इंटरनेट पार्ट 2 आखिर इंटरनेट का मालिक कौन है?

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हेडलाइन पढ़कर आए हैं तो ज़ाहिर है कि आप जान ही रहे हैं कि हम यहां इंटरनेट के बारे में बात करने वाले हैं. ये इंटरनेट पर हमारी बातचीत का दूसरा हिस्सा है. पहला हिस्सा आप यहां पढ़ सकते हैं. इसमें हमने बताया था कि इंटरनेट क्या होता है, कैसे काम करता है. सर्वर क्या होते हैं और समुद्र में केबल क्यों बिछाई जाती है.

इस हिस्से में ये समझने की कोशिश करेंगे कि फाइबर केबल्स के ज़रिए डेटा का लेन-देन कैसे होता है? सर्वर को पता कैसे चलता है कि कहां डेटा भेजना है? और आपके फोन को कैसे पता चलता है कि किस सर्वर से डेटा मंगाना है?

यहां काम आता IP Address. इसे पोस्टल सर्विस से समझा जा सकता है. डेटा भी आप तक ठीक वैसे ही पहुंचता है, जैसे आपके घर में पोस्ट से खत आता है. जिस तरह आपके घर का एक यूनीक पता होता है, जिसकी मदद से डाकिया आपका खत पहुंचा देता है. ठीक उसी तरह इंटरनेट से जुड़े हर डिवाइस को एक यूनीक ऐड्रेस असाइन किया जाता है. इसे IP Address कहते हैं. यानी Internet Protocol address. चूंकि कंप्यूटर्स गणित की भाषा समझते हैं, इसलिए ये IP address एक नंबर होता है. जब आप किसी लिंक पर क्लिक करते हैं, तो फाइबर पाइपलाइन से होती हुई उस वेबसाइट के सर्वर तक एक रिक्वेस्ट जाती है. इस रिक्वेस्ट में लिखा ये होता है कि ‘सर्वर जी, हमें फलाने IP address पर ढिकाना डेटा भेजना है.’ फिर सर्वर हज़ारों किलोमीटर दूर से वो डेटा आपके IP address के लिए रवाना करता है.

आप पूछेंगे उस वेबसाइट के सर्वर तक हमारी रिक्वेस्ट कैसे पहुंचती है? वो तो आप ही पहुंचाते हैं. किसी वेब ब्राउज़र में वेबसाइट एंटर करके. या किसी लिंक पर क्लिक करके. हर वेबसाइट के सर्वर का भी एक IP एड्रेस होता है, जिसकी मदद से उस सर्वर तक पहुंचा जा सकता है. लेकिन हर वेबसाइट का IP एड्रेस याद रख पाना यूज़र के लिए मुमकिन नहीं है. इसलिए हर IP एड्रेस के लिए एक Domain Name दे दिया जाता है. डोमेन नेम जैसे www.youtube.com, www.facebook.com या www.iamfeedy.com.

ये डोमेन नेम एंटर करते ही, वेब ब्राउज़र या मोबाइल ऐप्लीकेशन उस वेबसाइट का IP एड्रेस खोज लेते हैं. ये ठीक वैसे ही है जैसे हम अपनी फोनबुक में किसी नाम के सामने उसका नंबर खोजते हैं. इंटरनेट के डोमेन नेम और IP address की इस फोनबुक को कहते हैं – DNS सर्वर. DNS माने Domain Name System. DNS को संचालित करने का काम ICANN नाम की संस्था करती है. ICANN यानी Internet Corporation for Assigned Names and Numbers. DNS सर्वर की मदद से हमारा बेव ब्राउज़र उस बेवसाइट का IP एड्रेस ढूंढ निकालता है. और आपकी रिक्वेस्ट उस वेबसाइट के सर्वर तक पहुंचा देता है. उस रिक्वेस्ट में आपके डिवाइस का IP address लिखा होता है. इस तरीके से आप उस सर्वर से डेटा का लेन-देन कर पाते हैं.

जब कोई डेटा, किसी सर्वर से दूसरे डिवाइस जाने के लिए निकलता है, तो पहले वो छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाता है. इन्हें Data Packets कहते हैं. उसी पोस्टल सर्विस वाले उदाहरण से समझें तो मान लीजिए अपनी फाइबर पाइपलाइन से कोई चिट्ठी भेजनी है. एक बार में एक ही रास्ते से पूरी चिट्ठी भेजना थोड़ा स्लो मेथड है. तो उस चिट्ठी के कई टुकड़े कर दिए जाते हैं और फिर उन्हें अलग अलग रास्तों सबसे तेज़ मुमकिन तरीके में भेज दिया जाता है. इन सभी पैकेट्स पे IP ऐड्रेस लिखे होते हैं. जिनकी मदद से इन्हें अपनी मंज़िल तक पहुंचा दिया जाता है. फिर वहां पहुंचकर ये सारे पैकेट्स इकट्ठे होते हैं और पूरी डेटा फाइल तैयार होती है. अगर आपने कोई स्लो इंटरनेट कनेक्शन चलाया है तो आपने ध्यान दिया होगा कि कई बार एक इमेज अलग-अलग टुकड़ों में धीरे-धीरे आपकी स्क्रीन पर बनती है. ऐसा सारे डेटा पैकेट्स के एक साथ न आने के कारण होता है.

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data packets

 

ये डेटा पैकेट्स अलग-अलग रास्तों से चलते हुए किसी भी क्रम में आ सकते हैं. फिर इन्हें आपस में कैसे जोड़ा जाता है? और ये कैसे सुनिश्चित किया जाता है कि सारे डेटा पैकेट्स अलग-अलग रास्तों से होते हुए एक ही पते पर पहुंचे? इसका जवाब है Internet Protocols. डेटा के लेन देन की पूरी प्रोसेस को बिना किसी रुकावट के अंजाम देने के लिए कुछ नियम बनाए गए हैं. इन नियमों को ही इंटरनेट प्रोटोकॉल्स के नाम से जाना जाता है. इन प्रोटोकॉल्स से चलने पर हर पैकेट सही ठिकाने पर सही सूरत में पहुंचता है.

डेटा के सोर्स और डेस्टिनेशन के बीच में कई छोटे-छोटे पड़ाव भी होते हैं. इन्हें हम Routers कहते हैं. राउटर्स का काम होता है IP एड्रेस के मुताबिक, डेटा को सही दिशा में आगे बढ़ाना. मतलब डेटा को अगले ऐसे राऊटर तक पहुंचा देना जो मंज़िल के ज्यादा करीब हो. इसे सड़क और गाड़ी वाले एग्जाम्पल से अच्छा समझा जा सकता है. मान लीजिए कि हम अपनी गाड़ी लेकर किसी अनजान शहर की तरफ निकल पड़े. लेकिन हर चौराहे पे एक राऊटर नाम का आदमी खड़ा है जो हमें वहां से आगे का रास्ता बता देता है. तो इस तरह इन चौराहों से होते हुए अपने डेस्टिनेशन तक आसानी से पहुंच जाएंगे.

 

router

 

हर डेटा ट्रांसमिशन में ये दिक्कत आती है कि लंबा सफर तय करने में डेटा का सिग्नल कमज़ोर होने लगता है. इसे Attenuation कहते हैं. जैसे हमें अपनी गाड़ी में फ्यूल भराते रहना ज़रूरी है, वैसे ही इस डेटा सिग्नल को बूस्ट करते रहना ज़रूरी है. इसे Amplification कहते हैं. हज़ारों किलोमीटर के सफर में कई डिवाइस डेटा सिग्नल को एंप्लीफाई करते रहते हैं.

कई बार सारे डेटा पैकेट्स सोर्स-कम्प्यूटर (सर्वर) से डेस्टिनेशन-कम्प्यूटर तक पहुंच ही नहीं पाते. कुछ पैकेट्स रास्ते में ही कहीं खो जाते हैं. इन्हें लॉस्ट डेटा पैकेट्स कहते हैं. ऐसी सूरत में इंटरनेट प्रोटोकॉल्स के तहत डेस्टिनेशन-कम्प्यूटर सोर्स-कम्प्यूटर से इन पैकेट्स को दोबारा भेजने की रिक्वेस्ट करता है. और फिर इन डेटा पैकेट्स को वापस भेजा जाता है.

इंटरनेट प्रोटोकॉल्स के मुताबिक, हर डेटा पैकेट में उसके क्रम से जुड़ी जानकारी भी होती है. मतलब कौनसा डेटा पैकेट आगे लगेगा, कौनसा पीछे लगेगा. इसी जानकारी से डेस्टिनेशन-कम्प्यूटर में इन्हें जोड़कर डेटा को सही क्रम में जोड़कर रिट्रीव कर लिया जाता है. ऐसा न हो तो ये होगा न कि इमेज में पैर ऊपर आ गए, और नाक नीचे चली गई. लेकिन ऐसा नहीं होता. इंटरनेट प्रोटोकॉल्स की मदद से ये डेटा आप तक सही सलामत पहुंचता है और ये सिलसिला जारी रहता है.

 

अब हम बड़े सवाल पर आ जाते हैं. और पता करने की कोशिश करते हैं कि इंटरनेट का मालिक कौन है?

आप तक इंटरनेट पहुंचाने का काम करता है आपका ISP यानी Internet Service Provider. जैसे आपने जिस कंपनी की सिम ली होगी या जिस कंपनी का ब्रॉडबैंड कनेक्शन लिया होगा, वो आपका Internet Service Provider है. और आप पइसा भी इसी ISP को देते हैं. लेकिन ये पूरा इंटरनेट नहीं चलाते. अगर बड़े स्केल पे देखें तो ISPs को तीन स्तर पर बांटा जा सकता है. पहली वो बड़ी कंपनियां जिन्होंने समंदर के नीचे केबल्स बिछाए हैं. इन्हें हम टियर 1 में रखते हैं. इसके बाद आती हैं वो ISPs जिनकी नेशनल लेवल पे प्रज़ेंस है. मतलब जिनकी केबल्स देश भर में बिछे हुए हैं. ये टियर 2 की कंपनियां हो गईं. अब अगर टियर 2 की किसी कंपनी को इंटरनेट सेवा चाहिए तो उसे टियर 1 की कंपनी के केबल का इस्तेमाल करना होगा या उन्हें किराए पर लेना होगा. और इसके लिए उसे टियर 1 की ISP को पइसे देने पड़ेंगे. ठीक इसी तरह टियर 3 में आने वाली लोकल ISPs को टियर 2 की कंपनियों को भुगतान करना होता है. ताकि वो अपने ग्राहकों को इंटरनेट जोड़ सकें.

 

ISP infrastructure

 

इस तरह से हमारा दिया हुआ पैसा इन कंपनियों के बीच बंट जाता है. और इसका एक हिस्सा उन कंपनियों को भी मिलता है जिनके बड़े-बड़े डेटा सेंटर्स हैं. और फिर आप जो ऐड देखते हैं उसका पैसा वेबसाइट्स को मिलता है. मतलब सीधे-सीधे बोलें तो इंटरनेट का पूरा-पूरा मालिक तो कोई भी नहीं है. अलग-अलग कंपनियां इंटरनेट के अलग-अलग हिस्सों को ज़रूर ओन करती हैं. और इसे संचालित करने का काम कई संस्थाएं करती हैं. इंटरनेट की दुनिया में सबसे बड़ा रोल इंफ्रास्ट्रक्चर का है. जिस कंपनी का जितना फैला हुआ और विस्तृत इंफ्रास्ट्रक्चर होगा उतनी ही ज्यादा उसकी कमाई होगी.




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