फिल्म से ज़्यादा डरावना है. लेकिन वो फिल्म से नहीं कॉन्सेप्ट से जुड़ा हुआ है. और यही चीज़ आपके दिमाग में अटकी रह जाती है. जैसे ऑरेंज इज़ न्यू ब्लैक, वैसे ही ये फिल्म खूबसूरती का पैमाना बदलने वाली है. ब्यूटी की लोकेशन चेहरे से चेंज करके दिल और दिमाग वाली साइड पर कहीं शिफ्ट करना होगा. इसके लिए हमें एसिड वाला छपाक अवॉयड करने और ये वाली ‘छपाक’ देखने की ज़रूरत है.

 


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January 3, 20201min00

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ डिजिटल में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार थीं. काफी समय से बीमार थीं. दफ़्तर से भी छुट्टी पर चल रही थीं. एक बेटा था उनका. दूसरे शहर में काम करता था. पत्रकार एक दिन अपने फ्लैट में मरी हुई मिलीं. अंदर से घर बंद था. सुना, अपने बेटे के लिए अक्सर रोती थीं. ‘घोस्ट स्टोरी’ के एक सीन को देखकर लगता है कि कहीं न कहीं ज़ोया अख्तर ने इस न्यूज़ को ज़रूर पढ़ा होगा.

ज़ोया अख्तर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी और करण जौहर. ‘बॉम्बे टॉकीज़’ और ‘लस्ट स्टोरीज़’ के बाद चारों डायरेक्टर्स फिर से एक साथ आए हैं. ‘घोस्ट स्टोरीज़’ में. 2 घंटे 24 मिनट की ये मूवी, बड़े पर्दे पर रिलीज़ न होकर 1 जनवरी, 2020 को ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म ‘नेटफ्लिक्स’ पर रिलीज़ हुई है.  ‘घोस्ट स्टोरीज़’ में कुल 4 कहानियां हैं. जैसे इन डायरेक्टर्स की पहली दो मूवीज़ में थीं. इस तरह की मूवीज़ को एंथोलॉजिकल मूवीज़ कहा जाता है.

 

स्टोरीज़

कहानी 1. डायरेक्टर – ज़ोया अख्तर.

एक नर्स है. समीरा. एक बूढ़ी, बीमार औरत, मिसेज़ मलिक की देखभाल के लिए उसके घर आई है. एक तरफ ये बूढ़ी और रहस्यमयी औरत है, दूसरी तरफ समीरा की बिखरी, अनस्टेबल पर्सनल और प्रफेशनल लाइफ. ज़ोया अख्तर की ये कहानी दिखाती है कि मिसेज़ मलिक के साथ जो बुरा हुआ है, उससे समीरा को क्या सीख मिलती है.

नेशनल अवॉर्ड विनर एक्ट्रेस सुरेखा सीकरी अपने पहले ही सीन से क्रीपी और रहस्यमयी लगती हैं. जाह्नवी कपूर का किरदार भी काफी चैलेंजिंग है और उसे वो इस तरह से प्ले करती हैं कि लगता है एक एक्टर के तौर पर ग्रो कर रही हैं. हालांकि कभी उनका साउथ इंडियन और कभी मराठी एक्सेंट कन्फ्यूज़न पैदा करता है कि ये उनके रोल की मांग थी ये उनकी एक्टिंग की कमी है.

इस वाले पार्ट की सबसे अच्छी बात, इसका क्राफ्ट और इसकी डरावनी फीलिंग है. साथ ही इस वाले पार्ट की बाकी के तीन पार्ट से बेहतर क्लोज़िंग है. बिटर-स्वीट. जिसमें मौत है, तो उम्मीद भी है.

सबसे बड़े नेगटिव्स की बात करें तो इस वाले पार्ट का अत्यधिक स्लो पेस होना और कहानी के बदले मोमेंट्स पर फोकस किया जाना खटकता है.

 

कहानी 2. डायरेक्टर – अनुराग कश्यप.

एक प्रेगनेंट लेडी है. नेहा. उसके घर में उसकी बड़ी बहन का लड़का अंश दिनभर रहता है और शाम को अपने पापा के साथ घर चला जाता है. क्यूंकि अंश के पापा वर्किंग हैं और मां गुज़र चुकी है. अंश, नेहा की प्रेगनेंसी से इंसिक्योर है, कि जब मौसी का खुद का बच्चा होगा तो उसे उतना प्यार नहीं मिलेगा. दूसरी तरफ नेहा के पास्ट, उसके पालतू कौव्वे और उसके गुड़ियों वाले कमरे का एक अलग ही रहस्य है.

नेहा के किरदार में जो घिनौनापन दिखाना था उसे सोभिता धूलिपाला दिखाने में सफल रही हैं. वहीं अंश के किरदार और उसके बनते बिगड़ते एक्सप्रेशंस को एक चाइल्ड एक्टर ज़ैकरी ब्रैज़ ने बहुत अच्छे से बरता है.

इस वाले पार्ट की सबसे अच्छी बात है इसका ‘काफ़्काएस्क (Kafkaesque)‘ ट्रीटमेंट जो अनुराग कश्यप की मूवी ‘नो स्मोकिंग’ में भी देखने को मिला था. सबसे बुरी बात इसका बहुत ज़्यादा घिनौना होना है. साथ ही गागर में सागर भरने के प्रयास ने इस वाले पार्ट को काफी बोझिल भी बना दिया है.

 

कहानी 3. डायरेक्टर – दिबाकर बनर्जी.

एक अनाम बंदे की एक रिमोट गांव में पोस्टिंग होती है. वो जॉइनिंग के लिए वहां जाता है तो उसे पता चलता है कि वहां पर सभी लोग या तो आदमखोर हो चुके हैं या इन आदमखोरों के शिकार. दो बच्चे बचे हैं. और कहानी इन तीनों की ही सर्वाइवल स्टोरी है, जिसमें आपको कोरियन मूवीज़ का ‘ज़ॉम्बी’ एसेंस और नेटफ्लिक्स की वेब सीरीज़ ‘वॉकिंग डेड’ का फील मिलता है.

सुकांत गोयल ने तो खैर ठीक-ठाक एक्टिंग की ही है, लेकिन जो एक्टर्स चमके हैं वो हैं दो बच्चे. आदित्य और ईवा. जहां दिबाकर आदित्य के रोल में डर और रहस्य को कूट-कूट का भर डालते हैं, वहीं ईवा का एक सीन तो ख़ास तौर पर प्रभावित करता है, जब वो अगरबत्ती जलाकर पूजा करती हैं, और साथ में बातें भी कर रही होती हैं. ये कोई डरावना या लाउड नहीं, एक सिंपल सीन है. और यहां पर ईवा काफी नेचुरल लगती हैं.

इस वाले पार्ट की सबसे अच्छी बात इसका सोशियो पॉलिटिकल सिंबोलिज्म है. यूं ये आपसे दूसरी बार देखे जाने का आग्रह करती है. लेकिन इसकी सबसे बुरी बात भी यही है कि जो दिबाकर उपमाओं के द्वारा स्टेब्लिश करना चाह रहे हैं वो अंत वाले सीन में पूरी तरह स्टेब्लिश नहीं हो पाता. साथ ही पूरी कहानी एक ड्रीम सिक्वेंस सरीखी है. इसलिए ‘फेस वैल्यू’ के हिसाब कंटेंट कंज्यूम करने वाले आम दर्शक इसे देख चुकने के बाद ठगा सा महसूस कर सकते हैं. साथ ही इसकी एडिंग बहुत ही अतृप्त करती है.

 

कहानी 4. डायरेक्टर – करण जौहर.

इरा की अरेंज मैरिज हुई है. एक ऐसी अपर क्लास फैमली में जिनके साथ बस एक दिक्कत है. वो ये कि जिस ‘नैनी’ को मरे हुए सालों हो गए हैं, उसके बारे में इस फैमिली का मानना है कि वो अब भी घर में रहती हैं. उनकी मर्ज़ी के बिना परिवार का एक पत्ता भी नहीं हिलता. करण जौहर वाला पार्ट इसी परिवार, और उनके घर में आई नई बहू के डर की कहानी है.

इस स्टोरी का सबसे बड़ा प्लस ये है कि चारों कहानियों में से ये एकमात्र ऐसी स्टोरी है जिसमें आपको दिमाग नहीं लगाना पड़ता. साथ ही इसकी क्लोज़िंग त्रिशंकु की तरह बीच में कहीं लटकी नहीं रहती. ये वाली स्टोरी अपने सेट्स और ड्रेसेज के चलते काफी प्रीमियम लगती है. यानी कोई न भी बताए तो भी आप गेस कर लेंगे ये करण जौहर ने डायरेक्ट की है.

दूसरी तरफ इसका सबसे बड़ा मायनस है डराने के लिए यूज़ किए गए बचकाने और पुराने प्रॉप्स और सीन्स. जैसे टॉर्च को अपने चेहरे के नीचे रखकर चमकाना, या फिर नींद में चलना या अंधरे में अचानक किसी के सामने आ जाने टाइप ‘जंप स्केयर’ सीन्स. साथ ही कहानी और उसका ट्रीटमेंट भी काफी पारंपरिक और बचकाना है. ये मज़ेदार है कि केवल करण जौहर वाला पार्ट ऐसा है, जिसमें बच्चे नहीं हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा बचकाना यही वाला पार्ट है.

 

सिंबोलिज्म

जहां ज़ोया की स्टोरी में सिंबोलिज्म डायलॉग्स के स्तर पर है, वहीं अनुराग की स्टोरी में ये सिंबोलिज्म सीन्स के स्तर पर है. और दिबाकर की स्टोरी में यही सिंबोलिज्म पूरी स्टोरी के स्तर पर है. लेकिन करण जौहर की स्टोरी नीट है. जिसमें कोई छुपा अर्थ नहीं है.

 

ज़ोया की मूवी का सिंबोलिज्म, डायलॉग्स के स्तर पर-

“ये ज़िंदगी की ‘बू’ है.”

“सांस ले रही है न? हाथ पैर काम करते हैं न? जान है तो जहान है.”

 

अनुराग की स्टोरी का सिंबोलिज्म, सीन्स के स्तर पर-

जब बच्चा टीवी में एक इल्लीगल इमिग्रेंट्स वाला प्रोग्राम देख रहा होता है.

जब नेहा को सपना आता है कि वो कौवा बन गई है.

टूटे हुए अंडे, सेनेट्री पैड, बच्चे की पेंटिंग वगैरह.

 

दिबाकर की स्टोरी का सिंबोलिज्म, स्टोरी के स्तर पर है-

स्टोरी के क्लाइमेक्स में हम जो देखते हैं, उससे पता चलता है कि गावों के नाम बिसघड़ा, सौघड़ा, ऐसे रखे गए हैं कि समझ में आए कौन गांव ज़्यादा डेवलप है. पूरी कहानी दरअसल एक सोशियो-पॉलिटिकल मेटाफर है. और इसी अंडरकरेंट के चलते कोई अपनी बच्ची कच्चा चबा जाता है. क्यूं, ये समझने के लिए इस वाली स्टोरी को देखना और उसे क्लाइमेक्स वाले सीन से रिलेट करना आवश्यक है.

फाइनल वर्डिक्ट-

हर स्टोरी ‘हॉरर’ विधा की होते हुए भी एक अलग दर्शक वर्ग को कैटर करती है. इन कहानियों और कुल मिलाकर फिल्म की अच्छी बात ये है कि ये दर्शकों को डराने के लिए ‘जंप स्केयर्स’ जैसे पारंपरिक फ़ॉर्मूलों का इस्तेमाल नहीं करती. लेकिन बुरी बात ये है कि आपको इनको देखकर रोंगटे खड़े हो जाने वाली फील नहीं आती.

इन चारों डायरेक्टर्स की अब तक आईं तीन एंथोलॉजिकल मूवीज़, इमोशनल लेवल पर कमतर और क्राफ्ट के लेवल पर बेहतर होती चली गई हैं. यानी इनका ‘हृषिकेश मुखर्जी’ वाला फील घटता और ‘क्वेंटिन टैरेंटीनो’ वाला कोशेंट बढ़ता चला गया है. ऑफ़ कोर्स करण जौहर वाली कहानियों का नहीं. वो कंसिस्टेंट बने हुए हैं.

एक लाइन में कहें तो टोटल मूवी की रेसिपी देखकर लगता है कि ये टेस्टी हो सकती थी लेकिन डिश बन चुकने के बाद वो कहीं अधपकी रह गई है तो कहीं जल गई है.

 


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December 26, 20191min00
फिल्म:Good Newwz
कलाकार:Akshay Kumar, Kareena Kapoor Khan, Diljit Dosanjh, Kiara Advani, Adil Hussain, Tisca Chopra
निर्देशक:Raj Mehta
‘बच्चे भगवान का रूप होते हैं’, ये बात आपने हर रोज ना जाने कितने लोगों से सुनी होगी. लेकिन बच्चों को इस दुनिया में लाने के लिए भगवान के कितने हाथ पैर जोड़ने पड़ते हैं, ये कभी सोचा है? भगवान ने औरतों को ये खूबी तो दी है लेकिन सबको नहीं दी. लेकिन इंसान ने भी हार ना मानते हुए नई-नई तकनीकें ईजाद कीं, जिससे उसे ये नेमत हासिल हो सके.

 

कहानी

ऐसे ही एक कपल की कहानी है फिल्म गुड न्यूज. वरुण (अक्षय कुमार) और दीप्ति बत्रा (करीना कपूर खान) एक मॉडर्न और हाई-फाई कपल हैं, जो मुंबई में रहते हैं. ये दोनों अपने करियर पर ध्यान दे रहे हैं और साथ ही बच्चे पैदा करने की कोशिश में भी लगे हुए हैं.

दीप्ति बत्रा बच्चे चाहती है और वरुण के लिए ये बात काफी हद तक मुसीबत बनी हुई है. दोनों पर फैमिली का प्रेशर तो है ही साथ ही दोनों की तमाम कोशिशों के बावजूद प्रेग्नेंट ना हो पाना उन्हें परेशान भी कर रहा है. ऐसे में दीप्ति और वरुण को घरवालों से ही IVF (In-Vitro Fertilisation) के जरिए बच्चे पैदा करने की सलाह दी जाती है.

वरुण और दीप्ति IVF के जरिए बच्चा पाने के लिए डॉक्टर के पास जाते हैं और वहीं पर उनका मिक्सअप दूसरे बत्रा कपल यानी हनी (दिलजीत दोसांझ) और मोनिका बत्रा (कियारा आडवाणी) के साथ हो जाता है. अब इन चारों का क्या होगा और इनके बच्चों का क्या होगा यही देखने वाली बात है.

 

परफॉर्मेंस

वरुण बत्रा के किरदार में अक्षय कुमार ने बहुत बढ़िया काम किया है. उनकी अच्छी एक्टिंग को करीना कपूर खान और भी बेहतर बनाती हैं. दोनों की केमिस्ट्री कमाल है, जो इस जोड़ी को टॉप क्लास बनाती है. वरुण और दीप्ति के बिल्कुल उलट दिलजीत दोसांझ और कियारा आडवाणी की हैप्पी जोड़ी भी देखने लायक है. ये दोनों हमेशा खुश रहते हैं और एकदम पागल हैं.

दिलजीत ने हनी बत्रा के किरदार को बढ़िया निभाया है. उनके जोक्स, पागलपंती और गुस्सा सब अच्छा है. साथ ही उनका डांस भी देखने लायक है. कियारा आडवाणी को बाकी एक्टर के मुकाबले थोड़ा कम स्क्रीन स्पेस मिला है, लेकिन उन्होंने अपने किरदार को बखूबी निभाया है. मोनिका बत्रा के किरदार में आपको कियारा का भोलापन और चुलबुला अंदाज बहुत पसंद आएगा. साथ ही कियारा के आंसू देखकर आपकी भी आंखें नम हो जाएंगी.

इन चार मुख्य किरदारों के अलावा अक्षय की बहन के रोल में अंजाना सुखानी, डॉक्टर जोशी के किरदार आदिल हुसैन और टिस्का चोपड़ा ने बहुत अच्छा काम किया है. इन सभी के अलावा भी सभी एक्टर्स ने अपने रोल को बखूबी निभाया है.

 

 

डायरेक्टर

ये डायरेक्टर राज मेहता की पहली फिल्म है और उन्होंने इसे बेहतरीन तरीके से बनाया है. IVF प्रक्रिया से लेकर किरदारों के इमोशन्स और एक मां बनने के हर पहलु पर राज ने रौशनी डाली है. उन्होंने अपने स्क्रीनप्ले में मस्ती और इमोशन्स को सही बैलेंस किया है. फिल्म की एडिटिंग भी काफी बढ़िया है, जिससे ये फिल्म आपको फालतू में खिंची हुई नहीं लगती. इसमें बढ़िया जोक्स और डायलॉग हैं, जो आपको खूब हंसाते हैं. फिल्म का म्यूजिक भी आपको बिल्कुल सही जगह जाकर हिट करना है और स्क्रीनप्ले को और बेहतर बनाता है.

तो कुल-मिलाकर ये एक हल्की-फुल्की और शानदार फिल्म है. अगर आपको बढ़िया वीकेंड एन्जॉय करना है, जो गुड न्यूज देखना तो बनता है.

 


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December 14, 20191min00

इंडिया में रेगुलर पुलिसवाली फिल्म सीरीज़ की अच्छी खासी भीड़ हो गई. अजय की ‘सिंघम’, सलमान की ‘दबंग’ और रोहित शेट्टी का कॉप यूनिवर्स तो है ही. उसी लिस्ट में रानी मुखर्जी की ‘मर्दानी’ भी है. ये ‘मर्दानी 2’ देखने से पहले आपका पूर्वाग्रह या पूर्वानुमान रहता है. लेकिन ‘मर्दानी 2’ शुरू होने के 15 मिनट के भीतर आपकी इस सोच को सिर के बल खड़ा कर देती है. और खुद के लिए जमीन तैयार कर अपने पांव पर खड़ी हो जाती है. फिल्म ये चीज़ें कैसे कर पाती है, ये आप नीचे इसके अलग-अलग विभागों के बारे में लिखी गई बातें पढ़कर बेहतर तरीके से समझ सकेंगे.

फिल्म की कहानी ये है कि 2014 में मुंबई पुलिस में रहते हुए शिवानी रॉय ने दिल्ली बेस्ड चाइल्ड ट्रैफिकिंग और ड्रग्स के बिज़नेस का पर्दाफाश किया था. 2019 में उनका ट्रांसफर राजस्थान के कोचिंग हब कोटा में हो गया है. लेकिन यहां के क्राइम का कोटा मुंबई से कुछ कम नहीं है. दूसरी तरफ एक 21 साल का लड़का है सनी, जो लड़कियों का रेप करके टॉर्चर करता है और मार देता है. शिवानी के कोटा पहुंचने के तुरंत बाद एक मामला आता है. वो उसे सुलझाने में लगती है लेकिन ये घटनाएं रुकने का नाम नहीं लेती. सनी, शिवानी को बार-बार अलग-अलग तरीके से चैलेंज करता है. शिवानी हर बार उसका काट ढूंढ़ लेती है. इनकी चूहे-बिल्ली के खेल में राजस्थान पुलिस की इमेज खराब हुई पड़ी है. कहानी ये है कि वो लड़का ऐसा क्यों करता है? और शिवानी उसे पकड़ पाती है या नहीं?

‘मर्दानी पार्ट 1’ देखने का फायदा ये होता है कि आपको शिवानी रॉय यानी रानी मुखर्जी के किरदार के बारे में काफी कुछ पता होता है. सिनेमाघरों में जाकर आप चौंक जाते हैं कि ये बात शिवानी को भी पता है. रानी मुखर्जी पहले ही सीन से काफी कॉन्फिडेंट और कैरेक्टर में दिखती हैं. लेकिन फिल्म के बढ़ने के साथ ही वो भी सटल होती जाती हैं. और सारे काम खत्म करने के बाद फिल्म के आखिर में जब वो बैठकर रोती हैं, तब आपको उनका 20 साल लंबा अनुभव दिखता है. लेकिन असली खिलाड़ी है फिल्म का विलन सनी यानी विशाल जेठवा. एक 21 साल बिलकुल इनोसेंट सा दिखने वाला बंदा. उसकी शक्ल इतनी मासूम है कि आपको यकीन नहीं होता है कि इस लड़के में इंसानों वाले गुण इतने कम होंगे. लेकिन फिल्म में अपने किए से हर बार आपको यकीन दिला देता है कि ये सारे कांड उसी ने किए हैं. इस दौरान जितना परफेक्ट उसका वेस्टर्न यूपी वाला एक्सेंट है, उतना ही फाइन काम. कई बार थोड़ा सा ओवर द टॉप चला जाता है लेकिन वो आप पूरी फिल्म को देखने के बाद जाने दे सकते हैं.

फिल्म में एक भी गाना नहीं है. और होता तो बहुत खलता. क्योंकि उससे फिल्म प्रभावित होती. बैकग्राउंड स्कोर माहौलानुसार हॉन्टिंग सा है. लेकिन खुद को फिल्म के साथ बनाए रखता है. ये फिल्म कोटा में घटती है. और जिस तरह के माहौल में घटती है, वो बहुत डरावना है. मुंबई के हमने वो शॉट खूब देखे हैं, जब एक ओर झुग्गियां दिखाई देती हैं और दूसरी तरह स्काईस्क्रैपर्स. हमें कोटा के भी कुछ वैसे शॉट्स देखने मिलते हैं, जिससे ये बात साबित तो हो जाती है ये कहानी कोटा में चल रही है. लेकिन कोटा कहानी से कनेक्ट नहीं बना पाता है. आपको लगता है कि ये कहानी मुंबई, दिल्ली, बैंगलोर कहीं भी घट सकती है. फिल्म के क्लाइमैक्स में सीन है, जहां शिवानी, सनी को पकड़ने जाती है और वो बॉल फेंककर उसे डिस्ट्रैक्ट करने की कोशिश करता है. आप उसी सीन को देखने बाद यही सोचते रहते हो कि इसे शूट कैसे किया गया होगा. वो कैमरा मूवमेंट है या एडिटिंग, लेकिन जो भी है गदर है. उस सीन को आप नीचे लगे ट्रेलर में देख सकते हैं. वो सीन 2.02 मिनट पर शुरू होता है:

 

 

फिल्म में खलने वाली इक्की-दुक्की चीज़ें ही हैं, इसलिए पहले इस पर बात कर लेते हैं. फिल्म की लीड कैरेक्टर बिलकुल हॉलीवुड स्टाइल की पुलिसवाली है. वो जो केस हैंडल करने जा रही है, उसके बारे में उसे सबकुछ पता है. बावजूद इसके सनी कई बार उसकी नाक के नीचे से निकल जाता है. एक 21 साल का लड़का पुलिस को अपने पीछे-पीछे घुमा रहा है और ये सब वो इतनी ज़्यादा प्लानिंग-प्लॉटिंग के साथ कर रहा है, ये थोड़ा सा फिल्मी हो जाता है.

कई अच्छी बातों में सबसे अच्छी बात ये है कि फिल्म कभी भटकती नहीं है. वो सीधे-सीधे कहती है, जो वो कहना चाहती है. वो शुरू से लेकर आखिरी तक इक्वॉलिटी और महिलाओं-पुरुषों के बीच किए जाने वाले सामाजिक भेद-भाव की बात करती है. ये मसला फिल्म की लिखावट में ही गुंथा हुआ है. हर चीज़ में इक्वॉलिटी चाहिए लेकिन बसों और मेट्रो में रिज़र्व सीट भी चाहिए, ये किस तरह की बराबरी है. ऐसे सवाल हमने बहुत बारे सुने हैं. बहुत लोगों से सुने हैं. फिल्म इस सवाल का भी आंसर देती है. और आप उससे सहमत होते हैं. आपको समझ आता है कि आज के समय में आपको ये फिल्म एक साथ कितनी सारी रेलेवेंट बातें बता रही है. फिल्म देखते वक्त हैमरिंग सा भी लगता है लेकिन वो हमारे लिए ज़रूरी है. ताकि एक समाज या इंसान के तौर पर इन बातों को हम अपने दिमाग के एक कोने में सही तरीके से बिठा लें. और अगली बार अमल में लाएं. ताकि सामने से किसी और को आकर हमें ये चीज़ बताने की ज़रूरत न महसूस हो.

जब आप फिल्म देखने थिएटर में घुसते हैं, तो आपको रेगुलर बॉलीवुड कॉप फिल्म जितनी ही उम्मीद रहती है. लेकिन ये उससे ज़्यादा निकलती है. और बहुत तेज निकलती है. आप इंटरवल होने के बावजूद फिल्म को दो हिस्सों में बांटकर नहीं देख सकते हैं. एक शिवानी रॉय की फैमिली वाले सीक्वेंस को छोड़कर कोई भी हिस्सा बेमतलब नहीं लगता. ‘मर्दानी 2’ एकदम क्रिप्स और कट टू कट चलती है. आपके दिमाग में बहुत कुछ सोचने और समझने के लिए छोड़ती है और अपने हालातों पर रोती हुई, खत्म हो जाती है. इसे ब्रिलियंट सिनेमैटिक क्राफ्ट के लिए भले ही न याद रखा जाए लेकिन प्रासंगिकता के मामले में ये ‘मुल्क’ जैसी लैंडमार्क फिल्म के आस पास पहुंच जाती है.


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December 6, 20191min00

दसवीं से पहले पिताजी कहे थे,’चिंटू त्यागी, टेंथ सही से कर लो फिर आराम ही आराम है.’ इसी प्रॉमिस में पहले हमसे इंजीनियरिंग, फिर नौकरी, फिर हाथों हाथ शादी भी करवा ली. या तो ये साला ‘आराम ही आराम’ हमारी किस्मत में नहीं लिखा, या अपने ही पिता के हाथों चिंटू बने हम.

 

ये है ‘पति पत्नी और वो’ मूवी का एक मोनोलॉग. जिसे कार्तिक आर्यन के कैरेक्टर अभिनव त्यागी उर्फ़ चिंटू से बुलवाया गया है. इसके अलावा इस मूवी में दो-एक मोनोलॉग्स और हैं. वो भी कार्तिक के ही हिस्से आए हैं. या शायद कार्तिक के लिए ही स्पेशली लिखे गए हैं. स्पेशली क्यूं? क्यूंकि जिस तरह शाहरुख़ खान ‘रोमांस’ के हैं, जिस तरह इमारन हाशमी ‘किसिंग’ के हैं, जिस तरह सूरज बड़जात्या ‘फैमिली ड्रामा’ के हैं और जिस तरह हिमेश ‘नासिका गायन’ के हैं, वैसे ही कार्तिक आर्यन, ‘मोनोलॉग्स’ के पर्यायवाची हैं. तबसे जबसे ‘प्यार का पंचनामा’ में उनका एक मोनोलॉग खूब हिट रहा था.

 

सुनो कहानी

मूवी का नाम ही इसकी कहानी है.’पति पत्नी और वो’.

एक शादीशुदा कपल है. हैप्पी कपल. अरेंज मैरिज से उत्पन्न हुआ कपल. अभिनव त्यागी और वेदिका त्रिपाठी से मिलकर बना कपल. लेकिन फिर शादी के तीन साल बाद इस कपल के ‘पति’ की लाइफ में एक दूसरी औरत आती है. जो मूवी की ‘वो’ है. नाम है तपस्या सिंह.

यूं स्टोरी में एक कॉन्फ्लिक्ट या मेन प्लॉट बनता है जो क्लाइमेक्स तक इंटेंस होता चला जाता है. लेकिन मूवी लास्ट में …तो बच्चा बजाओ ताली’ वाली फील देते हुए हैप्पी एंडिंग को प्राप्त हो जाती है.

अरे हां! पति वाले कैरेक्टर का एक दोस्त भी है. फ़हीम रिज़वी. जो इस कॉमेडी मूवी में कॉमिक रिलीफ लाने का काम करता है. और जिसे लगता है कि वो अभिनव त्यागी रुपी राम के जीवन में हनुमान का रोल प्ले करेगा. लेकिन दरअसल वो तो लंका लगाने के लिए अवतरित हुआ है. जैसा एक जगह अभिनव त्यागी (चिंटू) कहता है.

 

एक्टिंग का बही खाता

पति. यानी अभिनव त्यागी बने है कार्तिक आर्यन. जिनके बारे में अब समझ में आना असंभव हो गया है कि अच्छी एक्टिंग कर रहे हैं या टाइपकास्ट हो रहे हैं. मूछों के साथ, मूछों के बिना. शादीशुदा, बैचलर. एक बार ‘रज्जो’ बन चुके आर्यन को  देखकर अब कोई अलग फील आती ही नहीं. और शायद डायरेक्टर्स भी उनसे ऐसा ही चाहते हैं.

पत्नी. यानी वेदिका त्रिपाठी बनीं भूमि को ऐसे रोल्स 9 टू 5 सरीखे रूटीन ऑफिस वर्क लगते होंगे. जिसमें उनको ‘सांड की आंख’ लेवल के एफर्ट्स नहीं लगाने पड़ते होंगे. बस आए, दस बारह टेक में चार पांच सीन शूट किए और घर गए.

वो. यानी तपस्या सिंह का रोल अदा किया है चंकी पांडे की लड़की, अनन्या पांडे ने. वो मूवी में कॉन्फिडेंट तो दिखती ही हैं, साथ ही एक्टिंग भी ठीक की है. लेकिन उनके ट्रू पोटेंशियल को जानने के लिए उनकी एक दो मूवीज़ का और इंतज़ार करना होगा.

अपराशक्ति खुराना. गज़ब. वो होता है न, कि एक मूवी के बाद आप कुछ और बड़े हो जाते हैं. आप कुछ और परिपक्व हो जाते हैं. फहीम रिज़वी का किरदार भी अपारशक्ति खुराना के साथ यही करता है. उन्हें कुछ और बड़ा बना देता है. कुछ और परिपक्व बना देता है. मूवी में उनकी कॉमिक टाइमिंग और उर्दू के तलफ्फुज़ ऐसे हैं कि शायद पैकअप के बाद उन्हें रोज़ ‘घर वापसी’ करनी पड़ती होगी. 😉

सनी सिंह, जिनकी कार्तिक के साथ जोड़ी काफी सेलिब्रेट की जाती है. इसमें एक गेस्ट रोल में है. उनके आने पर हॉल में इतनी सीटियां बजने लगती हैं गोया शाहरुख़ की मूवी में सलमान का गेस्ट एपियरेंस हो.

 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन

‘पति, पत्नी और वो’ को भूषण कुमार और जूनो चोपड़ा की कंपनी ने प्रोड्यूस किया है. जूनो बलदेव राज चोपड़ा के पोते हैं. ये फिल्म 1978 में आई बीआर चोपड़ा की फिल्म की रीमेक है. उस फिल्म और इस फिल्म की समानता मूवी के शुरू होने से पहले ही दिखने लग जाती है. जब बीआर चोपड़ा के बैनर का थीम शंखनाद होता है-कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन…

इसके बाद उस मूवी, यानी पुरानी वाली और इस मूवी, यानी नई वाली में समानताएं केवल ‘रेफरेंस’ के स्तर पर ही रह जाती हैं. मतलब इंस्पिरेशन के स्तर पर, न कि कॉपी के. और इसलिए ये समानताएं, ये सटल रेफरेंसेज़ अच्छे लगते हैं. मतलब ऐसा लगता है कि ये नई वाली मूवी उस मूवी को कॉपी नहीं कर रही. बस उसका और उसकी लेगेसी का सम्मान भर कर रही है.

 

कि जब, बैकग्राउंड में ‘ठंडे ठंडे पानी से’ गीत चलता है.

कि जब, नई वाली मूवी के क्लाइमेक्स में कृति सेनन उसी रंग के कपड़े पहन कर आती हैं जिस रंग के पुरानी मूवी में परवीन बॉबी पहन कर आईं थीं.

कि जब, फहीम रिज़वी का किरदार, अब्दुल करीम दुर्रानी के किरदार का बड़े यूनिक तरीके से अडैप्टेशन करता है.

 

अच्छी या फिर कम बुरी बातें

मूवी के डायलॉग्स या वन लाइनर्स बड़े इंटेलिजेंट ढंग से लिखे गए हैं. जिनको सुनकर एक पहेली हल कर लेने करने वाला सेटिस्फेकशन मिलता है. और इसी से हास्य पैदा होता है. जैसे-

टमाटर पैक कर लो. क्यूंकि, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा

 

अगर आप मूवी में अपने इमोशन पूरी तरह इंवेस्ट करते हैं तो आपको क्लाइमेक्स का वो डायलॉग भी अच्छा लगेगा जहां वेदिका त्यागी कहती है

अगर तुम्हारी हंसी किसी को क्यूट लगे तो सोचना कि तुम्हारी हंसी है किसके वजह से.

 

‘पति पत्नी और वो’ के ट्रेलर ने डायलॉग्स के चलते बहुत कंट्रॉवर्सी बंटोरी. ट्रेलर देख कर ऐसा महसूस होता था मानो किसी ने फैमिली ग्रुप में आने वाले सस्ते वॉट्सऐप फॉरवर्ड लेकर डायलॉग लिख दिए हैं. जैसे-

‘मेरी बीवी भाग गई है.’

‘ओह, तो मेरी भी भगवा दो.’

 

ट्रेलर में एक जगह कार्तिक आर्यन का किरदार ये भी कहता है कि

बीवी से सेक्स मांग लें तो हम भिखारी, बीवी को सेक्स मना कर दें तो हम अत्याचारी, और किसी तरह जुगाड़ लगा के उससे सेक्स हासिल कर लें न, तो बलात्कारी भी हम ही हैं.

 

हालांकि मूवी में राहत की बात ये है कि 3 मिनट के ट्रेलर में जितने कंट्रॉवर्शियल डायलॉग्स हैं 2 घंटे के लगभग की मूवी में भी उससे सिर्फ एक और एक्स्ट्रा कंट्रॉवर्शियल डायलॉग है. ये एक्स्ट्रा वाला ट्रांसजेंडर्स को लेकर है. और इसे किसी भी हालत में मूवी में नहीं होना चाहिए था. लेकिन बाकी मूवी सुथरी है. और कार्तिक के मोनोलॉग से भी ‘बलात्कारी’ शब्द को ‘बेड संस्कारी’ से रिप्लेस कर दिया गया है.

मूवी जितनी महिला विरोधी अपने ट्रेलर से लग रही थी उतनी है नहीं. बल्कि एंड में तो ये ‘सामजिक इश्यूज़’ को लेकर कुछ ज़्यादा ही ज्ञान देने लगती है. प्रीची लगने लगती है.

मूवी के फीमेल करैक्टर्स भी पर्याप्त स्ट्रॉन्ग हैं. चाहे उनकी तुलना पुरानी वाली ‘पति पत्नी और वो’ की फीमेल कैरेक्टर्स से करो या कार्तिक की ही किसी पुरानी मूवी के फिमेल कैरेक्टर्स से. या फिर रिसेंटली आईं ‘हाउस फुल 4’ टाइप मूवीज़ से. जब भूमि पेडणेकर कहतीं हैं-

पतिव्रता आउट ऑफ़ फैशन है. आजकल कुलटाओं का ज़माना है.

 

या, जब वो कहतीं हैं

हमारा पति चरित्रहीन हो गया.

 

…तो यकीन जानिए वो ये सब इतने कॉन्फिडेंस और अधिकार से कहती हैं कि अपने पति से धोखा खा रहा उनका किरदार भी ‘नो नोनसेंस’ किरदार लगता है. वो कहीं से भी ‘अबला नारी’ टाइप किरदार नहीं लगता. ये किरदार अपने होने वाले पति से साफ़ बोल देता है कि वो वर्जिनिटी खो चुका है या फिर उसकी हॉबी ये है कि उसे सेक्स बहुत पसंद है.

मूवी की एक और अच्छी बात इसका फैमिली मूवी होना है. न्यूनतम या ज़ीरो बिलो दी बेल्ट जोक. न्यूनतम या ज़ीरो द्विआर्थी डायलॉग. और इतनी ही मात्रा के सेक्स या क्राइम सीन्स. हां फिल्म इक्का-दुक्का जगह, माफ़ कीजिए पर इधर-उधर भटककर ‘लूज़ टॉक’ करने लगती है.

फिल्म के डायरेक्टर और लेखक मुदस्सर अज़ीज़ हैं और उनकी तारीफ़ मूवी की क्रिस्पनेस के चलते. एडिटर की तारीफ़ फिल्म छोटी करने के चलते. और स्क्रिप्ट राईटर (अगेन मुदस्सर अज़ीज़) की तारीफ़ इसलिए कि मूवी के ओवरऑल इंटेंशन ग़लत नहीं लगते हैं.

चिरंतन दास की सिनेमाटोग्राफी की बात ज़रूर होनी चाहिए. कि जिस तरह से गली गली घूम के कानपुर का नक्शा बनाया है. मूवी देखने जाएं तो इसके सबसे पहले सीन को गौर से देखिएगा जब कैमरा दूर से आता हुआ कोर्ट के गुंबद से गुज़रकर एक्टर्स पर फोकस हो जाता है. विहंगमता ऐसी कि मानो किसी स्लो मोशन में चल रही चील पर लगा दिया गया हो. या फिर ये शायद ‘ड्रोन’ हो.

 

बुरी या फिर कम अच्छी बातें

मूवी की एक कमी इसमें ताज़गी का न होना है. जैसे भूमि के किरदार को ही ले लें. कभी वो तनु वेड्स मनु की कंगना लगती हैं तो कभी वो जब वी मेट की करीना तो कभी मनमर्जियां की तापसी.

कुछ और फ़ॉर्मूले भी यूज़ किए गए हैं और ये भी मूवी के ताज़ेपन में कमी लाते हैं. जैसे अगर किसी पुरुष को सीधा-साधा दिखाना है तो उनकी नाक के नीचे मूछें चेप दो. कानपुर के साथ ‘ठग्गू के लड्डू’ और ‘कंटाप’ जैसे शब्द टैग कर दो. मुस्लिम कैरेक्टर को ‘एक विशेष तरह का’ डिक्शन दे दो. दिल्ली दिखाना है तो ‘राष्ट्रपति भवन’ दिखा दो.

मूवी का म्यूज़िक एल्बम कई गीतकारों और संगीतकारों का कोलाज है. लेकिन फिर भी औसत दर्ज़े का ही है.

मूवी का क्लाइमेक्स भी थोड़ा सपाट है. वो जैसा हज़ारों हॉलीवुड-बॉलीवुड मूवीज़ में हम देख चुके हैं. एयरपोर्ट वाला. बस वही.

 

और अंत में क्रेडिट रोल

मूवी एंटरटेनिंग तो है ही साथ ही आजकल बनने वाले कंटेट के हिसाब से फैमिली मूवी की कैटेगरी में आती है. अच्छे ह्यूमर की तलाश करने वाले अपनी पूरी फैमिली के साथ इसे देखने जा सकते हैं. इसके अलावा इसे देखा जा सकता है ‘नेहा’ नाम के एक कैरेक्टर के चलते जो फिल्म में कहीं नहीं है. या इसे देखा जा सकता है ‘राकेस’ यादव की ‘मैं हूं ना’ फेम आशिकी के लिए. इसे कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के लिए भी देखा जा सकता है. और ‘हाउसफुल 4’ या ‘पागलपंती’ से अपने को डिटॉक्स करने के लिए तो इसे यकीनन देखा जा सकता है.


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November 16, 20191min00

‘मरजावां‘ के डायरेक्टर मिलाप ज़ावेरी ने 2002 की कल्ट मूवी ‘कांटे’ के डायलॉग लिखे हैं. कांटे में उनका एक डायलॉग है

कहानी में ट्विस्ट हो न, तो मज़ा आता है.

लेकिन वो ये कहीं नहीं बताते कि क्या हो अगर कहानी में ज़रूरत से कहीं ज़्यादा ट्विस्ट हों और कोई एक सिरा पकड़ना ही असंभव हो जाए?

 

 कहानी

अन्ना मुंबई में पानी के टैंकरों की कालाबाज़ारी करता है. जब रघु ‘इतना सा’ था तब अन्ना उसे गटर से उठाकर लाया था. अन्ना का एक सगा बेटा भी है. नाम है- विष्णु. यूं ‘विष्णु’ अन्ना का वारिस है और रघु ‘लावारिस’. जैसा रघु एक जगह कहता है.

विष्णु, रघु से नफ़रत करता है. क्यूंकि अन्ना उससे ज़्यादा रघु को चाहता है. रघु की प्रेमिका ज़ोया एक कश्मीरी लड़की है, जो बोल नहीं सकती. विष्णु की नफरतों और जलन के चलते इन सभी करैक्टर्स और उनकी कहानियों में ट्विस्ट एंड टर्न्स आते हैं और अंत में कहानी का किसी एटीज़-नाइंटीज़ वाली फिल्म सरीखा इमोशनल क्लाइमेक्स होता है.

 

स्क्रिप्ट

‘परिंदा’, ‘ग़ुलाम’, ’देवदास’, ‘अग्निपथ’, ‘कयामत से कयामत तक’, ‘गजनी’, ‘काबिल’, ‘लावारिस’ और ‘केजीएफ’ जैसी ढेरों मूवीज़ की याद दिलाती इस मूवी की स्क्रिप्ट कहीं से भी नई नहीं है. लेकिन इस सब के बावज़ूद स्क्रिप्ट के कई मोमेंट्स हैं जहां पर ये दर्शकों को शोर मचाने, गुस्सा दिलाने और इमोशनल होने पर मजबूर करती है.

दुःख इस बात का होता है कि ‘विष्णु’, ‘अन्ना’ और ‘रघु’ के करैक्टर्स मल्टीलेयर्ड होने का माद्दा रखते थे. लेकिन स्क्रिप्ट में एफर्ट्स की कमी के चलते वो ‘परिंदा’ के ‘नाना पाटेकर’ या ‘सत्या’ के ‘जे डी चक्रवर्ती’ के आस-पास भी नहीं फटक पाए.

केवल स्क्रिप्ट ही नहीं, डायलॉग्स से लेकर म्यूज़िक तक में अगर सबसे ज़्यादा कमी खलती है तो वो है फिनिशिंग टच की.

एक और दिक्कत ये है कि इसमें एक्शन को ज़्यादा भाव दिया गया है, जबकि इसका रोमांस वाला पार्ट ज़्यादा उभर कर आता, ऐसा मेरा मानना है.

 

म्यूज़िक

मूवी का म्यूज़िक एक्सेप्शनल नहीं कहूंगा लेकिन पिछले दिनों आईं कई मूवी एलबम्स से कहीं बेहतर है. ‘तुम ही आना’ एक नज़्म सरीखी है जिसके लिरिक्स और म्यूज़िक एक दूसरे को बेहतरीन तरह से कॉम्प्लीमेंट करते हैं. इसे कई जगह ‘सैड ट्यून’ की तरह बैकग्राउंड में यूज़ किया गया है. अरिजीत का गाया हुआ ‘थोड़ी जगह’ गीत अपने लिरिक्स और म्यूज़िक के चलते आशिकी 2 एल्बम की याद दिलाता है. ‘एक तो कम जिंदगानी’, ‘किन्ना सोणा’ और ‘हैया हो’ गीत पुराने हिट गीतों के नए वर्ज़न हैं, जो आजकल की फिल्मों का नॉर्म बन चुका है.

 

ट्रेलर वर्सेज़ मूवी

मूवी देखने जाने के अनुभव को बहुत सी चीज़ें प्रभावित करती हैं. उनमें से एक है मूवी का ट्रेलर. तो अगर आप ‘मरजांवा’ का ट्रेलर देखकर मूवी के ऐंवे-ऐंवे होने की उम्मीद लगा रहे हैं तो आप सरप्राइज़ हो सकते हैं. क्यूंकि मूवी उतनी बुरी नहीं है जितना इसका ट्रेलर.


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November 8, 20191min00

बालमुकुंद इमोशनल होते हुए कहता है. कि नहाने के तुरंत बाद वो अपना कच्छा नहीं, अपना विग पहनता है. इसलिए कि विग न पहना हो, तो उसे लगता है वो नंगा हो गयाउसका ये कहना सुनकर आपके अंदर हास्य और करुणा एक साथ जनमती है. हास्य और पीड़ा का ये ही जोड़ आप पूरी फिल्म में पाते हैं. वही जोड़, जिसके बारे में शायद चार्ली चैपलीन कह गए हैं कि ट्रेजेडी+टाइमिंग इजकल्टू, कॉमेडी.

 

कहानी

काफी विवादों के बाद आख़िरकार 8 नवंबर, 2019 को रिलीज़ हुई फिल्म ‘बाला’. ये कहानी है बालमुकुंद शुक्ला उर्फ बाला की. बाला कानपुर का एक सेल्समैन है. ब्यूटी प्रॉडक्ट बेचता है. लेकिन उसका बॉस उससे फील्ड वर्क छुड़वाकर उसे ऑफिस वर्क दे देता है. काइंड ऑफ़ डिमोशन. और डिमोशन इसलिए क्योंकि उसके बाल नहीं हैं. बाला गंजा है. इसीलिए बॉस और समाज़ की नज़र में उसकी पर्सनेलिटी ठंडी है. बाल नहीं, तो चार्म नहीं.

बाल न होने के चलते ही उसे गर्लफ्रेंड नहीं मिलती,  बचपन वाली ब्रेक-अप कर लेती है. बाल न होने के चलते उसकी शादी नहीं होती.  बाल न होने के चलते ही वो अपने सपने पूरे नहीं कर पाता. सपना, एक स्टैंड-अप कॉमेडियन बनने का.

यानी सारी मुसीबतों की जड़ बाल ही हैं. बाल मतलब बालों का न होना. होने को एक लड़की है, जो बाला को पसंद करती है. बचपन से. लेकिन बाला उसे पसंद करना तो दूर उसकी मज़ाक और उड़ाता है. क्योंकि वो लड़की सांवली है. इन्हीं सब ‘दुखों’ के बीच जब एक दिन उसके पिता उसे बालों का विग गिफ्ट कर देते हैं, तो उसकी ज़िंदगी बदल जाती है. लखनऊ की एक टिक-टॉक सिलेब्रेटी उसकी गर्लफ्रेंड भी बन जाती है. उसकी ज़िंदगी में आए इस बदलाव के रास्ते ‘स्वीकार्यता’ की कहानी कहती है ‘बाला’.
एक बार फिर भूमि पेडणेकर को मेकअप का साथ नहीं मिल पाया. इससे पिछली फिल्म 'सांड की आंख' में भी यही हुआ था.

 

मैनरिज़्म

फिल्म में अस्सी प्रतिशत घटनाएं कानपुर और बाकी 20 फीसद चीजें लखनऊ में घटती हैं. फिल्म के राइटर (निरेन भट्ट), डायरेक्टर (अमर कौशिक), सिनेमाटोग्राफर (अनुज राकेश धवन) और बाकी की टीम ने इन शहरों के फ्लेवर को मस्त पकड़ा है. शहरों का मैनरिज़म. वहां की बोली. वहां के छोटे-छोटे लोकल शब्द जैसे – कान्हेपुर, लभेड़. वहां के इलाके. इन सबका एक नैचुरल सा रंग है फिल्म में.

वैसे मूवी ‘लल्लनटॉप’ का विज्ञापन भी करती हुई लगती है. ये शब्द (लल्लनटॉप)  दो गानों के साथ-साथ एक डायलॉग में भी सुनने को मिलता है. यानी कुल तीन अलग-अलग जगहों पर.

डायलॉग्स, वन लाइनर और बोली- इन सबमें एक चटखारा है. समझिए कि एक खास किस्म के लहजे की आंच में बहुत स्वादिष्ट ह्यूमर पकाया गया है. और यूं मूवी के डायलॉग्स इसका सबसे स्ट्रॉन्ग डिपार्टमेंट बन गए हैं. कुछ डायलॉग्स जो सिनेमा हॉल से निकलकर अब भी मेरे साथ हैं, उनकी मिसाल देखिए-

  • हेयर लॉस नहीं आइडेंटिटी लॉस हो रहा है हमारा.
  • जितने भी विकेट बचे हैं, उनके रहते अपनी इनिंग बचा लो.
  • पूरा UP भगवान के भरोसे है.

बाला के भाई के हिस्से आया एक मोनोलॉग बिना क्रिपी हुए ‘प्यार का पंचनामा’ वाले मोनोलॉग की याद दिलाता है. अपने ह्यूमर कोशेंट और तेज़-तेज़ बोले जाने के चलते. मूवी में कभी-कभी ह्यूमर व्यंग का रूप भी ले लेता है. तब, जब वो सच्चाई के साथ मिक्स हो जाता है.

 

ऐक्टिंग

आयुष्मान खुराना हों या भूमि पेडणेकर, दोनों ही लीड ऐक्टर्स ने अदाकारी के सारे बॉक्स चेक किए हैं. कनपुरिया लहजा और हाव-भाव बढ़िया पकड़ा है. लेकिन मेकअप का जो अडवांटेज आयुष्मान को मिला है, वो भूमि नहीं पा सकी हैं. मतलब आयुष्मान अगर एक गंजे आदमी का किरदार कर रहे हैं, तो उनका मेकअप कभी भी हमें अन्यथा सोचने का मौका नहीं देता. जबकि भूमि का सांवला रंग काफी हद तक बनावटी लगता है. जावेद जाफरी ने अमिताभ बच्चन को अच्छा कॉपी किया है. लेकिन ट्रेलर में उनको देखकर जो ह्यूमर की उम्मीद जगती है, वो मूवी में पूरी नहीं हो पाती. उनके छोटे और ‘नॉट सो ह्यूमर्स’ रोल के चलते ऐसा लगता है कि उनका किरदार बेकार ही चला गया. फिल्म में अच्छे तरीके से इस्तेमाल नहीं हो पाए जाफरी. बाला के पिता बने सौरभ शुक्ला के लिए तो क्या ही कहें. वो आलू हैं. जहां डालो, अपना स्वाद अपनी जगह बना लेते हैं. यामी की ऐक्टिंग तो ओके है, लेकिन उनका करेक्टर ‘परी’ गले के नीचे जाते हुए अटकता है. आपको एक्स्ट्रा जतन करके इसको निगलना पड़ता है. कारण ये कि वो अविश्वसनीय लगती हैं. उनके किरदार का ‘एक्सट्रीम’ दर्शकों को कन्विंस नहीं कर पाता.

 

स्क्रिप्ट

मूवी इंटरवल से पहले फुल ऑन एंटरटेनिंग है, लेकिन इंटरवल के बाद ऐसा लगता है कि धक्का दे-देकर चल रही हो. वैसी मक्खन चाल नहीं रह पाती.

स्क्रिप्ट कई जगहों पर ऐसी है कि आपको लगेगा, कुछ और करते. क्योंकि कहानी का वो प्लॉट बहुत ही ऑब्यस मालूम पड़ता है. मसलन, एक लीड करेक्टर कुछ कन्फेशन करने वाला होता है. मगर उसके ऐसा करने से ठीक पहले ही दूसरे लीड करेक्टर को सच्चाई पता लग गई. फिर इस संयोग के दम पर कहानी में कन्फलिक्ट पैदा किया गया. ये बहुत घिसा-पिटा फॉर्म्युला है. ऐसी ही कई और चीज़ें है जिसके चलते फिल्म वैसी रिफ्रेशिंग वाली फील नहीं दे पाती, जैसी कभी ‘दम लगा के हईशा’ ने दी थी. मैंने ‘दम लगा के हईशा’ की बात इसलिए की क्यूंकि दोनों फिल्मों के लीड एक्टर्स ही नहीं, बल्कि कहानी के कॉन्सेप्ट में भी बहुत ज़्यादा समानताएं है. दोनों फिल्मों की कहानियों में एक पुरुष किरदार है, जो खुद ‘परफेक्ट’ न होते हुए भी ‘परफेक्ट’ स्त्री की चाह रखता है. और-तो-और, 90s के नॉस्टेल्जिया को कैश करवाने का प्रयास भी दोनों ही फिल्मों में है. वहां कुमार शानू के माध्यम से था, यहां ‘फैंटम’ नाम की बच्चों की सिगरेट के माध्यम से.

 

डायरेक्शन

अमर कौशिक के डायरेक्शन में कुछेक सीन बड़े इमोशनल बन पड़े हैं. जैसे-स्टूडेंट रियूनियन वाला सीन. मगर बात बनती हुई लगती नहीं. ज़्यादातर सीन अधपके हैं. जैसे- बाप बेटे का कन्फ्लिक्ट. कोशिश की जाती, थोड़ा सोचा जाता, तो ये सीन बड़े असरदार बन सकते थे.

अगर आपने अवार्ड विनिंग वेब सीरीज़ ‘गुल्लक’ देखी है, तो आपको बाला का घर और ‘गुल्लक’ के मिश्रा जी का घर एक ही लगेगा. दोनों घरों की एक विशेषता है. ये एकदम सच्चे लगते हैं. ऐसे कि आपको अपने बचपन के घर का अस्त-व्यस्तपना याद आता है. ‘बाला’ के हर सीन की रियल्टी से पक्की वाली यारी देखने को मिलती है. और ये डायरेक्टर अमर कौशिक और उनके साथी प्रोड्यूसर दिनेश विजन की खासियत भी रही है. इनकी पिछली फिल्म ‘स्त्री’ याद कीजिए.

रेफरेंसेज़ और प्रॉप्स का भी अच्छा इस्तेमाल किया गया है. जैसे- टिक-टॉक, जिसे टियर-टू-सिटी का ट्विटर भी कहा जाता है. टिक-टॉक इस फिल्म का कहानी के नरेशन का एक ज़रूरी हिस्सा है. ये शायद पहली बार किसी मूवी में इतने बड़े स्तर पर इस्तेमाल किया गया होगा. बाकी नाइंटीज़ की वो फेंटम वाली बच्चों की सिगरेट जैसे छोटे-मोटे रेफरेंसेज़ तो हैं ही.

 

म्यूज़िक

फिल्म का म्यूज़िक बहुत औसत है. माने आपने सुना और भूल गए. आप इसे गुनगुनाना भी नहीं चाहेंगे. हां, इतना ज़रूरी है कि गानों के शब्द, इसकी लिरिक्स बहुत चुटीली और फ्रेश हैं. फिर चाहे बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह इस्तेमाल हुआ गीत हो या ‘टकीला’ सॉन्ग. ऐंड क्रेडिट में यूज़ हुआ गीत ‘डोन्ट बी शाय’ बादशाह के म्यूज़िक के चलते अच्छा लगता है. किसी संस्कृत के श्लोक की पेरोडी टाइप लगता मोटिवेशनल सॉन्ग भी अपने कंटेट में क्रिएटिव तो काफी है, लेकिन फुल लेंथ फीचर फिल्म की जो एक संजीदगी होती है, उसे थोड़ा कमज़ोर करता है. ‘प्यार तो था’ की मेलोडी प्रभावित नहीं करती. वो बस आया-गया टाइप कोई औसत से नीचे का गाना बनकर रह जाता है. ‘नाह सोणिए’ एक हिट हो चुके पंजाबी सॉन्ग का ही फ़िल्मी वर्ज़न है, जैसी कि परंपरा हो चली है आजकल.

अगर आपने ‘बाला’ के गाने सुने हों, तो गौर किया हो शायद. फिल्म की कहानी UP के बैकड्रॉप में बढ़ती है, मगर गाने अधिकतर गाने पंजाबी हैं.

 

उजड़ा चमन

पिछले हफ्ते कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोट्टेया काठे’ की ऑफिशल हिंदी रीमेक ‘उजड़ा चमन’ रिलीज़ हुई थी. उसके साथ ‘बाला’ का काफी विवाद चला था और मामला कोर्ट तक पहुंच गया था. मसला ये था दोनों की स्क्रिप्ट एक सी थी. अब चूंकि हमने दोनों ही मूवीज़ देख ली हैं, तो हमें मालूम है कि दोनों फिल्मों का मूल विषय बेशक एक सा हो, लेकिन स्क्रिप्ट और ट्रीटमेंट के चलते दोनों ही बिलकुल अलग-अलग फ़िल्में हो जाती हैं. दोनों फिल्मों की तुलना ‘जब वी मेट’ का एक डायलॉग सबसे बेहतर तरीके से करता है- एक इंच की बेंड और मीलों की दूरी. बस यही दूरी है दोनों फिल्मों के बीच. होने को दोनों फिल्मों की तुलना को अगर आप क्वांटिफाई करना चाहते हैं, तो बता दें कि बाला पहली नज़र में ‘इक्कीस’ साबित होती दिखती है.

 

अंत में एक ऑब्जर्वेशन

कुछ सालों पहले एक मूवी देखी थी- डॉक्टर ज्हिवागो. फिल्म की कहानी यूं थी कि कैसे एक समाज की कमियों से एक क्रांति जन्म लेती है. लेकिन फिर कैसे उस क्रांति के बाद का नया समाज नई कमियों को बोने लगता है. गोया एक नई क्रांति के वास्ते स्पेस बना रहा हो.

नब्बे के दशक में जब हम वही शिफ़ॉन की साड़ियां, वही बर्फ़ के पहाड़ों वाला बैकग्राउंड, वही लो-एंगल कैमरा, वही स्लो मोशन देख-देखकर उकता गए, तो नई तरह की कहानियां आईं. छोटे शहरों की कहानियां. ‘विक्की डोनर’, ‘मसान’, ‘दम लगा के हईशा’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘स्त्री’, ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘बधाई हो’. ये शुरुआत एक परंपरा के टूटने से हुई. जोखिम लेने की हिम्मत से उपजीं ये फिल्में. लेकिन ‘बाला’ तक आते-आते, इस क्रांति से उत्पन्न हुआ कॉन्सेप्ट/प्ऱडक्ट भी एक नई क्रांति के लिए कसमसाने सा लगा है. एक नए तरह के कॉन्सेप्ट का इतनी ज़ल्दी ‘कंफर्ट ज़ोन’ में आ जाना ‘डॉक्टर ज्हिवागो’ की क्रांति की याद दिलाता है.

जैसे- ‘शोले’ के बाद आईं डाकू वाली फ़िल्में. ‘जय संतोषी मां’ के बाद आईं भगवान और भक्त वाली फ़िल्में. ‘हम आपके हैं कौन’ के बाद आईं शादी-ब्याह वाली फ़िल्में. DDLJ के बाद आईं विदेशी और हाई-फाई विदेशी लोकेशन वाली फ़िल्में. इस नई वाली विधा का भी एक टेंपलेट बन चुका है. जिसमें कई चीज़ें ऐसी हैं, जो अब कमोबेश एक सी ही रहती हैं. जैसे-

  • एक विशेष तरह की मूवीज़ को ‘यश चोपड़ा’ मूवीज़ कहा जाने लगा था. अब इन नई तरह की मूवीज़ को ‘आयुष्मान खुराना’ या ‘राजकुमार राव’ विधा की मूवीज़ कह दिया जाने लगे, तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए. क्यूंकि ये दोनों कलाकार जाने-अनजाने इस टेंपलेट का एक अहम हिस्सा हो चुके हैं.
  • एक ऐसा कन्फ्लिक्ट, जिसका हल, जिसका क्लाइमेक्स समाज की कुरीतियों को तोड़ता है. एक टैबू को खत्म करने की कोशिश करता है. एक मज़बूत सामजिक संदेश देता है. चाहे वो स्त्री-विमर्श को लेकर हो, नपुंसकता को लेकर हो, स्पर्म डोनेशन को लेकर हो या बॉडी शेमिंग को लेकर हो.
  • एक ऐसा शहर जो काऊ बेल्ट (हिंदी भाषी क्षेत्र) में स्थित है. जैसे अधिकतर UP, और कभी-कभी MP या राजस्थान.
  • हास्य, जो आंचलिक भाषा के प्रयोग (कभी-कभी दुष्प्रयोग) से जन्मा हो. और भाषा, जिसमें वहां के लोकल स्लैंग्स इस्तेमाल हुए हों. जैसे- भौकाल. लल्लनटॉप. ऐसे शब्द जिनमें उस अंचल का फ्लेवर हो. जैसे, रेणु और मनोहर श्याम जोशी की कहानियों में. आपको पढ़ते हुए ही मालूम चल जाता है कि फलां जगह के किरदार हैं. ये अलग बात है कि रेणु और मनोहर श्याम जोशी को पढ़ते हुए उनकी आंचलिकता आपको गुदगुदाती है. मगर इन फिल्मों में इस्तेमाल हुए शब्द कई बार जबरन घुसाए से भी मालूम जान पड़ते हैं.
  • कहानियों का ट्रीटमेंट सच्चा सा. बहुत गढ़ा और सजाया हुआ नहीं. करण जौहर और भंसाली की फिल्मों जैसा आलीशान नहीं. इनके घर हमारे-आपके घरों की तरह हैं. घर की दीवारों में आई सीलन. सब्ज़ी खरीदने के लिए पकड़ा गया हाथ का झोला. सड़क पर लगा जाम. और शाम को परिवार का लद-फदकर टीवी देखते हुए किचकिच करना. मतलब, वो दुनिया जो हम जानते हैं.

और भी कई चीज़ें हैं इस टेम्पलेट में. टेक्निकल और क्राफ्ट के स्तर पर. लेकिन चूंकि अभी इस फ़ॉर्मूले वाले फल में काफी रस है, इसलिए इसे और निचोड़ा जा रहा है. निचोड़ा जाएगा. तब तक आनंद लीजिए, जब तक ले सकें. और इंतज़ार कीजिए एक और नई क्रांति का. एक नए टेम्पलेट का.


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November 1, 20191min00

चमन कोहली आज जो विग पहन के कॉलेज गए हैं वो उन्हें परेशान कर रहा है. आदत नहीं है न. और इसलिए वो बार-बार अपने बाल खुजला रहे हैं. वॉशरूम में जाते हैं और विग खोलकर चैन की सांस लेते हैं. लेकिन उनका ये सारा क्रियाकलाप एक एमएमएस के रूप में पूरे कॉलेज में वायरल हो जाता है और चमन कोहली की खूब कॉलेज-हंसाई होती है.

अब इस पूरे सिक्वेंस में वही दिक्कत है जो पूरी ‘उजड़ा चमन’ मूवी में है. उस दिक्कत का नाम है- ‘अतिश्योक्ति’. ये दिक्कत इसलिए बड़ी लगती है क्यूंकि फिल्म अपने प्रोमो और अपनी पैकेजिंग में मॉडेस्ट और रियल्टी के करीब लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है.

 

कहानी

30 साल का चमन कोहली दिल्ली के हंसराज कॉलेज में हिंदी का प्रोफेसर है. वो और उसकी फैमली लगी हुई है कि कैसे न कैसे चमन की शादी हो जाए. लेकिन इसमें तीन बड़ी अड़चनें हैं. सबसे बड़ी दिक्कत है उसका गंजापन, जिसके चलते हर दूसरी लड़की उसे रिजेक्ट कर देती है और बची हुई आधी लड़कियों की या तो फैमिली रिजेक्ट करती है या उन लड़कियों को कैसे एप्रोच करना है ये चमन नहीं जानता. दूसरी दिक्कत है कि उसके पास वक्त बहुत कम है. क्यूंकि उसके फैमिली पंडित ने कहा है कि अगर 31 साल तक उसकी शादी नहीं हो जाती तो वो आजीवन कुंवारा रहेगा. तीसरी दिक्कत है चमन की खुद की एक्सपेक्टेशन.

चमन कोहली के पैरामीटर के हिसाब से अप्सरा बत्रा कुछ भी हो, अप्सरा तो कतई नहीं है.

वो चाहे कैसा भी हो, लेकिन उसे लड़की चाहिए खूबसूरत. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि उसकी ज़िंदगी में अप्सरा बत्रा आ जाती हैं जो चमन के मानकों में खूबसूरती में माइनस मार्किंग पाती हैं. इस सब घटनाओं और आपदाओं के दौरान चमन कोहली के सेल्फ रियलाइजेशन की स्टोरी है ‘उजड़ा चमन’.

 

रीमेक 

रोमांस और कॉमेडी, यानी रॉम-कॉम विधा की ये मूवी, कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ का ऑफिशियल रिमेक है. इसलिए ही कन्नड़ मूवी के राइटर और डायरेक्टर राज बी शेट्टी को हिंदी फिल्म में राइटर का क्रेडिट दिया गया है. स्क्रीनप्ले के हिसाब से कई चीज़ें अलग हैं, कुछ चीज़ें हटाई गई हैं और कुछ जोड़ी गई हैं. जैसे कन्नड़ वाले वर्ज़न में कॉलेज गर्ल का चमन को धोखा देने वाला पार्ट नहीं है जो इस मूवी में जोड़ा गया है. होने को कहीं-कहीं ट्रीटमेंट भी अलग है, जैसे लीड एक्टर-एक्ट्रेस के बीच का कॉन्फ्लिक्ट दोनों ही फिल्मों में अलग तरह से शुरू और अलग ही तरह से खत्म होता है. लेकिन ओवरऑल स्टोरीलाइन में ये सब चीज़ें थोड़ा सा भी अंतर नहीं डालतीं. और कई जगह तो ‘उड़ता चमन’ सीन दर सीन भी अपने कन्नड़ काउन्टरपार्ट की ज़िरॉक्स लगती है. जैसे प्रिंसिपल द्वारा एक स्टूडेंट का फाइन किया जाना या जैसे चमन कोहली द्वारा पंडित को शादी तोड़ने के लिए कन्विंस करना.

 

बाला से टक्कर 

अभी कुछ ही दिनों बाद बाला भी रिलीज़ होने वाली है. उस फिल्म का भी मेन प्लॉट, लीड करैक्टर का गंजा होना ही है. वैसे अगर दोनों फिल्मों के प्रोमो देखें तो समानताएं ज़्यादा और अंतर कम नज़र आते हैं लेकिन ये कितनी हैं और कौन ज़्यादा शाबाशी बटोरेगी वो बाला देखने के बाद ही पता चलेगा. एक फिल्म को अगर पहले रिलीज़ होने और ऑरिजनल मूवी का ऑफिशियल रीमेक होने का एडवांटेज़ मिला है तो दूसरी को आयुष्मान खुराना और भूमि पेडणेकर जैसी बड़ी स्टारकास्ट का.

 

एक्टिंग

‘प्यार का पंचनामा 2’ और ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ जैसी हल्की फुल्की फ़िल्में कर चुके सनी सिंह के पास इस फिल्म से अपने को साबित करने का अच्छा मौका था. लेकिन अगर उन्होंने मौका गंवाया नहीं भी तो उसे पूरी तरह से कैश भी नहीं करवा पाए. दो कारणों के चलते. एक तो मूवी के इमोशनल पार्ट इतने स्ट्रॉन्ग नहीं हैं कि उसमें अपना हुनर कोई दिखा पाए. दूसरा उनके एक्सप्रेशन पूरी मूवी में ऑलमोस्ट सेम रहते हैं. हां उन्हें ‘मेकअप’ का एडवांटेज़ ज़रूर मिला है, जिसके चलते उनको पहचानना मुश्किल है. उनकी पिछली मूवीज़ देखने के बाद आप इस बात पर उनकी तारीफ़ ज़रूर करेंगे कि उन्होंने करैक्टर के लो कॉन्फिडेंस और सेल्फ डाउट को काफी अच्छे से कैरी किया है.

मूवी का सबसे बड़ा हासिल हैं मानवी गग्रू. ये पहली बार है जब उन्होंने किसी फुल लेंग्थ फीचर फिल्म में लीड एक्ट्रेस प्ले किया हो. होने को ‘फोर मोर शॉट्स प्लीज़’, ‘ट्रिपलिंग’ और ‘पिचर्स’ जैसी वेब सीरीज़ में उनके काम को काफी सराहा गया था. इस फिल्म में भी उनके एक्सप्रेशन्स, उनकी एक्टिंग और अपने करैक्टर के लिए की गई उनकी मेहनत पर्दे पर दिखती है और उन्हें बॉलीवुड में अच्छे से स्थापित करने का माद्दा रखती है.

चमन के मम्मी पापा बने अतुल कुमार और ग्रुशा कपूर पंजाबी एक्सेंट और दिल्ली वाले हाव भाव बड़ी अच्छी तरह से पकड़ पाए हैं. सबसे अच्छी कॉमिक टाइमिंग सौरभ शुक्ला की है. बेशक वो दो एक छोटे-छोटे सीन में हैं, और बेशक वो सीन और उनका वो रोल उतना दमदार भी नहीं है. शारिब हाशमी ने कॉलेज के पियोन का किरदार बखूबी निभाया है. होने को ऑरिजनल मूवी में इस किरदार के पास करने को ज़्यादा था. हिंदी वाले वर्ज़न में उसकी स्टोरी को काफी कम कर दिया गया है साथ में उससे जुड़ा इमोशन भी सतही बनकर रह गया है. बाकी एक्टर्स का काम रूटीन तरह का है जिसमें कुछ भी अच्छा या बुरा इतना प्रोमिनेंट नहीं है.

 

स्क्रिप्ट

दो घंटे की मूवी में भी अगर दर्शक एंटरटेन नहीं हो पा रहे हैं तो यकीनन कहीं स्क्रिप्ट में बहुत बड़ा झोल है. फिल्म का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छा है. और स्क्रिप्ट के अपने मोमेंट्स भी हैं लेकिन लचर डायरेक्शन उसे पूरी तरह कैश नहीं करवा पाता. चमन और अप्सरा की सगाई के टूटने वाला सीन और चमन का पियोन राज कुमार के घर विज़िट करने वाला सीन काफी पावरफुल और इमोशनल हो सकता था. लेकिन ‘है’ और ‘हो सकता था’ का ये अंतर ही ‘मास्टरपीस’ और ‘औसत’ के बीच का अंतर है.

 

ह्यूमर और लव कोशेंट

हर हिट रॉम-कॉम मूवी में दो चीज़ें कमोबेश होती ही होती हैं. यूनिक लव स्टोरी और गुदगुदाने वाली कॉमेडी. जैसे ‘जब वी मेट’ या ‘समवन लाइक इट हॉट’. इस मूवी में भी लव स्टोरी यूनिक है, लेकिन इसे देखते हुए आपको बार-बार लगता है जैसे आप छोटे बजट की कोई वेब सीरीज़ देख रहे हों. क्यूंकि ये लव स्टोरी आईडिया के लेवल पर तो यूनिक है, लेकिन स्टोरीबोर्ड से होते हुए स्क्रिप्ट के रास्ते स्क्रीनप्ले तक पहुंचते-पहुंचते अपने साथ कई क्लिशे चिपका लेती है. फिर चाहे वो ‘प्यार की पहली सीढ़ी लड़ाई’ जैसा घिसा पिटा कॉन्सेप्ट हो या लड़की के सामने लड़के का कान पकड़ के कन्फेशन करना या ‘जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है’ जैसे डायलॉग्स.

रही बात कॉमेडी की तो वो रिपीटेटिव लगती है जब ‘मेटाबॉलिज्म’,’सेलिबेसी’ और ‘टेस्टोस्टेरोन‘ जैसे एक नहीं तीन-तीन शब्दों को तोड़-मरोड़ के उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. वो सतही लगती है जब एक विशेष प्रकार के कल्चर और एक्सेंट से उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. कहीं-कहीं उबाती और इरिटेट करती है जब टाइमिंग और बैकग्राउंड म्यूज़िक उसका साथ नहीं दे पाए हों. और वो जब अच्छी लगती है तो याद आता है कि ये वाली सीधे ऑरिजनल कन्नड़ मूवी में भी ठीक ऐसी ही थी.

 

अतिश्योक्ति

फिल्म में कई ऐसी चीज़ें हैं जिसपर आप कहेंगे ऐसा कहां होता है? कुछ चीज़ें फिजिक्स के लेन्ज लॉ की तरह अपने ही स्रोत का विरोध करती लगती हैं.

एक तरफ ये गंजेपन और मोटापे को लेकर ‘एक्सेपटेंस’ बढ़ाने का प्रयास करती है दूसरी तरफ दिल्ली और पंजाबियों को लेकर अपने प्री कंसीव नोशन रखती है. जैसे पंजाबी फैमली है तो लाउड होगी. पंजाबी हैं तो शराब पिएंगे ही पिएंगे. और इस चीज़ को हाईलाईट करने के लिए जैसे ही शराब की बात आती है, बैकग्राउंड में ‘पंजाबी’ शब्द सुनाई देता है. एक पुराने से कॉमन बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में.

बैकग्राउंड म्यूज़िक की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं. न केवल इसकी लाउडनेस से बल्कि इसकी टाइमिंग से भी दिक्कत है. कई जगह ये किसी जोक के पंच से सिंक नहीं करता तो कई जगह सीन के साथ.

हिंदी का प्रोफेसर, रोमन में टाइप करता है और इकोनॉमिक्स के टीचर के साथ टेबल वाइन के साथ फाइव स्टार में डिनर करता है. तब जबकि उसकी सैलरी, जैसा वो बताता है साठ हज़ार रुपल्ली है. आप कहेंगे कि तो क्या हो गया, ये इम्पॉसिबल तो नहीं. बेशक इम्पॉसिबल नहीं लेकिन अपाच्य ज़रूर है. और तब जबकि जैसा स्टार्ट में कहा था कि मूवी अपनी पैकेजिंग में काफी आर्गेनिक लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है.

 

दिल्ली

अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में दिल्ली अपने ‘पुरानी दिल्ली’ और ‘चांदनी चौक’ वाले पारंपरिक बॉलीवुड रूप में नहीं है. राजौरी गार्डन, हंसराज कॉलेज, मेट्रो स्टेशन, मयूर विहार, हौज़ ख़ास विलेज जैसी जगहें देखकर या उनके बारे में सुनकर एक डेल्हीआईट को कहीं भी ‘आउट ऑफ़ दी वर्ल्ड’ या ‘काल्पनिकता’ का आभास नहीं होता.

 

डायलॉग्स

मैं बार-बार रिपीट कर रहा हूं कि हर डिपार्टमेंट में ‘आईडिया’ के लेवल पर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उसकी तामीर, उसके मटरियलाइज़ेशन में परेशानी पैदा की गई है. उगाई गई है. डेलीब्रेटली. यही हाल डायलॉग्स का भी है. जैसे,’ ‘दिलों की बात करता है जमाना, पर मोहब्बत अब भी चेहरे से शुरू होती है.’ जैसे शायराना डायलॉग्स जो अलग तरह से लिखे जाने के बदले सिंपल होते तो ज़्यादा इंपेक्टफुल होते.

 

म्यूज़िक

मूवी खत्म होने के बाद क्रेडिट रोल होते वक्त यू ट्यूब सेलिब्रेटी और टी सीरीज़ स्टार गुरु रंधावा का गीत सुपरहिट होने का पूरा माद्दा रखता है. बंदया गीत भी अच्छा है. लेकिन इसका म्यूज़िक न तो इसका सबसे अच्छा डिपार्टमेंट है और न ही ऐसा कि बाकी कमियों के ऊपर पर्दे का काम करे.

 

ओवरऑल निष्कर्ष

मूवी बुरी नहीं है. लेकिन ऐसी मूवीज़ थियेटर के लिए नहीं होतीं. शुरू होने से पहले ये आपको बताती है कि इसके ऑनलाइन स्ट्रीमिंग राइट्स एमेज़ॉन प्राइम और टीवी राइट्स ज़ी टीवी के पास हैं. बाकी आप समझदार हैं हीं. और साथ में बोनस में ये बता दूं कि मैंने कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ नेटफ्लिक्स पर देखी थी.


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September 21, 20191min00

संजय दत्त-मनीषा कोइराला स्टारर प्रस्थानम (Prassthanam) 20 तारीख को रिलीज़ हो गई है. इसमें मुख्य भूमिकाओं में हैं संजय दत्त जिन्होंने MLA बलदेव प्रताप सिंह का किरदार निभाया है. उनकी पत्नी बनी हैं मनीषा कोइराला, जिनके किरदार का नाम सरोज है. दो बेटे और एक बेटी है. बेटों के किरदार में हैं अली फज़ल जिन्होंने आयुष का किरदार निभाया है, और सत्यजीत दुबे हैं विवान के किरदार में. बेटी पलक के किरदार में हैं चाहत खन्ना. बाजवा खत्री के किरदार में चंकी पांडे ने निगेटिव रोल उठाया है इस बार, और जैकी श्रॉफ हैं बादशाह के किरदार में. जो बलदेव सिंह का भरोसेमंद ड्राइवर होता है. डायरेक्टर हैं देव कट्टा. इन्होने तेलुगु में प्रस्थानम लिखी और डायरेक्ट की थी. हिंदी में भी इन्होने ही इसे डायरेक्ट किया है.

 

कहानी क्या है?

कहानी वही है. पिता रसूख वाला पॉलिटिशियन. दो बेटे, लेकिन ऑब्वियसली एक बेटा दूसरे बेटे से ज्यादा लायक है. लोग चाचा के विधायक होने पर गरदा उड़ाने निकल पड़ते हैं, यहां तो पिताजी ही विधायक हैं. तो अब आप समझ लीजिए. कि लायकी और नालायकी दोनों का ही एक्सट्रीम एंड देखने को मिलेगा.

इसी कहानी में बदला भी है, लालच भी है, प्लॉट ट्विस्ट देने की कोशिश भी है. बलदेव प्रताप सिंह चार बार अमीनाबाद के विधायक रह चुके हैं. अब पांचवीं बार बनने की तैयारी में हैं.

जो सीट उनको मिली है, वो पहले किसी और लीडर की हुआ करती थी, जिसे राइवल गैंग ने मार दिया था. उसके बाद वो सीट इन्हें मिल गई, साथ ही साथ उस लीडर की पत्नी से उन्होंने शादी भी की.

इसी पत्नी का किरदार निभाया है मनीषा कोइराला ने. उसके दो बच्चे थे. बेटी पलक, बेटा आयुष. दोनों को अपने साथ रखा.

बाद में बलदेव सिंह और सरोज का अपना एक बच्चा भी होता है, जिसका नाम रखा जाता है विवान. और इस बच्चे ने ही आधे से अधिक फिल्म में सब उलट-पुलट के धर दिया है.

बैक टू कहानी, क्या बलदेव प्रताप सिंह पांचवीं बार विधायक बन पाएंगे. क्या उनको धोखा मिलेगा? मिलेगा तो किससे? कैसे? कब? यू नेवर नो. नहीं, सीरियसली, यू नेवर नो.

एक्टिंग कैसी है?

कहानी बता दी हमने आपको. एक्टिंग के मामले में संजय दत्त, अली फज़ल, और सत्यजीत दुबे के अलावा किसी और का स्कोप है नहीं फिल्म में. उसमें भी अली फज़ल संभले हुए दिखाई देते हैं.

संजय दत्त जब भी स्क्रीन पर आते हैं, वो बलदेव प्रताप सिंह नहीं बल्कि संजय दत्त होते हैं. किरदार कहीं दिखाई देता नहीं.

सत्यजीत दुबे बेहतर कर सकते हैं. इस फिल्म में कोशिश बहुत की उन्होंने, लेकिन उनका किरदार बहुत सारी चीजों को छू कर निकल गया. अगर शायद किसी एक चीज़ पर टिकता तो बेहतर होता. खैर वो तो डायरेक्टर की मर्ज़ी है उसका हम क्या ही कह सकते हैं.

 

फिल्म में क्या अच्छा है?

मनीषा कोइराला जहां भी दिखी हैं, अच्छी लगी हैं. अली फज़ल की एक्टिंग बेहतरीन है.

 

फिल्म में क्या खटकता है?

डायलॉग ऐसे हैं जैसे वॉट्सऐप पर चाणक्य के नाम से फॉरवर्ड होने वाली लाइनें एक साथ मिलाकर लिख दी गई हों. अपने बेटे को राजनीति में प्रोमोट करते हुए बलदेव सिंह डायलॉग मारते हैं, राजनीति की गद्दी विरासत से नहीं काबिलियत से मिलती है.

स्क्रिप्ट ऐसी है जो राजनीति से होते हुए सरकार, बाहुबली, गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की याद दिला देती है. याद इसलिए क्योंकि आप फिल्म देखते हुए सोचते हैं, इससे बेहतर तो यही देख लेते. समय में बहुत आगे-पीछे जाती है फिल्म, और आपको समझने का समय नहीं देती.

यहां फ़ास्ट पेस के चक्कर में गाड़ी ने सिग्नल नहीं तोड़ा, पटरी से ही उतर गई है. डीप बनाने की कोशिश की गई, ताकि लोगों को लगे कि आंखों के सामने कुछ तो सीरियस चल रहा है, लेकिन असल में ऐसा कुछ है नहीं.

आम तौर पर अगर कहानी बहुत इंगेजिंग होती हैं जिसमें आपको दिमाग लगाना पड़े, तो फिल्म में बाकी एलिमेंट आपका सपोर्ट करते नज़र आते हैं. ताकि आपको फोकस करने में मदद मिले. आपको कहानी समझ आए.

हां, इस फिल्म में वो नहीं है.

बाकी ये फिल्म छोटी स्क्रीन पर देखने का इंतज़ार किया जा सकता है. कोई लोड नहीं.


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September 20, 20191min00

एक बहुत ही घिसी-पिटी लाइन है, जो कि यकीनन आपने भी सुनी ही होगी. कि भारत के दो प्रमुख धर्म हैं. क्रिकेट और सिनेमा. और इन दोनों का जब फ्यूजन होता है, तो अक्सर नतीजा अच्छा ही निकलता है. इसी कॉकटेल का डोज़ लेकर इस हफ्ते सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई सोनम कपूर की फिल्म ‘दी ज़ोया फैक्टर’. अनुजा चौहान की इसी नाम की किताब पर आधारित है. इसमें क्रिकेट और सिनेमा के साथ-साथ बॉलीवुड का ट्राइड एंड टेस्टेड फ़ॉर्मूला लव स्टोरी भी है. इतने सारे सेलिंग पॉइंट्स समेटे हुई फिल्म क्या कोई असर छोड़ पाती है? मोस्टली नहीं.

 

लक बाई चांस

‘ज़ोया’ और ‘लक’ दोनों की-वर्ड्स जिसमें थे, ऐसी एक फिल्म पहले भी आई थी. जिसका नाम ‘लक बाई चांस’ था और डायरेक्ट ज़ोया अख्तर ने किया था. उसका इस फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है. बस ऐसे ही याद आया तो बोल दिया. वो एक पावरफुल फिल्म थी, ये वाली बिल्कुल नहीं है. कहानी है ज़ोया सोलंकी की, जो 25 जून 1983 के महान दिन पैदा हुई थी. वही दिन जब कपिल देव ने लॉर्ड्स पर वर्ल्ड कप उठाया था. तभी से ज़ोया के घरवाले उसे लकी चार्म मानते हैं. ये भी मानने लगते हैं कि अगर वो किसी क्रिकेट टीम के साथ नाश्ता कर ले तो उस टीम की जीत पक्की है.

ज़ोया खुद तो लकी चार्म है, लेकिन उसकी खुद की ज़िंदगी में गड़बड़ियां होती रहती हैं.

ज़ोया बड़ी होकर एक ऐड एजेंसी के लिए काम करती है. उसी सिलसिले में इंडियन क्रिकेट टीम से उसका वास्ता पड़ता है. एक दिन इत्तेफाक से वो टीम के साथ नाश्ता कर लेती है और उसी दिन लगातार हार रही टीम एक करिश्मे के तहत जीत भी जाती है. लगभग सभी प्लेयर्स को यकीन हो जाता है कि ज़ोया लकी चार्म है. वो देर रात को टीवी पर ऐड आते हैं न? हनुमान चालीसा यंत्र या अल्लाह ताबीज़ वाले! बस उन्हीं की तरह. सिर्फ एक आदमी ऐसा है जो इस बात को बकवास मानता है. जिसका सिर्फ कड़ी मेहनत में विश्वास है. टीम का कप्तान निखिल खोडा. वो समझता है कि किस्मत जैसी बातें खिलाड़ियों को काहिल बना देंगी. वो सिर्फ लक के भरोसे बैठने के आदी हो जाएंगे. एक समस्या ये भी है कि निखिल ज़ोया को टीम के लिए ख़तरनाक भी मानता है और उससे प्यार भी करने लगता है.

अब सवाल ये है कि ज़ोया का लक फैक्टर और निखिल के ‘मेहनत ही अंतिम हल है’ वाले सिद्धांत में से किसकी जीत होगी. ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी. हालांकि ऐसा कुछ है नहीं जिसे आपने अभी प्रेडिक्ट न कर लिया हो.

 

लकी चार्म नहीं, चार्मिंग दुलकर

फिल्म के फेवर में जो इकलौती बात है वो ज़ोया सोलंकी का लकी चार्म नहीं, बल्कि बेहद चार्मिंग दुलकर सलमान हैं. वो बहुत अच्छे लगते हैं परदे पर. कई बार उनका स्क्रीन प्रेजेंस भर कमज़ोर स्क्रिप्ट की भरपाई कर जाता है. वो तमाम अरसा कोशिश करते रहते हैं कि फिल्म संभल जाए. ‘कारवां’ के बाद ये उनकी एक और शानदार परफॉरमेंस है. उन्हें और हिंदी फ़िल्में करनी चाहिए.

ज़ोया सोलंकी बनीं सोनम कपूर के बारे में कोई एक राय कायम करना मुश्किल है. किसी-किसी सीन में वो जान डाल देती हैं, तो कई जगह कतई इम्प्रेस नहीं कर पातीं. एक बेहद मशहूर इंग्लिश सीरीज़ है, ‘हाउस ऑफ़ कार्ड्स’. जिसमें लीड कैरक्टर फ्रैंक अंडरवुड, जिसे केविन स्पेसी ने निभाया था, बीच-बीच में अचानक से कैमरे में देखकर सीधे दर्शकों से बात करने लगता था. इस फिल्म में भी सोनम ऐसा ही कुछ करती दिखाई गई हैं. लेकिन ‘हाउस ऑफ़ कार्ड्स’ में जो चीज़ बहुत पावरफुल लगती थी, वो इसमें बहुत बचकानी लगती है. सोनम का डिक्शन भी मेहनत मांगता है. एक जगह वो गधे को घदा बोलती हैं और ये बड़ा अजीब लगता है.

नकली कमेंट्री

बाक़ी की कास्ट में इंडियन क्रिकेट टीम के सदस्य बने कलाकार ठीक-ठाक हैं. अंगद बेदी ने काम तो अच्छा किया लेकिन उनका किरदार बहुत ही बुरे ढंग से लिखा गया है. मनु ऋषि, संजय कपूर, सिकंदर खेर ठीक-ठाक हैं. फिल्म में कुछ चीज़ें बेहद नकली हैं. जैसे कि मैच की कमेंट्री. कमेंट्री में कॉमेडी भरने के चक्कर में बड़ा कंफ्यूज़िंग सा सीन क्रिएट हुआ है. स्टैंड अप कॉमेडी की टोन वाली कमेंट्री पूरे मैच को मज़ाकिया बना देती है और कभी भी क्रिकेट मैच की इंटेंस फीलिंग आती ही नहीं. दूसरी तरफ फिल्म के कुछेक अच्छे पंच कमेंट्री करने वालों के हिस्से ही आए हैं. ऐसे में आप तय नहीं कर पाते कि इस प्रयोग पर नाखुशी ज़ाहिर करें या ‘फिल्म है, चलता है’ की तर्ज पर हंस लें.

फिल्म की एक और बड़ी नाकामी ये है कि फिल्म अंधश्रद्धा वाले मसले को ठीक से छूती भी नहीं. ज़्यादातर वक्त किस्मत भरोसे बैठने की ही वकालत करती नज़र आती है और जब ‘किस्मत से मेहनत ज़्यादा अहम है’ ये साबित करने का वक्त आता है तो कमज़ोर पड़ जाती है.

डायरेक्टर अभिषेक शर्मा की पहली फिल्म थी, ‘तेरे बिन लादेन’. उसके बाद उन्होंने ‘ज़ोया…’ को मिलाकर चार और फ़िल्में डायरेक्ट की हैं. पर आज भी उनकी सबसे अच्छी फिल्म ‘तेरे बिन लादेन’ ही है. संगीत पक्ष कमज़ोर है. ‘शंकर-एहसान-लॉय’ का म्यूजिक कोई कनेक्शन नहीं पैदा कर पाता. बस एक गाना ‘लकी चार्म चाहिए’ थोड़ा-बहुत अटेंशन खींचता है. बाकी नो लक.

तो कहने की बात ये कि दुलकर सलमान के फैन हैं तो देख सकते हैं. वरना कुछ ख़ास तो है नहीं.



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