दीपिका पादुकोण की ‘छपाक’ शुक्रवार को थिएटर्स में लग चुकी है. और देख भी ली गई है. अब वो बात जो हम यहां करने आए हैं. फिल्म की बात. फिल्म लक्ष्मी अग्रवाल नाम की एसिड अटैक सर्वाइवर की लाइफ पर बेस्ड है. कैरेक्टर्स के नाम वगैरह बदल दिए गए हैं, थोड़ी फिल्मी बातें डाल दी गई हैं. ये सब करने के बाद फिल्म की कहानी ये बनती है कि माल्ती नाम की 12वीं में पढ़ने वाली एक लड़की है. एक दिन उसके ऊपर, उसका एक जानने वाला सनकी लड़का तेजाब डाल देता है. इस केस की छानबीन होती है. कोर्ट में मामला चलता है. लेकिन माल्ती की लाइफ रुक जाती है. थोड़े मोटिवेशन के बाद वो लड़ना शुरू करती है. कोर्ट केस, बीमार मानसिकता से, भारत के कानून से, तेजाब की खुलेआम बिक्री से और खुद से. अब वो हारती हैं कि जीतती, ये अगर आपने लक्ष्मी की स्टोरी फॉलो की होगी, तो पता होगा.
फिल्म में दीपिका ने लक्ष्मी से प्रेरित माल्ती का किरदार निभाया है. इस तरह की फिल्मों में मेकअप कैरेक्टर को एस्टैब्लिश करने में बहुत मदद करता है. फिल्म के पहले हाफ में आपको कभी अंदाज़ा नहीं लगता है कि जो लड़की स्क्रीन पर दिख रही है, वो माल्ती नहीं दीपिका पादुकोण हैं. कभी किसी एसिड अटैक सर्वाइवर से रूबरू होने का मौका नहीं मिला लेकिन माल्ती को देखने के बाद लगता है कि वो भी कुछ ऐसी ही होती होंगी. नॉर्मल. हंसने वाली, गाने वाली, हर दूसरी बात पर पार्टी करने वाली. दूसरी तरफ हैं विक्रांत मैस्सी. इन्होंने अमोल नाम के उस शख्स का रोल किया है, जो एसिड अटैक सर्वाइवर्स की मदद के लिए एक एनजीओ चलाता है. बाद में जो माल्ती के साथ प्रेम में भी पड़ जाता है. वो एसिड अटैक को लेकर इसकी शिकार लड़कियों से भी ज़्यादा चिंतित रहता है. शायद उसे ये गिल्ट है कि माल्ती और तमाम लड़कियों के साथ घिनौनी हरकत करने वाले भी उसी के जेंडर से आते हैं. और उसकी चिंता कितनी जेनुइन है, वो विक्रांत का चेहरा और हाव-भाव आपको बताता है. माल्ती की वकील अर्चना के रोल में मधुरजीत सरगी का परफॉर्मेंस के मामले में स्पेशल मेंशन करना चाहिए.
जब आप फिल्म देखने बैठते हैं, तब माल्ती का कैरेक्टर उतने देर के लिए ज़रूरी रहता है, जब उनके साथ वो घटना होती है. बाकी के समय ये कैरेक्टर सिर्फ एक माध्यम भर रहता है. इस तरह के क्राइम, उसे करने वाली मानसकिता, एक्ज़ीक्यूट करने की हिम्मत, फिर लड़की की लंबी कानूनी लड़ाई और खुद को वापस पाने के प्रोसेस की तह में पहुंचकर उसे टटोलने का. इस तरह की चीज़ों को रोकने-खत्म करने की कोशिश का माध्यम. इस फिल्म को आप सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए नहीं देख सकते. क्योंकि ये वो है नहीं. आप इतने विचलित अवस्था में एंजॉय नहीं कर सकते. इसलिए आपको वो समझना पड़ेगा, जो फिल्म कह रही है. फिल्म अपने मसले से जुड़े बहुत सारे फैक्ट्स बताती है. उससे जुड़े कानूनों की बात करती है. साथ में एक एसिड सर्वाइवर के रिहैबिलिटेशन (अगर कहना चाहें तो) की कहानी भी दिखाती है. और मेरा यकीन करिए ये प्रोसेस इतना ज़्यादा मुश्किल है कि आप एक फिल्म की मदद से सिर्फ ये बात ही जान सकते हैं. एसिड अटैक सर्वाइवर्स की फिज़िकल और मेंटल कंडिशन नहीं समझ सकते. इसका नैरेटिव काफी इनक्लूसिव है. बहुत सारी चीज़ें गुथी हुई हैं. जेंडर से लेकर जाति तक. सबका अपना मर्म है. एक बार को थोड़ा सा ‘आर्टिकल 15’ वाला फील भी आ जाता है. यहां महिलाओं की और सिर्फ महिलाओं की ही बात होती है. यहां विक्टिम महिला है. इस घटना को अंजाम देने वाली भी एक महिला. पीड़िता के लिए लड़ने वाली वकील भी महिला. और कोर्ट की जज भी महिला. कुछ समझने की भी कोशिश कर रहे हैं कि बस पढ़कर आगे निकले जा रहे हैं.
इस फिल्म की भयावहता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इंटरवल के बाद जो होता, उसके साथ पानी भी गले से नीचे नहीं उतरता. ये आंख जो देख रहा है, उसकी वजह से नहीं होता. दिमाग जो सोच रहा है, उस वजह से होता है. फिल्म के डायलॉग्स काफी इन योर फेस हैं. जैसे कोर्ट से एक पक्ष में फैसला आने के बाद माल्ती अपनी एनजीओ वाली टीम के साथ पार्टी कर रही होती है. अमोल आता है और गाना बंद कर देता है कहता है, ये बहुत छोटी जीत है. इसकी खुशी नहीं मना सकते. जवाब में माल्ती कहती है- ”एसिड अटैक मुझ पर हुआ था और मुझे पार्टी करने का मन है.” ये सुनने के बाद आप सोचते हैं फिल्मों में ऐसे बात करना अलाउड है क्या? पहले ऐसा कुछ क्यों नहीं सुना. फिल्म में वैसे तो तीन गाने हैं. दो गानों का फिल्म में होना न होना बराबर था. लेकिन फिल्म का टाइटल ट्रैक जो है, वो कान को अच्छा लगता है और दिमाग खराब करके छोड़ देता है.
‘छपाक’ एक ऐसी फिल्म है, जिसके बारे में हम ये चाहेंगे कि इसकी प्रासंगिकता जल्द से जल्द खत्म हो जाए. लेकिन आज के समय में ये काफी रेलेवेंट है. इसकी गवाही दे रही है खुद फिल्म ‘छपाक’. क्योंकि उसे बनाया ही इस तरह के क्राइम को कम करने के मकसद से गया है. एक चीज़ जो फिल्म को हद से ज़्यादा यादगार बना देती है, वो है उसका एंड. ‘सैराट’ टाइप कुछ, जो पूरी फिल्म से ज़्यादा डरावना है. लेकिन वो फिल्म से नहीं कॉन्सेप्ट से जुड़ा हुआ है. और यही चीज़ आपके दिमाग में अटकी रह जाती है. जैसे ऑरेंज इज़ न्यू ब्लैक, वैसे ही ये फिल्म खूबसूरती का पैमाना बदलने वाली है. ब्यूटी की लोकेशन चेहरे से चेंज करके दिल और दिमाग वाली साइड पर कहीं शिफ्ट करना होगा. इसके लिए हमें एसिड वाला छपाक अवॉयड करने और ये वाली ‘छपाक’ देखने की ज़रूरत है.