फिल्म रिव्यू- थप्पड़

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”इट्स जस्ट अ स्लैप. पर नहीं मार सकता.”

अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘थप्पड़’ की ये टैगलाइन है. सिंपल-सपाट. फिल्म में कई सवाल हैं, जिनके जवाब सिर्फ यही एक लाइन देती है. और वो जवाब सही निकलते हैं. तर्क और नैतिकता दोनों के हिसाब से. खैर, कहानी है दिल्ली में रहने वाले कपल विक्रम और अमृता की. विक्रम कॉर्पोरेट जॉब करता है. बहुत एंबीशस है. प्रमोशन पाकर अमृता के साथ इंग्लैंड सेटल होना चाहता है. अमृता उसकी पत्नी है. डांसर बनना चाहती थी लेकिन हाउसवाइफ बन गई. अपनी मर्जी से. स्पॉयरलपूर्ण वजहों से विक्रम अपनी ही प्रमोशन की पार्टी में सबके सामने अमृता को थप्पड़ मार देता है. लेकिन वो थप्पड़ अमृता के गाल के साथ-साथ दिल और दिमाग पर भी लग जाता है. यहां से फिल्म अपना गीयर चेंज कर देती है. इस फैमिली ड्रामा के चक्कर में फिल्म सोशल ड्रामा बन जाती है. उस थप्पड़ के बाद क्या हुआ? जो हो गया, सो हो गया. यहां ये बताया गया है कि क्या होना चाहिए.

 

फिल्म में कई सारे लोगों की कहानियां साथ में चलती रहती हैं, जो आखिर में एक ही पॉइंट पर आकर मिलती हैं. ये फिल्म को सबप्लॉट्स में तोड़ती हैं, जो कुछ खास एंगेजिंग नहीं बन पाए हैं. अमृता की हाउसहेल्प सुनीता वाले ट्रैक को छोड़कर. क्योंकि वो फिल्म के नैरेटिव के ठीक उलट चलती है, जिसकी वजह से फिल्म गंभीर और मज़ेदार दोनों बनती है. खैर, फिल्म में तापसी ने अमृता और पावेल  गुलाटी ने विक्रम का रोल किया है. तापसी ने पिछले दिनों में कर-करा के बता दिया है कि वो कर सकती हैं. इसलिए उन्हें लेकर आप आश्वस्त रहते हैं. लेकिन इस बार वो अपने किरदार में एक चुप्पी लेकर आती हैं, जिसकी चीख आपको भी सुनाई देती है. पावेल नए हैं. और काफी प्रॉमिसिंग भी. वो कहने को तो फिल्म के हीरो हैं लेकिन उनका कैरेक्टर एंटी-हीरो वाला है. उनका एक बड़ा शानदार सीन है, जहां वो तापसी से कहते हैं कि आपस की बात में वो उनके मां-बाप को न घसीटें. अब बहुत सारे सबप्लॉट्स हैं, तो उन्हें निभाने वाले एक्टर्स भी होंगे. जिस सुनीता की बात हम कर रहे थे, उसका रोल किया है ‘सोनी’ फेम गीतिका विद्या ओहल्यान ने. आप इन्हें फिल्म में सबसे ज़्यादा एंजॉय करेंगे. फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट भी धांसू है क्योंकि इसमें रत्ना पाठक शाह, तन्वी आज़मी और कुमुद मिश्रा जैसे सीनियर लोगों के नाम शामिल हैं. इनके बारे में कुछ भी कहना छोटा मुंह बड़ी बात होगी. फिल्म में दिया मिर्ज़ा ने भी छोटा सा रोल किया है और उसमें वो अच्छी लगती हैं. भले ही वो कैरेक्टर कहीं पहुंचता हुआ नहीं दिखता.

 

‘थप्पड़’ की सबसे शानदार बात ये है कि ये अपने थीम के साथ फेवी क्विक वाली मजबूती से चिपकी रहती है. फिल्म बहुत सारे सवाल खड़े करती है, जिसका सिर्फ एक ही जवाब होता है- ‘इट्स जस्ट अ स्लैप. पर नहीं मार सकता’. हर जगह से घूम-फिरकर बात यहीं पहुंचती है. बिना बोले. ये फिल्म एक ऐसी बात करना चाहती है, जो आप सुनना ही नहीं चाहते. क्यों- क्योंकि आपसे आज तक किसी ने कहा ही नहीं. आपको लगता है आप जिससे प्यार करते हैं, उसके साथ कुछ भी कर सकते हैं. लेकिन भैया आपको ये चीज़ समझनी होगी कि आप ‘कबीर सिंह’ नहीं हैं. अगर बनना चाहते हैं, तो बैकआउट कर लीजिए या ‘थप्पड़’ देख आइए. अगर आपको लगता है कि आप मर्द हैं, इसलिए तोप हैं, तो आप टोपा हैं.

 

फिल्म में एक सीन है, जहां अमृता को थप्पड़ खाते देखने के बाद उसकी मेड सुनीता अपने घर जाती है. वो अपने अब्यूज़िव हस्बैंड से कहती है- ”मारते तो सभी हैं, मैं तुझे बेकार में गाली देती थी.” फिल्म में ऐसे कई सारे सिंबॉलिक और हार्ड-हिटिंग सीन्स हैं. ये सीन्स आपको सोचने पर मज़बूर करते हैं कि आप अब तक जो सोच रहे थे वो सही था क्या? अगर वो सही था, तो फिर स्क्रीन पर जो दिख रहा है, वो क्या है?

 

फिल्म में सिर्फ एक गाना है, ‘एक टुकड़ा धूप’. अलग-अलग जगहों पर मौका देखकर बजने लगता है. हेवी सा सुनने में. फील में भी. अब उसकी एक लाइन ही ले लीजिए- ”हम थे लिखे दीवारों पे, बारिश हुई और धुल गए”. ये ठीक वही बात है, जो फिल्म की नायिका अपने बारे में सोच रही है. उसका आत्मसम्मान दांव पर है. वो जिसके साथ रहती है, एक पल में उस आदमी के प्रति उसका सारा प्रेम खत्म हो जाता है. और आपको यकीन होता है कि ऐसा वाकई हो जाता होगा. फिर आप उन लोगों के बारे में सोचते हैं, जो इन बातों के बारे में सोचते भी नहीं. जैसे ‘थप्पड़’ का नायक विक्रम. वो अपने बुरे बर्ताव के बाद अपने बॉस को तो सॉरी बोल देता है लेकिन अमृता से माफी मांगने का ख्याल भी उसके जहन में नहीं आता. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर आपको बार-बार ये ध्यान दिलाता है कि आप जिसे छोटी या आम बात समझ रहे हैं, वो बहुत ज़्यादा गंभीर है. इतनी गंभीर की उस पर पिक्चर बनानी पड़ी.

 

 

‘एक टुकड़ा धूप’ आप यहां सुन सकते हैं:

 

फिल्म की पेस भी थोड़ी स्लो है. लेकिन ‘थप्पड़’ आपको बड़ी बुनियादी, ज़रूरी, मजबूत और प्रासंगिक बात बता रही है. अगर वो बात आपको थोड़ी भी समझ आ रही है, आपके भीतर बदलाव की गुंजाइश पैदा कर रही है, तो वो टाइम वर्थ इट है. और इस फिल्म को देखने के बाद आप ये तो कह ही नहीं सकते कि आपके भीतर कुछ नहीं बदला.

 

इस फिल्म को देखने से पहले आपको पता होता है कि आप क्या देखने जा रहे हैं. क्योंकि पहली बात ये ‘रा-वन’ वाले नहीं ‘मुल्क’ वाले अनुभव सिन्हा की पिक्चर है. और दूसरी, आपने ट्रेलर तो देखा ही है. अनुभव सिन्हा अपने दूसरे वर्जन की तीसरी फिल्म में फिर से खरे उतरे हैं. ऐसा नहीं है कि ये फिल्म आपको झटके पे झटके देती है. वो बड़े आराम से चलती है. आपको अनकफंर्टेबल करते हुए. आपकी सारी बौद्धिकता और ज्ञान को मानते हुए, उन्हें सिर्फ एक वजह से धता बता देती है. मैं अपनी जेनरेशन को बड़ा लकी मानता हूं, जिसे 20-25 की उम्र में इस तरह की फिल्में देखने को मिल रही है, जो आगे चलकर हमारी पर्सनैलिटी का अहम हिस्सा होंगी. ‘थप्पड़’ का मकसद आपको थप्पड़ मारना नहीं, आगाह करना है. इस कॉन्सेप्ट में भरोसा दिलाना, याद करवाना है कि

 

”इट्स जस्ट अ स्लैप. पर नहीं मार सकता है”.




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