फ़ेसबुक ने कुछ वक़्त पहले ब्राज़ील के ऐप स्टोर से अपने ‘लाइट’ ऐप को ग़ायब कर दिया. इसका कहना था कि ज़्यादा लोग इस्तेमाल नहीं कर रहे थे इसलिए इसे हटा लिया गया. मगर ऐप्स के लाइट वर्ज़न होते क्यों हैं?
आपने गूगल प्ले स्टोर और ऐपल के ऐप स्टोर पर भी बहुत से ऐप्स के ‘लाइट’ वर्ज़न देखे होंगे जैसे ट्विटर लाइट, स्पॉटिफ़ाई लाइट, ऊबर लाइट, वग़ैरह-वग़ैरह. इसके साथ ही कुछ ऐप्स के ‘बीटा’ वर्ज़न भी मौजूद रहते हैं जैसे वॉट्सऐप बीटा और क्रोम बीटा. आज हम आपको इन लाइट और बीटा ऐप्स का खेल बताएंगे.
क्या होते हैं ‘लाइट’ ऐप्स?
जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है, ‘लाइट’ ऐप्स असली वाले ऐप का हल्का-फुल्का वर्ज़न होते हैं. यानी इनका साइज़ कम होता है. इनमें सारे फीचर नहीं होते, बस बेसिक फीचर होते हैं. एक ऐप में जैसे-जैसे फ़ीचर बढ़ते हैं, ऐप भारी होने लग जाता है. मतलब इसका साइज़ बढ़ जाता है और ये फ़ोन के प्रोसेसर और रैम पर ज़्यादा लोड डालने लग जाते हैं.
नए स्मार्टफ़ोन तो इसको आराम से झेल लेते हैं मगर पुराने फ़ोन और एंट्री-लेवल स्मार्टफ़ोन को अम्मा-अब्बा और नाना-नानी सब याद आ जाते हैं. इसी का एक जीता जागता एग्ज़ाम्पल PUBG मोबाइल लाइट है. असली वाले गेम की तुलना में इसका साइज़ भी छोटा है और ये फ़ोन पर इतना लोड भी नहीं डालता.
और तो और भारी भरकम ऐप को सही से काम करने के लिए इंटरनेट की स्पीड भी अच्छी चाहिए होती है. वहीं ऐप्स के लाइट वर्ज़न धीमे इंटरनेट पर भी अच्छे से काम करते हैं. फ़ेसबुक लाइट को ही लेलो, 2G इंटरनेट स्पीड पर भी बढ़िया चलता है. तो शॉर्ट में बोलें तो लाइट ऐप्स पुराने या सस्ते स्मार्टफ़ोन के लिए राहत हैं. और धीमे इंटरनेट वालों के साथी.
बीटा वर्ज़न क्या होता है?
किसी भी ऐप का बीटा वर्ज़न उसका टेस्टिंग ग्राउंड होता है. जैसे स्कूल में आप मैथ के मुश्किल सवाल को कॉपी कर करने से पहले रफ़ कॉपी पर माथा पच्ची करते रहे होंगे, बस वही रफ़ कॉपी ये बीटा ऐप होते हैं.
जब डेवलपर को ऐप में कोई नया फ़ीचर जोड़ना होता है तो उसकी टेस्टिंग के लिए पहले बीटा वर्ज़न में डालता है. बीटा वर्ज़न चलाने वाले लोग डेवलपर को बताते हैं कि फ़लां-फ़लां गड़बड़ी आ रही है. इसी गड़बड़ी को बग कहते हैं. और डेवलपर जब तक सारे बग का सफ़ाया ना कर दे, तब तक स्टेबल वर्ज़न या नॉर्मल वर्ज़न में अपडेट को नहीं भेजता है.
बीटा ऐप को वही लोग डाउनलोड करते हैं जिनको नए फ़ीचर सबसे पहले चाहिए होते हैं. मगर सारे लोग इसलिए नहीं डालते क्योंकि बीटा ऐप में काफ़ी गड़बड़ी भी होती हैं. हर कोई रफ़ कॉपी से पढ़ना नहीं पसंद करेगा ना.
लाइट ऐप और बीटा ऐप कैसे इंस्टॉल करते हैं?
लाइट ऐप तो आप नॉर्मल ऐप की तरह डाउनलोड कर सकते हैं. बस गूगल प्ले स्टोर या ऐपल ऐप स्टोर पर जाइए और इंस्टॉल का बटन दबा दीजिए. कुछ बीटा ऐप्स भी ऐसे ही इंस्टॉल कर सकते हैं. मान लीजिए एंड्रॉयड फ़ोन पर क्रोम का बीटा वर्ज़न इंस्टॉल करना है तो प्ले स्टोर पर क्रोम बीटा लिख कर सर्च करिए और फिर इसे इंस्टॉल कर लीजिए.
मगर कुछ बीटा ऐप्स अलग से ऐप की तरह मौजूद नहीं होते. इनके बीटा प्रोग्राम में आपको एंटर करना होता है, उसके बाद आपका ऐप बीटा वर्जन में कंवर्ट हो जाता है. आप जब इंस्टाग्राम खोलेंगे तो नीचे आपको “जॉइन द बीटा” (Join the beta) लिखा हुआ मिलेगा. यहां पर आप क्लिक करके बीटा वर्ज़न चला सकते हैं. ऐसे ऐप्स का बीटा ऐक्सेस लिमिटेड होता है. अगर बीटा प्रोग्राम फ़ुल होगा तो नीचे आपको यही लिखा हुआ मिलेगा.
ऐपल आइफ़ोन में ऐप्स का बीटा वर्ज़न चलाने के लिए आपको ‘टेस्ट फ़्लाइट’ नाम का ऐप इंस्टॉल करना होगा. आप जिन भी बीटा ऐप्स को चला रहे होंगे वो इसी के अंदर नज़र आएंगे. आइओएस पर बीटा ऐप्स ऐसे ही चलते-फिरते नहीं मिलते. आपके पास उस ऐप के बीटा टेस्टिंग प्रोग्राम का इन्वाइट होना चाहिए. कई बार ये ऐप्स की वेबसाइट पर भी मिल जाता है. इन्वाइट लिंक पर क्लिक करके आपको ‘टेस्ट फ़्लाइट’ सलेक्ट करना होगा. बस इतना ही.
बोनस फ़ैक्ट: अल्फ़ा फ़ीचर
अब जब हम बीटा ऐप की बात कर ही रहे हैं तो अल्फ़ा फ़ीचर की भी बात कर लेते हैं. कई बार डेवलपर अपने बीटा ऐप में एक नए फ़ीचर को जोड़ता है, मगर वो नज़र नहीं आता. यानी वो फ़ीचर ऐप में मौजूद है लेकिन बीटा यूज़र उसको इस्तेमाल नहीं कर सकता. ये सिर्फ़ और सिर्फ़ इंटर्नल टेस्टिंग के लिए डाला जाता है. इसी को अल्फ़ा फ़ीचर बोलते हैं.
ऐसा तब किया जाता है जब कोई नया फ़ीचर बेहद ही शुरुआती स्टेज में होता है. जब तक डेवलपर और उसकी टीम ख़ुद इसे टेस्ट करके सैटिस्फ़ाई नहीं हो जाते, तब तक ये बीटा में नहीं आता. फिर बीटा स्टेज में पास होने के बाद फ़ीचर स्टेबल ऐप में आता है.
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