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जय हिन्द!
ऐसा शायद ही सुनने को मिलता है जब किसी पिता और बेटी का जन्मदिन एक ही तारीख पर पड़ता हो. 29 दिसंबर ऐसे ही उन खास तारीखों में से है जब बॉलीवुड के दिग्गज एक्टर राजेश खन्ना और उनकी बेटी ट्विंकल खन्ना का जन्म एक ही तारीख पर हुआ था. राजेश खन्ना का जन्म 29 दिसंबर 1942 को अमृतसर में हुआ था. उनके जन्मदिन के खास मौके पर आइए जानें बेटी ट्विंकल संग उनके रिश्ते के बारे में.
राजेश खन्ना ने मार्च 1973 में डिंपल कपाड़िया से शादी की थी. उनकी दो बेटियां ट्विंकल और रिंकी खन्ना हैं. ट्विंकल के साथ उनके पिता राजेश का रिश्ता बेहद खास रहा है. इस बात को खुद ट्विंकल ने कई बार सोशल मीडिया पोस्ट्स के जरिए साझा किया है.
राजेश खन्ना एक जमाने के सबसे बड़े सुपरस्टार रहे हैं. उनके जैसा स्टारडम दशकों में किसी एक को मिलता है. उनके इस स्टारडम से उनके परिवार वाले अच्छी तरह परिचित थे और आए दिन अपने घर के बाहर फैंस का हुजूम देखते थे. राजेश के जन्मदिन पर तो बात ही अलग होती थी. एक किस्से का जिक्र करते हुए ट्विंकल ने अपनी एक बड़ी गलतफहमी के बारे में बताया था.
ट्विंकल खन्ना ने दो साल पहले 2018 में अपने पापा के बर्थडे पर एक फोटो शेयर किया था. इसी के साथ उन्होंने उस किस्से का जिक्र किया था. उन्होंने लिखा था- जब मैं छोटी थी तब बर्थडे वाले दिन ट्रक से लदे फूल आते थे. ये फूल पापा के लिए आते थे मगर मुझे ये कह कर मनाया जाता था कि ये मेरे लिए आए हैं.
ट्विंकल की यह गलतफहमी बाद में दूर हो गई कि फूलों से लदे ट्रक उनके नहीं बल्कि उनके सुपरस्टार पिता और लोगों के चहेते एक्टर राजेश खन्ना के लिए आते थे. दोनों के बीच बहुत ही अच्छी बॉन्डिंग थी. वे अपने पापा को लेकर ये भी कह चुकी हैं कि सिर्फ उनके पिता में ही वो हिम्मत थी जो उनका दिल तोड़ सकते थे. इस बारे में ट्विंकल ने एक पोस्ट लिखा था.
उन्होंने फादर्स डे पर एक पोस्ट शेयर किया था जिसमें उन्होंने लिखा था- जब मैं उनके 31वें जन्मदिन पर पैदा हुई तो उन्होंने (राजेश खन्ना) मेरी मां को बोला था कि मैं उनके लिए दुनिया का सबसे बेस्ट तोहफा हूं. वो मुझे टीना बाबा बुलाते थे. कभी बेबी नहीं कहा. और मैंने उस समय इस बात पर ध्यान नहीं दिया था लेकिन मेरी परवरिश दूसरी लड़कियों से हटकर हुई थी.’
ट्विंकल खन्ना ने इस आर्टिकल में लिखा, ‘वो इकलौता आदमी जिसके पास मेरा दिल तोड़ने की ताकत थी.’ ट्विंकल ने ये आर्टिकल अपनी डिजिटल मीडिया वेबसाइट ट्वीक इंडिया के लिए लिखा था.
बात करें राजेश खन्ना के फिल्मी सफर की तो उनकी फिल्मों और उनकी अदाकारी ने बॉलीवुड को एक नया आयाम दिया था. 1965 में फिल्मफेयर और यूनाइटेड प्रोड्यूसर्स द्वारा किए गए एक टैलेंट हंट शो के जरिए राजेश खन्ना को सेलेक्ट किया गया था.
राजेश खन्ना बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार थे. वो पहले ऐसे एक्टर थे, जिन्हें सुपरस्टार का नाम दिया गया. ये फिल्म आराधना के ब्लॉकबस्टर हिट होने के बाद हुआ. क्रिटिक्स ने उन्हें भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार बताया था.
वे भारत के पहले और इकलौते एक्टर हैं, जिन्होंने एक के बाद एक लगातार 15 सोलो हिट फिल्में दी थीं. साल 1969 से 1971 में रिलीज हुईं उनकी फिल्में सुपरहिट रहीं. उनके इस रिकॉर्ड को आज तक कोई नहीं तोड़ पाया है.
देशभर में सर्दियों का मौसम शुरू हो गया है. ठंड बढ़ने के साथ ही अलमारी में पड़े गर्म कपड़े भी बाहर निकल आये हैं. बात जब लद्दाक (सियाचिन) की हो तो फिर ठंड का अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल होता है. लेकिन सियाचिन में भारतीय सेना के जवान साल भर माइनस 40 डिग्री से माइनस 70 डिग्री सेल्सियस के तापमान में ड्यूटी कर रहे होते हैं.
सियाचिन में जवानों की ज़िंदगी कैसी रहती है हमारे शरीर में इसकी कल्पना मात्र से ही ठिठुरन पैदा हो जाती है. देश के कुछ इलाक़ों में जब गर्मी 50 डिग्री सेल्सियस के पार रहती है, तो सियाचिन में हमारे जवान माइनस 40 डिग्री से माइनस 70 डिग्री के तापमान में ड्यूटी कर रहे होते हैं.
भारतीय जवानों के लिए सियाचिन में काम करना सबसे मुश्किल टास्क होता है. सियाचिन दुनिया का सबसे ऊंचा और मुश्किल वॉरज़ोन माना जाता है. क़रीब 21,700 फ़ीट की ऊंचाई पर सियाचिन ग्लेशियर में तैनात भारतीय जवानों को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. लेकिन ये जवान अपनी जान की परवाह किए बग़ैर विपरीत से विपरीत परिस्तिथियों में जाकर देश सेवा करते हैं.
सियाचिन में भारतीय सैनिकों को साल के 12 महीने बर्फ़ में रहकर देश की रक्षा करनी होती है. इस दौरान यहां का तापमान इतना कम होता है कि इंसान का ख़ून तक जम जाता है. ऐसे में जवानों को कई तरह की सावधानियां बरतनी पड़ती हैं. नहाने के लिए भी जवानों को कम से कम 3 महीने यानि कि 90 दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता है.
आइये इन 20 तस्वीरों के ज़रिए जानते हैं हमारे वीर सैनिक कैसे अपनी ड्यूटी करते हैं?
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चक्रवर्ती राजगोपालाचारी. वह नाम, जिसकी अनेक पहचान सबके सामने हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेता, देश के पहले भारतीय गवर्नर जनरल, मद्रास के मुख्यमंत्री. और इन सबके साथ उनसे जुड़ी वह किंवदंती, जिसमें उनके पहले राष्ट्रपति बनाए जाने की चर्चा गाहे-बगाहे लोगों की जुबान पर आ जाती है. लेकिन इन सबके बीच ‘कहां से शुरू करें उनकी कहानी’ -यह सवाल भी आता है. तो चलिए, सबसे पहले उनके शुरूआती जीवन से आपको रूबरू कराते हैं.
राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर, 1878 को मद्रास के थोराप्पली गांव में मुंसिफ चक्रवती वेंकटरैया आयंगर के घर हुआ था. उनकी शुरूआती पढ़ाई-लिखाई होसुर के सरकारी स्कूल में हुई. 1884 में वह सेंट्रल कॉलेज, बैंगलोर से ग्रेजुएट हुए. इसके बाद मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज से लॉ की पढ़ाई की. राजगोपालाचारी के राजनीति में आने की वजह महात्मा गांधी बने. उन्हें गांधी के छुआछूत आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था. गांधी के असहयोग आंदोलन का उन पर इतना असर हुआ कि उन्होंने अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़ दी, और खादी पहनने लगे. उनकी वकालत इतनी जबर्दस्त चल रही थी कि वे सेलम (तमिलनाडु का एक जिला) में कार खरीदने वाले पहले वकील बन गए थे. उधर, महात्मा गांधी भी राजागोपालाचारी से बहुत प्रभावित थे. इतने प्रभावित कि उन्हें अपना ‘कॉन्शस कीपर (विवेक जागृत रखने वाला) तक कहा करते थे. राजगोपालाचारी को राजाजी का उपनाम भी महात्मा गांधी ने ही दिया था.
राजगोपालाचारी से जुड़े 5 रोचक क़िस्से
पहला किस्सा : ब्राह्मण लड़की बनिए से कैसे ब्याह करेगी!
1927 का साल. महात्मा गांधी के दोस्त राजगोपालाचारी ने अपनी बेटी लक्ष्मी को गांधी के वर्धा आश्रम भेजा. लक्ष्मी वहां रहकर शिक्षा ग्रहण करने लगीं. साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन के अलग-अलग पहलुओं से भी रूबरू होने लगीं. इसी दौरान उन्हें महात्मा गांधी के छोटे बेटे देवदास गांधी से प्यार हो गया. देवदास की उम्र 28 साल थी, जबकि लक्ष्मी केवल 15 साल की थीं. देवदास का बचपन और किशोरवय- दोनों दक्षिण अफ्रीका में बीता था, जबकि लक्ष्मी मद्रास से सीधे वर्धा आईं थीं. अभी किशोरावस्था में थीं. दोनों शादी करना चाहते थे, इसलिए तय किया कि वे इस बात को अपने-अपने पिता को बताएंगे. लेकिन जब दोनों ने यह बात अपने-अपने पिता को बताई तो मामला उल्टा पड़ने लगा. दरअसल उस दौर में महात्मा गांधी और राजगोपालाचारी- दोनों अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के सख्त खिलाफ हुआ करते थे. महात्मा गांधी वैश्य समाज से थे, जबकि राजगोपालाचारी तमिल ब्राह्मण थे. दोनों ने अपने बच्चों को मनाने की बहुत कोशिशें कीं, लेकिन बच्चों पर असर नहीं हुआ. तब जाकर राजगोपालाचारी ने एक रास्ता निकाला. दोनों (देवदास और लक्ष्मी) के सामने शर्त रख दी कि दोनों 5 साल तक एक-दूसरे से दूर रहेंगे, उसके बाद भी दोनों में प्यार बना रहेगा, तभी दोनों की शादी होगी. प्रस्ताव कठिन था, लेकिन दोनों मान गए. 1928 में लक्ष्मी वर्धा से वापस मद्रास चली गईं. 5 साल बाद 1933 में दोनों मिले. इस बार दोनों के पिता यानी महात्मा गांधी और राजगोपालाचारी बच्चों की जिद के सामने झुक गए. पुणे में हिंदू रीति-रिवाज के साथ शादी हो गई. इस शादी के बाद महात्मा गांधी और राजगोपालाचारी, दोनों अंतर्जातीय विवाहों के प्रबल समर्थक बन गए. देवदास गांधी बाद में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बने. देवदास और लक्ष्मी के 4 बच्चे हुए. दो बड़े मशहूर हुए- गोपालकृष्ण गांधी और राजमोहन गांधी. गोपालकृष्ण गांधी भारतीय विदेश सेवा में गए, बंगाल के गवर्नर रहे जबकि राजमोहन गांधी लेखन और पत्रकारिता से जुड़े. वैसे दोनों भाईयों को बड़ी चुनावी लड़ाई लड़ने का भी शौक रहा है.
गोपालकृष्ण गांधी ने 2017 में वेंकैया नायडू के खिलाफ उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा था. जबकि राजमोहन गांधी ने 1989 में उत्तर प्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट पर जनता दल कैंडिडेट के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से टक्कर ली थी. राजाजी के नाती ने राजाजी के दोस्त जवाहर लाल नेहरू के नाती से दो-दो हाथ किए थे. लेकिन इन दोनों चुनावी मुकाबलों में गांधी ब्रदर्स को हार का मुंह देखना पड़ा था.
दूसरा किस्सा : जब राजगोपालाचारी ने विभाजन को अवश्यंभावी बताया
1942 का साल था. उस दौर में कांग्रेस के अधिवेशन होने बंद हो गए थे. 1939 में रामगढ़ अधिवेशन के बाद कांग्रेस का कोई अधिवेशन नही हो रहा था, क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण एक जगह इकठ्ठा होने में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को परेशानी उठानी पड़ती थी. लेकिन फिर भी कांग्रेस के शीर्ष नेता कहीं न कहीं बैठक कर ही लेते थे. ऐसे ही एक बार 1942 में कांग्रेस के अधिकांश नेता इलाहाबाद में बैठे. जिन्ना के पाकिस्तान की रट लगाने और उससे देश में फैल रहे साम्प्रदायिक माहौल पर चर्चा चल रही थी. इस दौरान राजगोपालाचारी के बोलने की बारी आई. जब उन्होंने मुंह खोला तो सब आवाक रह गए. राजगोपालाचारी ने तब साफ-साफ कह दिया था कि विभाजन रोकना किसी के वश में नही है. सबने उनका खुलकर विरोध किया. खुद महात्मा गांधी ने भी विरोध किया. लेकिन 5 साल बाद 1947 में राजगोपालाचारी की बात सही निकली. इसके बाद जब कांग्रेस और जिन्ना की मुस्लिम लीग के मतभेद और ज्यादा बढ़ने लगे, तब 1944 में उन्होंने एक फार्मूला भी दिया, जिसे सीआर फार्मूला (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी फार्मूला) कहा जाता है.
क्या था यह सीआर फार्मूला?
दरअसल इस फार्मूले में उन्होंने पांच बातें रखी थी :
1.द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद एक कमीशन बनाया जाए, जो भारत के उत्तर-पश्चिम में मुस्लिम बहुल इलाकों की पहचान करे. यहां उनके बीच जनमत संग्रह करया जाए कि ये लोग भारत से अलग होना चाहते हैं या नहीं.
2. मुस्लिम लीग को भारत की आजादी के आंदोलन में जोशोखरोश से भाग लेना होगा. साथ ही उसे अंतरिम सरकारों में भी भागीदार बनना होगा.
3. विभाजन के बाद दोनों देशों के बीच रक्षा, व्यापार और कम्युनिकेशन पर एक समझौता हो.
4. अगर लोग एक देश से दूसरे देश में जाना चाहते हों तो ये पूरी तरह उनकी मर्जी पर होना चाहिए.
5. समझौते के ये नियम तभी लागू होंगे, जब भारत को ब्रिटेन पूरी तरह से आज़ाद कर देगा.
लेकिन जिन्ना ने इस फार्मूले को सिरे से नकार दिया. जिन्ना चाहते थे कि कांग्रेस द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर ले, और उत्तर-पूर्वी व उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में केवल मुस्लिम लोगों को ही मत देने का अधिकार मिले. उन्होंने फार्मूले में प्रस्तावित साझा सरकार के गठन का भी विरोध किया. जिन्ना का पूरा ध्यान केवल अलग पाकिस्तान की मांग पर ही था, जबकि कांग्रेस भारतीय संघ की स्वतंत्रता पर जोर दे रही थी. इन परिस्थितियों को देखते हुए महात्मा गांधी ने भी सीआर फार्मूले से सहमति जताई, लेकिन फिर भी यह फार्मूला सर्व-स्वीकार्य नही बन पाया. यहां तक कि हिन्दू महासभा के विनायक सावरकर जैसे नेताओं ने भी इस फार्मूले की तीखी आलोचना की थी.
तीसरा किस्सा : तमिलों के बीच हिंदी के प्रसार का जोखिम उठाया
1937 में कांग्रेस ने मद्रास (आज के तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश का अधिकांश इलाका, तब मद्रास प्रांत का हिस्सा था) की प्रोविंशियल असेंबली का चुनाव जीता, तो राजगोपालाचारी को मद्रास प्रांत का प्रीमियर यानी प्रधानमंत्री बना दिया गया. लेकिन उस दौर में, जब उन्होंने मद्रास प्रांत में हिंदी को स्वीकार्य बनाने की कोशिशें शुरू कीं तो हिंसक विरोध होने लगा. उस हिंसा में दो लोगों की मौत भी हुई. राजगोपालाचारी ने मशहूर तमिल पत्रिका सुदेशमित्रम में 6 मई 1937 को अपने लेख में लिखा था, ‘जब हम हिंदी सीख लेंगे तभी दक्षिण भारत को सम्मान हासिल होगा’.
दक्षिण भारत में हिंदी के प्रसार में उन्हें उस वक्त कोई कामयाबी नही मिली, लेकिन वे प्रयास करते रहे. वे दक्षिण में हिंदी को मुकाम नहीं दिला सके. फिर भी इसके प्रचार-प्रसार में जुटे रहे. कामयाबी मिलती भी कैसे? एक ओर तमिलों का उग्र हिंदी विरोध था, तो दूसरी ओर उनकी सरकार की उम्र ज्यादा लंबी नही थी. ऐसा इसलिए क्योंकि 1939 में भारत को बिना भारतीयों की मर्जी के द्वितीय विश्व युद्ध में धकेले जाने के ब्रिटिश हुकूमत के फैसले के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दे दिया था.
वैसे तमिलों का हिंदी विरोध आजादी के बाद भी जारी रहा. संविधान सभा में भी टीटी कृष्णमाचारी और रामास्वामी आयंगर जैसे सदस्यों ने हिंदी का खुलकर विरोध किया. लिहाजा हिंदी को इकलौती राजभाषा बनाने का मामला 15 साल के लिए (1965 तक के लिए) टाल दिया गया.
इसके बाद 1952-1954 के दौर में एक बार फिर से राजगोपालाचारी मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री रहे. उस दौरान उन्होंने हिंदी को माध्यमिक स्तर की शिक्षा में अनिवार्य कराया. ये अलग बात है कि तमिलों के उग्र हिंदी विरोध के चलते उनका यह प्रयास सिर्फ कागजों पर सिमट कर रह गया.
चौथा किस्सा : जब राव-मनमोहन से दशकों पहले लाइसेंस-परमिट राज को समाप्त करने की वकालत की
यह 50 के दशक का उत्तरार्ध था. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनकी नीतियों से राजगोपालाचारी के मतभेद बढ़ने लगे थे. खासकर आर्थिक नीतियों पर. 50 के दशक की शुरूआत में तो नेहरू को राजगोपालाचारी पर इतना भरोसा था कि वे उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे. ये अलग बात है कि तब तक कांग्रेस में व्यक्तिवाद हावी नही हुआ था. आंतरिक लोकतंत्र का बोलबाला था. इस वजह से नेहरू कामयाब नही हो सके थे. उन्हीं राजगोपालाचारी को जो कभी नेहरू के बेहद विश्वासपात्र थे, लगने लगा था कि आर्थिक मामलों में नेहरू कम्यूनिस्ट नीतियों के करीब होते जा रहे हैं. बिजनेस-व्यवसाय के मामले में बेवजह सरकारी दखल बढ़ रहा है. इससे उद्यमशीलता यानी entrepreneurship की प्रवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. राजगोपालाचारी चाहते थे कि उद्योग-धंधों और बिजनेस के मामलों में सरकार का कम से कम दखल हो. आज की शब्दावली में कहें तो ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस.’
उस दौर में राजगोपालाचारी ने खुली आर्थिक नीतियों की वकालत की थी. आर्थिक नीतियों पर उनकी नाराजगी को देखते हुए जवाहर लाल नेहरू ने भी एक बार कहा था, ‘पता नही राजाजी चाहते क्या हैं, सरकार से क्यों नाराज रहते हैं?’
लेकिन नेहरू से अपने नीतिगत मतभेदों को राजगोपालाचारी व्यक्तिगत दोस्ती की कीमत पर क़ुर्बान करने को तैयार नही थे. वे अपने मतभेद को खुलकर व्यक्त करते थे. गांधी के दौर में भी विभाजन के मुद्दे पर उन्होंने यही किया था.
पांचवां किस्सा : जब लोकतंत्र में विपक्ष की जरूरत को महसूस करते हुए स्वतंत्र पार्टी बनाई
राजगोपालाचारी न सिर्फ नेहरू की आर्थिक नीतियों से नाराज थे, बल्कि उन्हें नेहरू और कांग्रेस की बदली-बदली कार्यशैली भी नागवार गुजर रही थी. व्यक्तिवाद, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव, चापलूसों का बोलबाला- ये सब ऐसे कारण थे, जिससे राजगोपालाचारी के नेहरू से गहरे मतभेद हो गए थे. इन्ही सब मुद्दों पर नेहरू और कांग्रेस से मतभेद होने के कारण स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके आचार्य जेबी कृपलानी ने भी 1951 में कांग्रेस छोड़ दी थी. और अब यही सब सवाल राजगोपालाचारी उठा रहे थे. 1957 में एक सेमिनार में भाग लेते हुए राजगोपालाचारी ने यहाँ तक कह दिया था, ’62 साल पहले देश में शासन तंत्र के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए एक पार्टी का गठन हुआ था और इसी तरह आज भी ऐसी ही एक पार्टी की आवश्यकता है. बिना विपक्ष के लोकतंत्र ऐसा ही होता है जैसे कि किसी गधे की पीठ पर एक ही तरफ कपड़ों का गट्ठर लाद दिया जाए.’
*दरअसल उनके 62 साल पहले एक पार्टी के गठन का आशय 1885 में कांग्रेस के गठन से था.
काफी सोच-विचार के बाद 4 जून 1959 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की अध्यक्षता में स्वतंत्र पार्टी अस्तित्व में आई. शुरूआत में इस पार्टी में मीनू मसानी जैसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) के संस्थापक, एन जी रंगा जैसे मजदूर नेता और पीलू मोदी जैसे कमाल के वक्ता जुड़े. क्षेत्रीय स्तर पर भी कई राजे-रजवाड़े और व्यापारी वर्ग के लोग इस पार्टी के मेंबर बने. जयपुर की महारानी गायत्री देवी और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह भी इस पार्टी में शामिल हुए. रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह ने तो नेहरू के प्रचार तंत्र और लोगों तक उनकी पहुंच का मुकाबला करने के लिए 2 हेलीकाॅप्टर भी खरीदे. एक हेलीकाॅप्टर उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए राजगोपालाचारी को दिया जबकि दूसरे से खुद प्रचार करते थे.
स्वतंत्र पार्टी ने 1962 में अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा, और 18 सीटें जीतीं. बिहार समेत कई राज्यों की विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा भी हासिल किया. 1967 के लोकसभा चुनाव का परिणाम तो बिल्कुल 2014 की तरह था. तब सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को 282 सीटें मिली थी जबकि दूसरे नंबर की पार्टी स्वतंत्र पार्टी को लोकसभा की 44 सीटें हासिल हुई थी.
(2014 में भी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को 282 और दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं)
स्वतंत्र पार्टी लोकसभा में दूसरे नंबर पर पहुंच गई. उस दौर में स्वतंत्र पार्टी की ओर से कमाल के वक्ता लोकसभा में दाखिल हो गए. पीलू मोदी, मीनू मसानी और महारानी गायत्री देवी जैसे सांसद इंदिरा गांधी की सरकार को घेरने का कोई मौका नही छोड़ते. इंदिरा गांधी की सरकार संसद में अक्सर बैकफुट पर नजर आने लगी. लोगों में यह विश्वास जमने लगा कि राजगोपालाचारी और उनकी स्वतंत्र पार्टी ही देश का भविष्य है. लेकिन फिर 1969 का कांग्रेस विभाजन, बैंकों का नेशनलाइजेशन, राजाओं (जिनका स्वतंत्र पार्टी में वर्चस्व था) के प्रिवीपर्स की समाप्ति और सबसे बढ़कर 1971 के चुनावों में इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा – ये सब ऐसे कारण थे जिससे लोकसभा चुनाव में स्वतंत्र पार्टी समेत संपूर्ण विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया. स्वतंत्र पार्टी को केवल 8 सीटें मिली थीं. हालांकि इन 8 लोगों में भी पीलू मोदी और महारानी गायत्री देवी जैसे लोग संसद पहुंचने में कामयाब रहे थे.
लेकिन इस बड़ी हार के लगभग डेढ़ साल बाद 25 दिसंबर 1972 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का देहांत हो गया. उनके साथ ही स्वतंत्र पार्टी की रही-सही राजनीतिक ताकत भी खत्म हो गई. 2 साल बाद 1974 में पीलू मोदी समेत स्वतंत्र पार्टी के कई नेता चौधरी चरण सिंह के लोकदल में शामिल हो गए. पार्टी का बचा-खुचा अस्तित्व समाप्त हो गया. हालांकि राजगोपालाचारी की पार्टी का अस्तित्व भले ही समाप्त हो गया, लेकिन उनकी मृत्यु के 19 साल बाद उनकी आर्थिक सोच को देश के नीति-निर्माताओं ने स्वीकार किया. दिलचस्प बात यह है कि राजगोपालाचारी की आर्थिक नीतियों को जमीन पर उतारने का काम उसी कांग्रेस पार्टी ने किया, जिसके विरोध में कभी राजाजी ने स्वतंत्र पार्टी खड़ी की थी. लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाईजेशन (LPG) जैसे नए शब्द प्रचलन में आ गए. अखबारनवीसों की भाषा में इस आर्थिक नीति को राव-मनमोहन माॅडल कहा गया और आज भी हमारा देश कमोबेश इसी आर्थिक नीति पर चल रहा है.
राजाजी के कितने किस्से सुनाऊँ आपको? उनकी साफ बोलने और दूरदृष्टि रखने के कारण ही बंगाल के गवर्नर रहे ऑस्ट्रेलियाई नागरिक आर जी केसे ने उनको “the wisest man of India” यानी भारत का सबसे बुद्धिमान आदमी कहा था.
वो सोलहवीं सदी का आख़िरी साल था. दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल भारत में तैयार होता था. इसी वजह से इस मुल्क को सोने की चिड़िया कहा जाता था. तब दिल्ली की तख़्त पर मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर की हुकूमत थी.
वो दुनिया के सबसे दौलतमंद बादशाहों में से एक थे. दूसरी तरफ़ उसी दौर में ब्रिटेन गृहयुद्ध से उबर रहा था. उसकी अर्थव्यवस्था खेतीबाड़ी पर निर्भर थी और दुनिया के कुल उत्पादन का महज तीन फ़ीसद माल वहां तैयार होता था.
ब्रिटेन में उस वक़्त महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की हुकूमत थी. यूरोप की प्रमुख शक्तियाँ पुर्तगाल और स्पेन, व्यापार में ब्रिटेन को पीछे छोड़ चुकी थीं. व्यापारियों के रूप में ब्रिटेन के समुद्री लुटेरे पुर्तगाल और स्पेन के व्यापारिक जहाज़ों को लूटकर ही संतुष्ट हो जाते थे.
उसी दौरान घुमंतू ब्रितानी व्यापारी राल्फ़ फ़िच को हिंद महासागर, मेसोपोटामिया, फ़ारस की खाड़ी और दक्षिण पूर्व एशिया की व्यापारिक यात्राएँ करते हुए भारत की समृद्धि के बारे में पता चला.
राल्फ़ फ़िच की ये यात्रा इतनी लंबी थी कि ब्रिटेन लौटने से पहले उन्हें मृत मानकर उनकी वसीयत को लागू कर दिया गया था. पूरब से मसाले हासिल करने के लिए लेवेंट कंपनी दो नाकाम कोशिशें कर चुकी थी.
भारत के बारे में राल्फ़ फ़िच की जानकारी के आधार पर एक अन्य घुमंतू सर जेम्स लैंकेस्टर सहित ब्रिटेन के 200 से अधिक प्रभावशाली और व्यावसायिक पेशेवरों को इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार आया.
उन्होंने 31 दिसंबर 1600 को एक नई कंपनी की नींव डाली और महारानी से पूर्वी एशिया में व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त किया. इस कंपनी के कई नाम हैं, लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जाना जाता है
ईस्ट इंडिया कंपनी के आने का एलान
शुरुआती सालों में दूसरे क्षेत्रों में यात्रा करने के बाद अगस्त 1608 में कैप्टन विलियम हॉकिंस ने भारत के सूरत बंदरगाह पर अपने जहाज़ ‘हेक्टर’ का लंगर डालकर ईस्ट इंडिया कंपनी के आने का एलान किया.
हिंद महासागर में ब्रिटेन के व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी डच और पुर्तगाली पहले से ही मौजूद थे. तब किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया होगा कि ये कंपनी अपने देश से बीस गुना बड़े, दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक और उसकी लगभग एक चौथाई आबादी पर सीधे तौर पर शासन करने वाली थी.
तब तक बादशाह अकबर की मृत्यु हो चुकी थी. उस दौर में संपत्ति के मामले में केवल चीन का मिंग राजवंश ही बादशाह अकबर की बराबरी कर सकता था.
ख़ाफ़ी ख़ान निज़ामुल-मुल्क की किताब ‘मुंतख़बुल-बाब’ के अनुसार, अकबर ने पाँच हज़ार हाथी, बारह हज़ार घोड़े, एक हज़ार चीते, दस करोड़ रुपये, बड़ी अशर्फ़ियों में सौ तोले से लेकर पाँच सौ तोले तक की हज़ार अशर्फ़ियाँ, दो सौ बहत्तर मन कच्चा सोना, तीन सौ सत्तर मन चाँदी, एक मन जवाहरात जिसकी क़मीत तीन करोड़ रुपये थी, अपने पीछे छोड़ा था.
अकबर के शहज़ादे सलीम, नूरुद्दीन, जहाँगीर की उपाधि के साथ तख़्त पर आसीन हो चुके थे. शासन में सुधारों को लागू करते हुए कान, नाक और हाथों को काटने का दंड समाप्त कर दिया गया था. (जनता के लिए) शराब और दूसरी नशीली वस्तुओं का प्रयोग और विशेष दिनों में जानवरों के वध पर पाबंदी का आदेश देने के साथ कई अवैध करों को हटाया जा चुका था.
सड़कें, कुएँ और सराय बनाए जा रहे थे. उत्तराधिकार के क़ानूनों को सख़्ती से लागू किया गया था और हर शहर के सरकारी अस्पतालों में मुफ़्त इलाज का आदेश दिया गया था. फ़रियादियों की फ़रियाद के लिए महल की दीवार से न्याय की एक ज़ंजीर लटका दी गई थी.
मुग़ल बादशाह को मनाने की कोशिश
विश्व विख्यात इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल के अनुसार, हॉकिंस को जल्द ही एहसास हो गया कि चालीस लाख मुग़लों की सेना के साथ वैसा युद्ध नहीं किया जा सकता जैसा कि उस समय यूरोप में हो रहा था.
इसलिए यहाँ उसे मुग़ल बादशाह की इजाजत के साथ-साथ सहयोग की भी ज़रूरत थी. हॉकिंस एक वर्ष के भीतर मुग़ल राजधानी आगरा पहुँचा. कम पढ़े-लिखे हॉकिंस को जहाँगीर से व्यापार की अनुमति प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली.
उसके बाद संसद के सदस्य और राजदूत सर थॉमस रो को शाही दूत के रूप में भेजा गया. सर थॉमस रो 1615 में मुग़ल राजधानी आगरा पहुँचे. उन्होंने राजा को बहुमूल्य उपहार भेंट किया, जिसमें शिकारी कुत्ते और उनकी पसंदीदा शराब भी शामिल थी.
ब्रिटेन के साथ संबंध बनाना जहाँगीर की प्राथमिकता में नहीं था. थॉमस रो के अनुसार, जब भी बात होती थी, तो बादशाह उससे व्यापार के बजाय घोड़ों, कलाकृतियों और शराब के विषय में चर्चा करने लगता.
तीन साल तक लगातार अनुनय-विनय के बाद सर थॉमस रो को इसमें सफलता मिली. जहाँगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर किये.
समझौते के तहत, कंपनी और ब्रिटेन के सभी व्यापारियों को उपमहाद्वीप के प्रत्येक बंदरगाह और ख़रीदने तथा बेचने के लिए जगहों के इस्तेमाल की इजाजत दी गई. बदले में यूरोपीय उत्पादों को भारत को देने का वादा किया गया था, लेकिन तब वहाँ बनता ही क्या था?
ये तय किया गया था कि कंपनी के जहाज़ राजमहल के लिए जो भी प्राचीन वस्तुएँ और उपहार लाएँगे उन्हें सहर्ष स्वीकार किया जाएगा.
कंपनी के व्यापारी मुग़लों की रज़ामंदी से भारत से सूत, नील, पोटैशियम नाइट्रेट और चाय ख़रीदते, विदेशों में उन्हें महंगे दामों में बेचते और ख़ूब मुनाफ़ा कमाते.
कंपनी की पूँजी का आधार व्यापारिक पूँजी था. कंपनी जो भी वस्तु ख़रीदती उसका मूल्य चाँदी देकर अदा करती, जो उसने 1621 से 1843 तक स्पेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में दासों को बेचकर जमा किया था.
कंपनी का मुगलों से आमना-सामना
साल 1670 में, ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को विदेश में युद्ध लड़ने और उपनिवेश स्थापित करने की अनुमति दे दी. ब्रिटिश सेना के सशस्त्र बलों ने पहले भारत में पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी प्रतिद्वंद्वियों का मुक़ाबला किया और अधिकांश युद्ध जीते. धीरे-धीरे उसने बंगाल के तटीय क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया.
लेकिन, सत्रहवीं शताब्दी में, मुग़लों से केवल एक बार उनका आमना-सामना हुआ था. साल 1681 में, कंपनी के कर्मचारियों ने कंपनी के निदेशक सर चाइल्ड से शिकायत की कि बंगाल में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर के भांजे नवाब शाइस्ता ख़ान के अधिकारी उन्हें कर और अन्य मामलों में परेशान करते हैं.
सर चाइल्ड ने सैन्य सहायता के लिए अपने सम्राट को पत्र लिखा. इसके बाद 1686 में उन्नीस युद्धपोतों, दो सौ तोपों और छह सौ सैनिकों वाला एक नौसैनिक बेड़ा लंदन से बंगाल की ओर रवाना हुआ.
मुग़ल बादशाह की सेना भी तैयार थी, इसलिए युद्ध में मुग़लों की जीत हुई. 1695 में, ब्रितानी समुद्री डाकू हेनरी एवरी ने औरंगज़ेब के समुद्री जहाज़ों ‘फ़तेह मुहम्मद’ और ‘ग़ुलाम सवाई’ को लूट लिया. इस ख़ज़ाने की कीमत लगभग छह से सात लाख ब्रिटिश पाउंड थी.
मुग़ल सेना से बुरी तरह ब्रितानी सेना
इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल का कहना है कि ब्रितानी सैनिकों को मुग़ल सेना ने मक्खियों की तरह मारा. बंगाल में कंपनी के पाँच कारख़ाने नष्ट कर दिए गए और सभी अंग्रेज़ों को बंगाल से बाहर निकाल दिया गया.
सूरत के कारख़ाने को बंद कर दिया गया और बम्बई में भी उनका यही हाल किया गया. कंपनी के कर्मचारियों को ज़ंजीरों में जकड़कर शहरों में घुमाया गया और अपराधियों की तरह उन्हें अपमानित किया गया.
कंपनी के पास माफ़ी माँगने और अपने कारख़ानों को वापस पाने के लिए राजा के दरबार में भिखारियों की तरह उपस्थित होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. ब्रिटिश सम्राट ने आधिकारिक रूप से हेनरी एवरी की निंदा की और मुग़ल बादशाह से माफ़ी माँगी.
औरंगज़ेब आलमगीर ने 1690 में कंपनी को माफ कर दिया. सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में, ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तन ख़रीदती थी. सामान का भुगतान चाँदी में करना पड़ता था, क्योंकि उनके पास कोई भी ऐसा उत्पाद नहीं था जिसकी चीन को आवश्यकता हो.
इसका एक उपाय निकाला गया. बंगाल में पोस्ते की खेती की गई और बिहार में अफ़ीम का निर्माण करने के लिए कारख़ाने लगाए गए और इस अफ़ीम को तस्करी के ज़रिये चीन पहुँचाया गया.
उस समय तक, चीन में अफ़ीम का बहुत कम उपयोग किया जाता था. ईस्ट इंडिया कंपनी ने चीनी एजेंटों के माध्यम से लोगों के बीच अफ़ीम को बढ़ावा दिया. कंपनी ने अफ़ीम के व्यापार से रेशम और चीनी के बर्तन भी ख़रीदे और मुनाफ़ा भी कमाया.
जब चीनी सरकार ने अफ़ीम के व्यापार को रोकने की कोशिश की और चीन आने वाले अफ़ीम को नष्ट किया गया, तब चीन और ब्रिटेन के बीच कई युद्ध हुए. जिसमें चीन की हार हुई और ब्रिटेन ने अपमानजनक शर्तों पर चीन के साथ कई समझौते किए.
इस तरह नष्ट किए गए अफ़ीम का मुआवज़ा वसूला गया. उसके बंदरगाहों पर क़ब्ज़ा किया गया. हांगकांग पर ब्रिटिश आधिपत्य इसी श्रृंखला की एक कड़ी थी.
जब चीनी सरकार ने विरोध में महारानी विक्टोरिया को पत्र लिखकर अफ़ीम के व्यापार को रोकने में मदद करने की अपील की तो उस पत्र का कोई जवाब नहीं आया.
साल 1707 में बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हो गए. कंपनी ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए लाखों की संख्या में स्थानीय लोगों को सेना में भर्ती किया.
यूरोप में होने वाली औद्योगिक क्रांति के कारण युद्ध तकनीक में भी वे दक्ष हो गए. यह छोटी लेकिन प्रभावी सेना एक के बाद एक पुरानी तकनीक से लैस मुग़लों, मराठों, सिखों और स्थानीय नवाबों की बड़ी सेनाओं को हराती चली गई.
साल 1756 में, नवाब सिराजुद्दौला भारत के सबसे धनी अर्ध-स्वायत्त राज्य बंगाल के शासक बने. मुग़ल शासन के राजस्व का पचास प्रतिशत इसी राज्य से आता था. बंगाल न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में कपड़ा और जहाज़ निर्माण का एक प्रमुख केंद्र था.
इस क्षेत्र के लोग रेशम, सूती वस्त्र, इस्पात, पोटैशियम नाइट्रेट और कृषि तथा औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात करके अच्छी कमाई करते थे. कंपनी ने कलकत्ता में अपने क़िलों का विस्तार करना शुरू कर दिया और अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी.
नवाब ने कंपनी को संदेश भेजा कि वह अपने क्षेत्र का विस्तार न करे. आदेश की अवहेलना के बाद नवाब ने कलकत्ता पर हमला किया और ब्रिटिश क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया. ब्रिटिश क़ैदियों को फ़ोर्ट विलियम के तहख़ाने में क़ैद कर दिया गया.
मीर जाफ़र का विश्वासघात और प्लासी का युद्ध
ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब की सेना के सेनापति मीर जाफ़र को अपने साथ मिला लिया, जिसके मन में शासक बनने की इच्छा थी. 23 जून 1757 को प्लासी में कंपनी और नवाब की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ.
तोपों की अधिकता और मीर जाफ़र के विश्वासघात के कारण अंग्रेज़ विजयी हुए और मीर जाफ़र को बंगाल के सिंहासन पर बैठा दिया गया. अंग्रेज़ अब मीर जाफ़र से मालगुज़ारी वसूलने लगे. इस प्रकार भारत में लूटपाट का युग आरंभ हुआ.
जब ख़ज़ाना ख़ाली हो गया, तो मीर जाफ़र ने कंपनी से पीछा छुड़ाने के लिए डच सेना की मदद ली. 1759 में और फिर 1764 में विजय के बाद कंपनी ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया.
नये-नये करों का बोझ लादा और बंगाल का सामान सस्ते दामों में ख़रीदकर दूसरे देशों में महंगे दामों में बेचने लगे. स्कॉलर वजाहत मसूद लिखते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ब्रितानी व्यापारी चाँदी के सिक्के देकर भारतीयों से कपास और चावल ख़रीदते थे.
प्लासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने वित्त और राजस्व की प्रणाली की सहायता से भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया.
यह व्यवस्था की गई थी कि भारतीयों से प्राप्त राजस्व का लगभग एक तिहाई भारतीय उत्पादों को ख़रीदने में ख़र्च किया जाएगा. इस प्रकार भारत के लोग जो राजस्व देते थे उसके एक तिहाई के बदले उन्हें अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर किया जाता था.
ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन और एक बुरा दौर
इतिहासकार, आलोचक और पत्रकार बारी अलीग ने अपनी पुस्तक ‘कंपनी की हुकूमत’ में लिखा है, “दुनिया के प्रत्येक देश के व्यापारी भारत के साथ व्यापार करते थे. सभ्य लोगों के बीच, ढाका और मुर्शिदाबाद के मलमल का उपयोग महानता और श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाता था. यूरोप के सभी देशों में इन दोनों शहरों के मलमल और चिकन बहुत लोकप्रिय थे.”
भारत के अन्य उद्योगों की तुलना में कपड़ा उद्योग काफ़ी बेहतर स्थिति में था. भारत से सूती और ऊनी कपड़े, शॉल, मलमल और कशीदाकारी का निर्यात किया जाता था.
अहमदाबाद अपने रेशम और रेशम पर किए जाने वाले सोने-चाँदी के काम के लिए दुनिया भर में मशहूर था. अठारहवीं सदी में इंग्लैंड में इन कपड़ों की इतनी अधिक माँग थी कि सरकार को इन पर रोक लगाने के लिए भारी कर लगाना पड़ा.
कपड़ा बुनाई के अलावा लोहे के काम में भी भारत काफ़ी प्रगति कर चुका था. लोहे से बना सामान भी भारत से बाहर भेजा जाता था. मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान मुल्तान में जहाज़ों के लिए लोहे का लंगर बनाया जाता था. बंगाल ने जहाज़ निर्माण में काफ़ी प्रगति की थी.
एक अंग्रेज़ के शब्दों में, “आम अंग्रेज़ों को समझाना मुश्किल है कि हमारे शासन से पहले भारतीय लोग काफ़ी सुखद जीवन व्यतीत कर रहे थे. व्यापारी और साहसी लोगों के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थीं. मुझे पूरा विश्वास है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय व्यापारी बहुत ही आरामदायक जीवन जी रहे थे.”
“औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान सूरत और अहमदाबाद से जो उत्पाद निर्यात किया जाता था, उससे क्रमश: तेरह लाख और एक सौ से तीन लाख रुपये की वार्षिक राजस्व की वसूली होती थी.”
ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी थी लेकिन उसके पास ढाई लाख सैनिकों की एक फौज थी. जहाँ व्यापार से लाभ की संभावना नहीं होती, तो वहाँ सेना उसे संभव बना देती. कंपनी की सेना ने अगले पचास वर्षों में भारत के अधिकांश हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया.
उन क्षेत्रों पर कंपनी को राजस्व देने वाले स्थानीय शासक शासन करने लगे. प्रत्यक्ष रूप से सत्ता स्थानीय शासकों के हाथों में थी, लेकिन राज्य का अधिकांश राजस्व ब्रिटिश तिजोरियों में जाता था. जनता मजबूर थी.
अगस्त 1765 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुग़ल बादशाह शाह आलम को हराया. लॉर्ड क्लाइव ने पूर्वी प्रांतों बंगाल, बिहार और उड़ीसा की ‘दीवानी’ अर्थात् राजस्व वसूलने और जनता को नियंत्रित करने का अधिकार 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले हासिल कर लिया.
इसके बाद भारत कंपनी के शासन के अधीन आ गया. इतिहासकार सैयद हसन रियाज़ के अनुसार उस दौर में जनता के बीच यह धारणा प्रचलित थी, “दुनिया ख़ुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का.”
शाही परिवार की विलसता
मुग़लिया शासन के अंतिम दौर में शासकों द्वारा जनता का ख़ून निचोड़कर जो धन संपदा एकत्र की जाती थी वह शाही परिवार की विलासिता में ख़र्च हो जाता था. मुग़ल शहज़ादे जिन्हें सुल्तान कहा जाता था, वे अपने आलस्य, निष्क्रियता, कायरता और विलासिता के लिए विख्यात थे.
इतिहासकार डॉक्टर मुबारक अली अपनी पुस्तक ‘आख़िरी अहद का मुग़लिया हिंदुस्तान’ में लिखते हैं कि “सन 1948 में नृत्य और सरोद की महफ़िलों में सब कुछ लुटाकर दाद देने वाले नाकारा सुल्तानों की संख्या 2104 तक पहुँच गई थी. शाह आलम का बेटा अकबर भी कामुकता में अपने बाप से कम नहीं था. अठारह वर्ष की आयु में वह अठारह बेग़मों का शौहर था.”
अठारहवीं शताब्दी में, 1769 से 1773 तक बिहार से लेकर बंगाल तक का दक्षिणी क्षेत्र अकाल से प्रभावित था. एक अनुमान के अनुसार अकाल से लाखों लोगों की मौत हुई. गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स की एक रिपोर्ट के अनुसार एक-तिहाई आबादी भुखमरी से मर गई.
मौसम की प्रतिकूल स्थिति के अलावा ग्रामीण आबादी कंपनी द्वारा लगाए गए भारी कर के कारण कंगाल हो गई थी. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार बंगाल का अकाल मानव निर्मित था.
किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय शासकों को अपनी सेना किराए पर उपलब्ध कराती थी. लेकिन इन सैन्य ख़र्चों के बोझ की वजह से वे जल्द ही कंगाल हो जाते और उन्हें अपना शासन गँवाना पड़ता.
मानवीय त्रासदियों से उठाया फायदा
इस तरह, कंपनी लगातार अपने क्षेत्र का विस्तार करती जाती. कंपनी ने मानवीय त्रासदी से भी लाभ उठाया. जो चवाल एक रुपये का 120 सेर मिलता था, वह बंगाल के अकाल के दौरान एक रुपये में केवल तीन सेर मिलने लगा.
एक जूनियर अधिकारी ने इस तरह 60,000 पाउंड का लाभ कमाया. ईस्ट इंडिया कंपनी के 120 वर्षों के शासनकाल के दौरान 34 बार अकाल पड़ा.
मुग़ल शासन के अंतर्गत अकाल के दौरान लगान (कर) को कम कर दिया जाता था, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने अकाल के दौरान लगान में वृद्धि की. लोग रोटी के लिए अपने बच्चों को बेचने लगे.
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी शेख़ दीन मुहम्मद ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि “सन 1780 के आसपास जब हमारी सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं, तो हमने कई हिंदू तीर्थयात्रियों को देखा जो सीता कुंड जा रहे थे. 15 दिनों में हम मुंगेर से भागलपुर पहुँच गए.”
“हमने शहर के बाहर शिविर लगाया. यह शहर औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण था और व्यापार की रक्षा के लिए इसके पास अपनी एक सेना भी थी. हम चार-पाँच दिन वहाँ ठहरे. हमें पता चला कि ईस्ट इंडिया कंपनी का कैप्टन ब्रुक, जो सैनिकों की पाँच कंपनियों का प्रमुख था, वह भी पास में ही ठहरा हुआ है. उसे कभी-कभार पहाड़ी आदिवासियों का सामना करना पड़ता.”
“ये पहाड़ी लोग भागलपुर और राजमहल के बीच की पहाड़ियों पर रहते थे और वहाँ से गुज़रने वाले यात्रियों को परेशान करते थे. कैप्टन ब्रुक ने उनमें से बहुत सारे लोगों को पकड़ लिया और उन्हें एक मिसाल बना दिया. कुछ लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए और कुछ को इस तरह से फाँसी पर लटकाया गया कि पहाड़ों से साफ़ तौर पर दिखाई दे ताकि उनके साथियों के दिलों में दहशत बैठ जाए.”
“यहाँ से हम आगे बढ़े और हमने देखा कि पहाड़ी के सभी प्रमुख स्थानों पर हर आधे मील पर उनके शव लटके हुए हैं. हम सुकली गढ़ी और तलिया गढ़ी के रास्ते राजमहल पहुँचे, जहाँ कुछ दिनों तक रुके. हमारी सेना बहुत बड़ी थी लेकिन पीछे से व्यापारियों पर कुछ अन्य पहाड़ियों ने हमला कर दिया. हमारे सिपाहियों ने उनका पीछा किया.”
“कई लोगों को मार डाला गया और तीस या चालीस पहाड़ी लोगों को पकड़ लिया गया. अगली सुबह जब शहर के लोग हमेशा की तरह हाथी, घोड़े और बैलों का चारा लेने और जलाने के लिए लकड़ी ख़रीदने के लिए पहाड़ियों के पास गए, तो पहाड़ियों ने उन पर हमला कर दिया. सात या आठ लोग मारे गए. पहाड़ी अपने साथ तीन हाथी, कई ऊँट-घोड़े और बैल भी ले गए.
“हमारे हथियारबंद सैनिकों ने जवाबी कार्रवाई में बहुत से पहाड़ियों को मार डाला, जो तीर कमान और तलवारों से लड़ रहे थे, और दो सौ पहाड़ियों को हिरासत में ले लिया. उनकी तलवार का वज़न 15 पाउंड था और जो अब हमारी जीत की ट्रॉफ़ी बन चुकी थी. कर्नल ग्रांट के आदेश के अनुसार इन पहाड़ियों पर बहुत अत्याचार किया गया. कुछ के नाक और कान काट दिए गए. कुछ को फाँसी दे दी गई. इसके बाद हमने कलकत्ता की ओर अपना मार्च जारी रखा.”
टीपू सुल्तान से मिली चुनौती
केवल मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने फ़्रांस के तकनीकी सहयोग के साथ कंपनी का वास्तविक प्रतिरोध किया और कंपनी को दो युद्धों में हराया भी. लेकिन भारत के अन्य शासकों को अपने साथ मिलकार टीपू सुल्तान पर भी क़ाबू पा लिया गया. जब कंपनी के गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेज़ली को 1799 में टीपू की मृत्यु की सूचना दी गई, तो उसने अपना गिलास हवा में उठाते हुए कहा कि आज मैं भारत की लाश पर जश्न मना रहा हूँ.
लॉर्ड वेलेज़ली के ही कार्यकाल में कंपनी को अपनी सैन्य विजय के बावजूद वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसका क़र्ज़ बढ़कर 3 करोड़ पाउंड से भी अधिक हो चुका था. कंपनी के निदेशक ने वेलेज़ली के व्यर्थ ख़र्च के बारे में सरकार को लिखा और उन्हें ब्रिटेन वापस बुला लिया गया.
साल 1813 में, ब्रिटिश संसद ने भारत में व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और अन्य ब्रिटिश कंपनियों को व्यापार करने और कार्यालय खोलने की अनुमति दे दी.
औद्योगिक देश से कृषि देश बना भारत
ब्रिटेन के सदन ने 1813 में थॉमस मूनरो से पूछा, जिन्हें 1820 में मद्रास का गवर्नर बनाया गया था, कि औद्योगिक क्रांति के बावजूद ब्रिटेन के बने कपड़े भारत में क्यों नहीं बिक रहे, तो उन्होंने जवाब दिया कि भारतीय कपड़े कहीं अधिक गुणवत्ता वाले हैं.
लेकिन, फिर ब्रिटेन में बने कपड़ों को लोकप्रिय बनाने के लिए सदियों पुराने स्थानीय कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया गया और इस तरह ब्रिटेन का निर्यात जो 1815 में 25 लाख पाउंड था वह 1822 में बढ़कर 48 लाख पाउंड हो गया.
ढाका, जो कपड़ा निर्माण का प्रमुख केंद्र था, उसकी जनसंख्या डेढ़ लाख से घटकर बीस हज़ार हो गई. गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिक ने अपनी 1834 की रिपोर्ट में लिखा कि अर्थशास्त्र के इतिहास में ऐसी विकट परिस्थिति का कोई और उदाहरण नहीं मिल सकता. भारतीय बुनकरों की हड्डियों से भारत की धरती सफ़ेद हो गई है.
किसानों की आय पर 66 प्रतिशत कर लगा दिया गया जो मुग़ल काल में 40 प्रतिशत था. नमक सहित दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर भी कर लगाया गया. इससे नमक की खपत आधी हो गई. कम नमक का उपयोग करने के कारण ग़रीबों के स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा तथा हैज़ा और लू से होने वाली मौतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई.
ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निदेशक हेनरी जॉर्ज टकर ने 1823 में लिखा कि भारत को एक औद्योगिक देश की जगह एक कृषक देश में बदल दिया गया ताकि ब्रिटेन में निर्मित सामान भारत में बेचा जा सके.
1833 में, ब्रिटिश संसद द्वारा एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापार करने का अधिकार छीन लिया गया और इसे एक सरकारी निगम में बदल दिया गया.
1874 में भंग हुई ईस्ट इंडिया कंपनी
विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब ‘द अनार्की, द रिलेंटलेस राइज़ ऑफ़ द ईस्ट इंडिया कंपनी’ में लिखा है कि ये इतिहास का एक अनूठा उदाहरण है जिसमें अठारहवीं शताब्दी के मध्य में एक निजी कंपनी ने अपनी थल सेना और नौसेना की मदद से 20 करोड़ की आबादी वाले एक देश को ग़ुलाम बना दिया था.
कंपनी ने सड़कें बनाईं, पुल बनाए, सराय का निर्माण किया, रेल चलाई, मगर आलोचकों का कहना है कि इन परियोजनाओं ने जनता को परिवहन की सुविधाएँ तो दीं, लेकिन इसका असली उद्देश्य कपास, रेशम, अफ़ीम, चीनी और मसालों के व्यापार को बढ़ावा देना था.
साल 1835 के अधिनियम के अंतर्गत अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए धन आवंटित किया गया था. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम (कंपनी के अनुसार विद्रोह) के दौरान, कंपनी ने हज़ारों लोगों को बाज़ारों में और सड़कों पर लटकाकर मार डाला और बहुत से लोगों को कुचल डाला गया.
यह ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार था. स्वतंत्रता संग्राम के अगले वर्ष एक नवंबर को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने कंपनी के अधिकारों को समाप्त कर शासन की बागडोर सीधे तौर पर अपने हाथों में ले ली.
कंपनी की सेना का ब्रिटिश सेना में विलय कर दिया गया और कंपनी की नौसेना को भंग कर दिया गया. लॉर्ड मैकाले के अनुसार, कंपनी शुरू से ही व्यापार के साथ-साथ राजनीति में भी भागीदार थी, इसलिए कंपनी की आख़री साँसें 1874 तक चलती रही.
उसी वर्ष, ब्रितानी अख़बार द टाइम्स ने दो जनवरी के अंक में लिखा, “इसने मानव जाति के इतिहास में ऐसा काम किया है, जैसा किसी और कंपनी ने नहीं किया और आने वाले सालों में कोई ऐसा करे इसकी संभवना भी नहीं है.
भारत अब ब्रिटेन की महारानी के शासन के अधीन था.
अद्भुत, बदनाम, असाधारण, जीनियस और ग़ुस्सैल. डिएगो अरमांडो माराडोना. फ़ुटबॉल के एक ऐसे महानायक जिनमें कई ऐब भी थे.
फ़ुटबॉल के सबसे करिश्माई खिलाड़ियों में से एक, अर्जेंटीना के माराडोना के पास प्रतिभा, शोखी, नज़र और रफ़्तार का ऐसा भंडार था, जिससे वो अपने प्रशंसकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे.
उन्होंने अपने विवादित कदमों की वजह से अपने फ़ैंस को ग़ुस्सा भी दिलाया और नाराज़ भी किया.
माराडोना ने अपने विवादित ‘हैंड ऑफ़ गॉड’ गोल से सबको हैरत में डाला और मैदान के बाहर ड्रग्स और नशाखोरी जैसे मामलों में भी पड़े.
छोटे कद के माराडोना: फ़ुटबॉल के जीनियस
माराडोना का जन्म आज से 60 साल पहले अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स के झुग्गी-झोपड़ियों वाले एक कस्बे में हुआ था.
अपनी ग़रीबी से लड़ते हुए वो युवावस्था आने तक फ़ुटबॉल के सुपरस्टार बन चुके थे. कुछ लोग तो उन्हें ब्राज़ील के महान फ़ुटबॉलर पेले से भी शानदार खिलाड़ी मानते हैं.
माराडोना ने 491 मैचों में कुल 259 गोल दागे थे. इतना ही नहीं, एक सर्वेक्षण में उन्होंने पेले को पीछे छोड़ ’20वीं सदी के सबसे महान फ़ुटबॉलर’ होने का गौरव अपने नाम कर लिया था.
हालाँकि इसके बाद फ़ीफ़ा ने वोटिंग के नियम बदल दिए थे और दोनों खिलाड़ियों को सम्मानित किया गया था.
माराडोना विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं, यह उनके बचपन से ही नज़र आने लगा था. उन्होंने महज़ 16 साल की उम्र में अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल जगत में क़दम रख दिया था.
कद से छोटे और शरीर से मोटे, सिर्फ़ पाँच फ़ीट पाँच इंच लंबाई वाले माराडोना कोई सामान्य खिलाड़ी नहीं थे.
माराडोना के पास चतुराई, तेज़ी, चौकन्नी नज़र, फ़ुटबॉल को काबू में रखने की क्षमता और ड्रिब्लिंग जैसे गुण थे, जिन्होंने उनके ज़्यादा वज़न से कभी-कभार होने वाली दिक्कतों को ढँक लिया था.
‘हैंड ऑफ़ गॉड’ और ‘गोल ऑफ़ द सेंचुरी’
माराडोना ने अर्जेंटीना के लिए 91 मैच खेले, जिनमें उन्होंने कुल 34 गोल दागे. लेकिन ये उनके उतार-चढ़ाव भरे अंतरराष्ट्रीय करियर का एक हिस्सा भर ही है.
उन्होंने अपने देश को साल 1986 में मेक्सिको में आयोजित वर्ल्ड कप में जीत दिलाई और चार बार टूर्नामेंट के फ़ाइनल तक पहुँचाया.
1986 के वर्ल्ड कप के क्वार्टर फ़ाइनल में माराडोना ने कुछ ऐसा किया, जिसकी चर्चा हमेशा होती रहेगी.
मेक्सिको में क्वार्टर फ़ाइनल का यह मैच अर्जेंटीना और इंग्लैंड के बीच था. दोनों देशों के बीच यह मैच पहले से ही ज़्यादा तनावपूर्ण था क्योंकि इंग्लैंड और अर्जेंटीना के बीच सिर्फ़ चार साल पहले फ़ॉकलैंड्स युद्ध हुआ था.
22 जून 1986 को साँसें थमा देने वाले इस रोमांचक मैच के 51 मिनट बीत गए थे और दोनों टीमों में से कोई एक भी गोल नहीं कर पाया था.
इसी समय माराडोना विपक्षी टीम के गोलकीपर पीटर शिल्टन की तरफ़ उछले और उन्होंने अपने हाथ से फ़ुटबॉल को नेट में डाल दिया. हाथ का इस्तेमाल होने की वजह से यह गोल विवादों में आ गया.
फ़ुटबॉल के नियमों के अनुसार हाथ का इस्तेमाल होने के कारण यह गोल फ़ाउल था और इसके लिए माराडोना को ‘येलो कार्ड’ दिखाया जाना चाहिए था.
लेकिन उस समय वीडियो असिस्टेंस टेक्नॉलजी नहीं थी और रेफ़री इस गोल को ठीक से देख नहीं पाए. इसलिए इसे गोल माना गया और इसी के साथ अर्जेंटीना 1-0 से मैच में आगे हो गया.
मैच के बाद माराडोना ने कहा था कि उन्होंने यह गोल ‘थोड़ा सा अपने सिर और थोड़ा सा भगवान के हाथ से’ किया था. इसके बाद से फ़ुटबॉल के इतिहास में यह घटना हमेशा के लिए ‘हैंड ऑफ़ गॉड’ के नाम से दर्ज हो गई.
इसी मैच में इस विवादित गोल के ठीक चार मिनट बाद माराडोना ने कुछ ऐसा किया जिसे ‘गोल ऑफ़ द सेंचुरी’ यानी ‘सदी का गोल’ कहा गया.
वो फ़ुटबॉल को इंग्लैंड की टीम के पाँच खिलाड़ियों और आख़िरकार गोलकीपर शिल्टन से बचाते हुए ले गए और गोल पोस्ट के भीतर दे डाला.
इस गोल के बारे में बीबीसी के कमेंटेटर बैरी डेविस ने कहा था, “आपको मानना ही होगा कि ये शानदार था. इस गोल के बारे में कोई संदेह नहीं है. यह पूरी तरह से फ़ुटबॉल जीनियस है.”
इस मैच के बारे में माराडोना ने कहा था, “यह मैच जीतने से कहीं से ज़्यादा था. इसका मक़सद इंग्लैंड को वर्ल्ड कप से बाहर करना था.”
ड्रग्स और शराब में फँसा नेपोली का हीरो
माराडोना बार्सिलोना और नेपोली जैसे नामी फ़ुटबॉल क्लबों के लिए भी खेले और इन क्लबों के हीरो कहलाए. साल 1982 में वो तीन मिलियन पाउंड में स्पेन के फ़ुटबॉल क्लब बार्सिलोना और इसके दो साल बाद पाँच मिलियन पाउंड में इटली के क्लब नेपोली में शामिल हुए.
जब माराडोना हेलिकॉप्टर में सवार होकर इटली के सान पाओलो स्टेडियम पहुँचे तो वहां 80 हज़ार से ज़्यादा प्रशंसक अपने नए हीरो का स्वागत करने के लिए मौजूद थे.
उन्होंने अपने करियर का सबसे अच्छा क्लब फ़ुटबॉल इटली में ही खेला और वहाँ उन्हें अपने प्रशंसकों से ख़ूब प्रसिद्ध मिली.
इटली में माराडोना को इतनी शोहरत मिली को वो इससे तंग तक आ गए. एक बार उन्होंने कहा था, “यह एक बेहतरीन जगह है लेकिन मैं यहाँ मुश्किल से साँस ले पाता हूँ. मैं आज़ाद और बेफ़िक्र होकर इधर-उधर घूमना चाहता हूँ. मैं किसी आम इंसान की तरह ही हूँ.”
इस बीच उन्हें कोकीन की लत लग गई थी और उनका नाम इटली के कुख्यात माफ़िया संगठन कैमोरा से भी जुड़ गया था.
साल 1991 में माराडोना एक डोप टेस्ट में पॉज़िटिव पाए गए और अगले 15 महीनों के लिए उन्हें फ़ुटबॉल से प्रतिबंधित कर दिया गया.
इसके बाद साल 1994 में अमरीका में होने वाले फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप में माराडोना को प्रतिबंधित ड्रग एफ़ेड्रिन लिए पाया गया था. इसके बाद बीच टूर्नामेंट में ही उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
माराडोना टाइमलाइन
1977: अर्जेंटीना बनाम हंगरी- अंतरराष्ट्रीय फ़ुटबॉल में शुरूआत.
1982: बार्सिलोना में दो साल बिताने के बाद नेपोली में शामिल.
1986: अर्जेंटीना को वर्ल्ड कप जिताया.
1990: अर्जेंटीना को वर्ल्ड कप में रनर अप बनाया.
1991: ड्रग टेस्ट में पॉज़िटिव पाए जाने के बाद 15 महीने का प्रतिबंध.
1994: अमरीका में वर्ल्ड कप के दौरान डोप टेस्ट फ़ेल होने के बाद टूर्नामेंट से बाहर.
1997: तीसरे पॉज़िटिव टेस्ट के बाद प्रोफ़ेशनल फ़ुटबॉल से रिटायर हुए.
2010: दो साल तक अर्जेंटीना की टीम के मैनेजर. वर्ल्ड कप में अर्जेंटीना के क्वार्टर फ़ाइनल से बाहर होने के बाद पद से अलग हुए.
रिटायरमेंट के बाद ज़िंदगी
तीसरी बार पॉज़िटिव पाए जाने के बाद माराडोना ने अपने 37वें जन्मदिन पर प्रोफ़ेशनल फ़ुटबॉल से रिटायरमेंट ले लिया था. हालाँकि इसके बाद भी विवाद और मुश्किलें उनका पीछा करती रहीं.
माराडोना ने एक बार एक पत्रकार पर एयर राइफ़ल से गोली चलाई थी जिसके लिए उन्हें दो साल 10 महीने के लिए जेल की सज़ा सुनाई गई थी.
कोकीन और शराब की लत की वजह से उन्हें स्वास्थ्य से जुड़ी कई तकलीफ़ें हो गई थीं.
उनका वज़न भी काफ़ी बढ़ गया था और एक समय में 128 किलो तक पहुँच गया था. साल 2004 में माराडोना को दिल का दौरा पड़ा था जिसकी वजह से उन्हें आईसीयू में भर्ती होना पड़ा था.
मोटापा घटाने के लिए माराडोना की गैस्ट्रिक-बाइपास सर्जरी तक करानी पड़ी थी. इतना ही नहीं, ड्रग्स की लत से छुटकारा पाने के लिए भी मदद लेनी पड़ी थी.
इन सभी विवादों और परेशानियों के बावजूद साल 2008 में माराडोना को अर्जेंटीना की नेशनल टीम के मैनेजर के तौर पर नामित किया गया. उन्हें मैनेजर के तौर पर कई और भूमिकाएँ भी मिलीं, जिनके बारे में लोगों की राय बँटी रही और वो लगातार किसी न किसी वजह से सुर्खियों में बने रहे.
एक बार उनके कुत्ते ने उन्हें होठों पर काट लिया था जिसकी वजह से उन्हें सर्जरी करानी पड़ी.
माराडोना ने एक विवाहेतर संबंध से जन्मे अपने बेटे डिएगो अरमांडो जूनियर को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया था.
साल 2018 के फ़ुटबॉल वर्ल्ड कप में जब वो रूस में अर्जेंटीना और नाइजीरिया के बीच मैच देखने गए थे तब उनका एक फ़ोटो वायरल हो गया था. इस फ़ोटो से पता चला था कि माराडोना की जीवनशैली कितनी बिगड़ चुकी थी.
रूस में उन्होंने एक नाइजीरियाई फ़ैन के साथ डांस किया, मैच शुरू होने से पहले आसमान की ओर देखते हुए प्रार्थना की, मेसी के गोल पर बुरी तरह झूमकर सेलिब्रेट किया, मैच के दौरान ही सो गए और अर्जेंटीना के दूसरे गोल के बाद ‘डबल मिडिल फिंगर सल्यूट’ किया.
कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार माराडोना का ज़िंदगी के आख़िरी बरसों में अपनी जीवनशैली सुधारने के लिए माराडोना को इलाज कराना पड़ा था.
यानी माराडोना बेहतरीन, बदनाम, शर्मनाक और मनोरंजक…सब थे. असाधारण ज़िंदगी वाले डिएगो माराडोना.
28 साल की एक लड़की. मस्तमौला. इरादे पक्के. जो काम सामने आया, कर दिया. दौड़ने वाला घोड़ा सामने आया, दौड़ा लिया. चलने वाला घोड़ा आया, चला दिया. रानी ने बुलाया तो तन्मयता से काम कर दिया. जब मेकअप कर लिया तो खुद ही रानी लगने लगी. रानी के साथ लड़ाई पर गई. जब रानी घिर गई तो खुद ही रानी बन लड़ पड़ी. क्योंकि रानी उसकी सखी थी. ये दोस्ती की बात थी. साथ ही अपने राज्य के प्रति प्रेम की बात थी.
सबसे बड़ी बात थी अपने जौहर को दिखाने की. बचपन में कुल्हाड़ी से लकड़ी काटने गई थी. तेंदुआ आ गया सामने, उसे भी काट दिया. रानी को इस लड़की की ये अदा पसंद थी. वो रानी थी लक्ष्मीबाई और ये लड़की थी झलकारी बाई. जिसका नाम इतिहास के पन्नों में इतना नीचे दबा है कि खोजते-खोजते पन्ने फट जाते हैं. वक्त की मार थी, लोग-बाग राजा-रानियों से ऊपर किसी और की कहानी नहीं लिखते थे.
पर जो बात है, वो बात है. कहानी उड़ती रही. डेढ़ सौ साल बाद भी वो लड़की जिंदा है. भारत के बहुजन समाज की हीरोईन. सबको नायक-नायिकाओं की तलाश रहती है. बहुजन समाज को इससे वंचित रखा गया था. पर इस लड़की ने बहुत पहले ही साबित कर दिया था कि इरादे और ट्रेनिंग से इंसान कुछ भी कर सकता है. बाकी बातें तो फर्जी होती हैं. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने जब लोगों को जगाना चाहा तो इसी लड़की के नाम का सहारा लिया था. वरना एक वर्ग दूसरे वर्ग को यही बता रहा था कि बहुत सारे काम तो तुम कर ही नहीं सकते हो.
22 नवंबर 1830 को झांसी के एक कोली परिवार में पैदा हुई थी झलकारी. पिता सैनिक थे. तो पैदाइश से ही हथियारों के साथ उठना-बैठना रहा. पढ़ाई-लिखाई नहीं हुई. पर उस वक्त पढ़ता कौन था. राजा-रानी तक जिंदगी भर शिकार करते थे. उंगलियों पर जोड़ते थे. उस वक्त बहादुरी यही थी कि दुश्मन का सामना कैसे करें. चतुराई ये थी कि अपनी जान कैसे बचायें.
तो झलकारी के गांव में एक दफे डाकुओं ने हमला कर दिया. कहने वाले यही कहते हैं कि जितनी तेजी से हमला किया, उतनी तेजी से लौट भी गये. क्योंकि झलकारी के साथ मिलकर गांव वालों ने बड़ा इंतजाम कर रखा था. फिर झलकारी की शादी भी हो गई. एक सैनिक के साथ. एक बार पूजा के अवसर पर झलकारी रानी लक्ष्मीबाई को बधाई देने गई तो रानी को भक्क मार गया. झलकारी की शक्ल रानी से मिलती थी. और फिर उस दिन शुरू हो गया दोस्ती का सिलसिला.
1857 की लड़ाई में झांसी पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया. झांसी का किला अभेद्य था. पर रानी का एक सेनानायक गद्दार निकला. नतीजन अंग्रेज किले तक पहुंचने में कामयाब रहे. जब रानी घिर गईं, तो झलकारी ने कहा कि आप जाइए, मैं आपकी जगह लड़ती हूं. रानी निकल गईं और झलकारी उनके वेश में लड़ती रही. जनरल रोज ने पकड़ लिया झलकारी को. उन्हें लगा कि रानी पकड़ ली गई हैं. उनकी बात सुन झलकारी हंसने लगी. रोज ने कहा कि ये लड़की पागल है. पर ऐसे पागल लोग हो जाएं तो हिंदुस्तान में हमारा रहना मुश्किल हो जाएगा.
मैथिली शरण गुप्ता ने झलकारी बाई के बारे में लिखा है:
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झांसी की झलकारी थी.
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी.
झलकारी के अंत को लेकर बड़ा ही मतभेद है. कोई कहता है कि रोज ने झलकारी को छोड़ दिया था. पर अंग्रेज किसी क्रांतिकारी को छोड़ते तो ना थे. कोई कहता है कि तोप के मुंह पर बांध कर उड़ा दिया गया था. जो भी हुआ हो, झलकारी को अंग्रेजों ने याद रखा था. वहीं से कुछ जानकारी कहीं-कहीं आई. वृंदावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास झांसी की रानी में झलकारी बाई का जिक्र किया है. पर इतिहास में ज्यादा जिक्र नहीं मिलता है.
उसी दौरान एक और वीर लड़की हुई थी. उदा देवी. लखनऊ की बेगम हजरत महल के साथ रहने वाली. 1857 की लड़ाई के दौरान कैप्टेन वालेस एक जगह अपने साथियों के साथ रुका. पानी पीने के लिये. वहां ब्रिटिश सैनिकों की लाशें गिरी हुई थीं. उसने देखा कि सब पर ऊपर से गोली चलने के निशान हैं. तो उसने अपने साथियों को इशारा कर ऊपर पेड़ पर गोलियां चला दीं. एक लाश गिरी. यूनिफॉर्म पहने हुए. दो-दो बंदूकों के साथ. ये उदा देवी थीं. वालेस रो पड़ा. बोला कि मुझे मालूम होता कि ये औरत है तो मैं गोली ना चलाता. खैर, ये बात वालेस ने क्यों कहा समझ नहीं आया. क्योंकि दूसरे देश में आकर गोली चला रहे थे. इससे औरतों को कितनी तकलीफ थी. ये तो नहीं मालूम पड़ा. फर्जी बात करना अंग्रेज अफसरों का स्वभाव था. उदा की बहादुरी के सामने खुद का बड़प्पन जो दिखाना था. बसपा के गठन के समय ये लड़की भी समाज को एकजुट करने के काम आई.
भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एक सख्तमिजाज प्रशासक मानी जाती थीं. बहुत लोग उनके व्यक्तित्व और अंदाज के मुरीद थे. लेकिन क्या आप जानते हैं कि एक समय इंदिरा खुद को बदसूरत समझती थीं?
इंदिरा गांधी की करीबी दोस्त पुपुल जयकर ने इंदिरा के सहयोग से ही उनकी बायोग्राफी लिखी थी. इसके मुताबिक, 13 की उम्र में इंदिरा खुद को ‘बदसूरत’ मानती थीं.
दरअसल इंदिरा के बचपन के समय उनके घर का माहौल बहुत अच्छा नहीं था. पुपुल लिखती हैं, ‘6 साल की उम्र में ही इंदिरा ने मां की हताशा को महसूस करना शुरू कर दिया था. मां के बारे में बीबी अम्मा और बुआ विजयलक्ष्मी के ‘घटिया ताने’ को वह सुनतीं तो मां के पक्ष में बोल पड़ती. उसने दादी, परदादी, दादा और पिता तक से बहस की. बाद में वह समझ गई कि उसकी बातों का कोई असर नहीं होता है और उसके पिता उसकी बात अनुसनी कर देते हैं. ऐसे ही माहौल में इंदिरा ने अपनी भावनाओं को दबाए रखना और चुप रहना सीखा. वह समझ गईं कि मोतीलाल के घर की शांति दो लोगों ने भंग की गई हुई है- बुआ विजयलक्ष्मी और बीबी अम्मा.’
पुपुल आगे लिखती हैं,
‘इंदिरा के लिए ये दिन कष्टप्रद थे. सरूप (विजयलक्ष्मी) अकसर इंदिरा को ‘मूर्ख और बदसूरत’ कहतीं. इंदिरा ने इसे सुन लिया. इन संज्ञाओं ने 13 साल की बच्ची को बुरी तरह त्रस्त कर डाला था. इन टिप्पणियों का किसी ने विरोध नहीं किया, इसलिए इंदिरा खुद को बदसूरत ही समझने लगी. वह अपने आप में सिमट गई और आत्मविश्वास खो बैठी. एक चंचल शरारती बालिका रातों-रात संकोची बन गई.’
जैसे-जैसे इंदिरा बड़ी होती गईं, अकेले रहना उसे भाता गया. खादी के सफेद कुर्ते-पाजामे में पतली टांगों वाली इस लड़की के सिर पर गांधी टोपी रखी होती, थोड़ी झुकी हुई. वह बगीचे में चली जाती. पेड़ों पर चढ़ने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती.
पुपुल लिखती हैं कि इंदिरा ने जहरीले शब्दों के लिए बुआ को कभी माफ नहीं किया. इन शब्दों ने उसके यौवन को मार दिया. बाद के कुछ साल में, वे बड़े भावावेशों के साथ इन शब्दों का जिक्र करती रहीं. बल्कि मौत से एक पखवाड़े पहले तक भी वे शब्द उनके ज़ेहन में ताजा थे.
जब 1982 ख़त्म होते-होते पंजाब के हालात बेक़ाबू होने लगे तो रॉ के पूर्व प्रमुख रामनाथ काव ने भिंडरावाले को हेलीकॉप्टर ऑपरेशन के ज़रिए पहले चौक मेहता गुरुद्वारे और फिर बाद में स्वर्ण मंदिर से उठवा लेने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था.
इस बीच काव ने ब्रिटिश उच्चायोग में काम कर रहे ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंसी एमआई-6 के दो जासूसों से अकेले में मुलाक़ात की थी. रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमण ‘काव ब्वाएज़ ऑफ़ रॉ’ में लिखते हैं, “दिसंबर, 1983 में एमआई-6 के दो जासूसों ने स्वर्ण मंदिर का मुआयना किया था. इनमें से कम से कम एक वही शख़्स था जिससे काव ने मुलाक़ात की थी.”
इस मुआयने की असली वजह तब स्पष्ट हुई जब एक ब्रिटिश शोधकर्ता और पत्रकार फ़िल मिलर ने क्यू में ब्रिटिश आर्काइव्स से ब्रिटेन की कमाँडो फ़ोर्स एसएएस की श्रीलंका में भूमिका के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की. तभी उन्हें वहाँ कुछ पत्र मिले जिससे ये पता चलता था कि भारत के कमाँडो ऑपरेशन की योजना में ब्रिटेन की सहायता ली गई थी.
30 वर्षों के बाद इन पत्रों के डिक्लासिफ़ाई होने के बाद पता चला कि प्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर एमआई-6 के प्रमुख के ज़रिए काव के भेजे गए अनुरोध को मान गई थीं जिसके तहत ब्रिटेन की एलीट कमाँडो फ़ोर्स के एक अफ़सर को दिल्ली भेजा गया था.
ब्रिटिश सरकार की जाँच में आए तथ्य सामने
उस ब्रिटिश अफ़सर से भारत ने सलाह ली थी कि किस तरह स्वर्ण मंदिर से सिख चरमपंथियों को बाहर निकाला जाए.
फ़िल मिलर ने 13 जनवरी, 2014 को प्रकाशित ब्लॉग ‘रिवील्ड एसएएस एडवाइज़्ड अमृतसर रेड’ में इसकी जानकारी देते हुए इंदिरा गांधी की आलोचना की थी कि एक तरफ़ तो वो श्रीलंका में ब्रिटिश खुफ़िया एजेंसी के हस्तक्षेप के सख़्त ख़िलाफ़ थीं. वहीं, दूसरी ओर स्वर्ण मंदिर के ऑपरेशन में उन्हें उनकी मदद लेने से कोई गुरेज़ नहीं था.
ब्रिटिश संसद में बवाल होने पर जनवरी 2014 में प्रधानमंत्री कैमरन ने इसकी जाँच के आदेश दिए थे. जाँच के बाद ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलियम हेग ने स्वीकार किया था के एक एसएएस अधिकारी ने 8 फ़रवरी से 14 फ़रवरी 1984 के बीच भारत की यात्रा की थी और भारत की स्पेशल फ़्रंटियर फ़ोर्स के कुछ अधिकारियों के साथ स्वर्ण मंदिर का दौरा भी किया था.
तब बीबीसी ने ही ये समाचार देते हुए कहा था कि ‘ब्रिटिश ख़ुफ़िया अधिकारी की सलाह थी कि सैनिक ऑपरेशन को आख़िरी विकल्प के तौर पर ही रखा जाए. उसकी ये भी सलाह थी कि चरमपंथियों को बाहर लाने के लिए हेलीकॉप्टर से बलों को मंदिर परिसर में भेजा जाए ताकि कम से कम लोग हताहत हों.’
अग़वा करने में होना था हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल
ब्रिटिश संसद में इस विषय पर हुई चर्चा का संज्ञान लेते हुए इंडिया टुडे के वरिष्ठ पत्रकार संदीप उन्नीथन ने पत्रिका के 31 जनवरी, 2014 के अंक में ‘स्नैच एंड ग्रैब’ शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने बताया था कि इस ख़ुफ़िया ऑपरेशन को ‘ऑपरेशन सनडाउन’ का नाम दिया गया था.
इस लेख में लिखा था, “योजना थी कि भिंडरावाले को उनके गुरु नानक निवास ठिकाने से पकड़ कर हेलीकॉप्टर के ज़रिए बाहर ले जाया जाता. इस योजना को इंदिरा गाँधी के वरिष्ठ सलाहकार रामनाथ काव की उपस्थिति में उनके 1 अकबर रोड निवास पर उनके सामने रखा गया था. लेकिन, इंदिरा गाँधी ने इस प्लान को ये कहकर अस्वीकार कर दिया था कि इसमें कई लोग मारे जा सकते हैं.”
ये पहला मौक़ा नहीं था जब भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने भिंडरावाले को उनके ठिकाने से पकड़ने की योजना बनाई थी. काव उस समय से भिंडरावाले को पकड़वाने की योजना बना रहे थे जब वो चौक मेहता में रहा करते थे और बाद में 19 जुलाई, 1982 को गुरु नानक निवास में शिफ़्ट हो गए थे.
काव ने नागरानी को भिंडरावाले को पकड़वाने की ज़िम्मेदारी सौंपी
रॉ में विशेष सचिव के पद पर काम कर चुके और पूर्व विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह के दामाद जी.बी.एस सिद्धू की एक किताब ‘द ख़ालिस्तान कॉन्सपिरेसी’ हाल ही में प्रकाशित हुई है जिसमें उन्होंने भिंडरावाले को पकड़वाने की उस योजना पर और रोशनी डाली है.
उस ज़माने में 1951 बैच के आँध्र प्रदेश काडर के राम टेकचंद नागरानी डीजीएस यानि डायरेक्टर जनरल सिक्योरिटी हुआ करते थे. रॉ की एक कमाँडो यूनिट होती थी एसएफ़एफ़ जिसमें सेना, सीमा सुरक्षा बल और केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल से लिए गए 150 चुनिंदा जवान हुआ करते थे. इस यूनिट के पास अपने दो एमआई हैलिकॉप्टर थे. इसके अलावा वो ज़रूरत पड़ने पर एविएशन रिसर्च सेंटर के विमानों का भी इस्तेमाल कर सकते थे.
1928 में जन्में राम नागरानी अभी भी दिल्ली में रहते हैं. ख़राब स्वास्थ्य के कारण अब वो बात करने की स्थिति में नहीं हैं. सिद्धू ने दो वर्ष पूर्व अपनी किताब के सिलसिले में उनसे कई बार बात की थी.
जीबीएस सिद्धू बताते हैं, ”नागरानी ने मुझे बताया था कि दिसंबर, 1983 के अंत में काव ने मुझे अपने दफ़्तर में बुला कर भिंडरावाले का अपहरण करने के लिए एसएफ़एफ़ के हेलीकॉप्टर ऑपरेशन की ज़िम्मेदारी सौंपी थी. भिंडरावाले का ये अपहरण स्वर्ण मंदिर की लंगर की छत से किया जाना था जहाँ वो रोज़ शाम को अपना संदेश दिया करते थे. इसके लिए दो एमआई हेलीकॉप्टरों और कुछ बुलेटप्रूफ़ वाहनों की व्यवस्था की जानी थी ताकि भिंडरावाले को वहाँ से निकाल कर बगल की सड़क तक पहुंचाया जा सके. इसके लिए नागरानी ने सीआरपीएफ़ जवानों द्वारा क्षेत्र में तीन पर्तों का घेरा बनाने की योजना बनाई थी.”
स्वर्ण मंदिर के अंदर जासूसी
सिद्धू आगे बताते हैं, ”ऑपरेशन की योजना बनाने से पहले नागरानी ने एसएफ़एफ़ के एक कर्मचारी को स्वर्ण मंदिर के अंदर भेजा था. उसने वहाँ कुछ दिन रह कर उस इलाक़े का विस्तृत नक्शा बनाया था. इस नक्शे में मंदिर परिसर में अंदर घुसने और बाहर निकलने की सबसे अच्छी जगहें चिन्हित की गईं थीं. उसे भिंडरावाले और उनके साथियों की अकाल तख़्त पर उनके निवास से लेकर लंगर की छत तक सभी गतिविधियों पर भी नज़र रखने के लिए कहा गया था.”
”इस शख़्स से ये भी कहा गया था कि वो हेलीकॉप्टर कमांडोज़ द्वारा भिंडरावाले का अपहरण करने के सही समय के बारे में भी सलाह दे. तीन या चार दिन में ये सभी सूचनाएं जमा कर ली गई थीं. इसके बाद स्वर्ण मंदिर परिसर के लंगर इलाक़े और बच निकलने के रास्तों का एक मॉडल सहारनपुर के निकट सरसवा में तैयार किया गया था.”
रस्सों के ज़रिए उतारे जाने थे कमाँडो
नागरानी ने सिद्धू को बताया था कि हेलीकॉप्टर ऑपरेशन से तुरंत पहले सशस्त्र सीआरपीएफ़ के जवानों द्वारा मंदिर परिसर के बाहर एक घेरा बनाया जाना था ताकि ऑपरेशन की समाप्ति तक आम लोग परिसर के अंदर या बाहर न जा सकें.
एसएफ़एफ़ कमाँडोज़ के दो दलों को बहुत नीचे उड़ते हुए हेलीकॉप्टरों से रस्सों के ज़रिए उस स्थान पर उतारा जाना था जहाँ भिंडरावाले अपना भाषण दिया करते थे. इसके लिए वो समय चुना गया था जब भिंडरावाले अपने भाषण का अंत कर रहे हों क्योंकि उस समय भिंडरावाले के आसपास सुरक्षा व्यवस्था थोड़ी ढीली पड़ जाती थी.
योजना थी कि कुछ कमाँडो भिंडरावाले को पकड़ने के लिए दौड़ेंगे और कुछ उनके सुरक्षा गार्डों को काबू में करेंगे. ऐसा अनुमान लगाया गया था कि भिंडरावाले के गार्ड कमाँडोज़ को देखते ही गोलियाँ चलाने लगेंगे. ये भी अनुमान लगा लिया गया था कि संभवत: कमाँडोज़ के नीचे उतरने से पहले ही गोलियाँ चलनी शुरू हो जाएं.
इस संभावना से निपटने के लिए एसएफ़एफ़ कमाँडोज़ को दो दलों में बाँटा जाना था. एक दल स्वर्ण मंदिर परिसर में ऐसी जगह रहता जहाँ से वो भिंडरावाले के गर्भ गृह में भाग जाने के रास्ते को बंद कर देता और दूसरा दल लंगर परिसर और गुरु नानक निवास के बीच की सड़क पर बुलेटप्रूफ़ वाहनों के साथ तैयार रहता ताकि कमाँडोज़ द्वारा पकड़े गए भिंडरावाले को अपने क़ब्ज़े में लेकर पूर्व निर्धारित जगह पर पहुंचाया जा सके.
हेलीकॉप्टर के अंदर और ज़मीन पर मौजूद सभी कमाँडोज़ को ख़ास निर्देश थे कि भिंडरावाले को किसी भी हालत में हरमंदिर साहब के गर्भ गृह में शरण लेने न दी जाए क्योंकि अगर वो वहाँ पहुंच गए तो भवन को नुक़सान पहुंचाए बिना भिंडरावाले को क़ब्ज़े में लेना असंभव होगा.
नागरानी के अनुसार स्वर्ण मंदिर के मॉडल को मार्च 1984 में एसएफ़एफ़ कमांडोज़ के साथ दिल्ली शिफ़्ट कर दिया गया था ताकि सीआरपीएफ़ के साथ उनका बेहतर सामंजस्य बैठाया जा सके. तब तक ये तय था कि इस ऑपरेशन में सिर्फ़ एसएफ़एफ़ के जवान ही भाग लेंगे. सेना द्वारा बाद में किए गए ऑपरेशन ब्लूस्टार की तो योजना तक नहीं बनी थी.
काव और नागरानी ने इंदिरा गांधी को योजना समझाई
अप्रैल, 1984 में काव ने नागरानी से कहा कि इंदिरा गाँधी इस हेलीकॉप्टर ऑपरेशन के बारे में पूरी ब्रीफ़िंग चाहती हैं. नागरानी शुरू में इंदिरा गाँधी को ब्रीफ़ करने में हिचक रहे थे. उन्होंने काव से ही ये काम करने के लिए कहा क्योंकि काव को इस योजना के एक-एक पक्ष की जानकारी थी. बाद में काव के ज़ोर देने पर नागरानी काव की उपस्थिति में इंदिरा गाँधी को ब्रीफ़ करने के लिए तैयार हो गए.
उस ब्रीफ़िंग का ब्योरा देते हुए नागरानी ने जीबीएस सिद्धू को बताया था, “सब कुछ सुन लेने के बाद इंदिरा गाँधी ने पहला सवाल पूछा कि इस ऑपरेशन में कितने लोगों के हताहत होने की संभावना है? मेरा जवाब था कि हो सकता है कि हम अपने दोनों हेलीकॉप्टर खो दें. कुल भेजे गए कमाँडोज़ में से 20 फ़ीसदी के मारे जाने की संभावना है.
इंदिरा ने ऑपरेशन को मंज़ूरी नहीं दी
नागरानी ने सिद्धू को बताया कि इंदिरा गाँधी का अगला सवाल था कि इस अभियान में कितने आम लोगों की जान जा सकती है. मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था. ये ऑपरेशन बैसाखी के आसपास 13 अप्रैल को किया जाना था. मेरे लिए ये अनुमान लगाना मुश्किल था कि उस दिन स्वर्ण मंदिर में कितने लोग मौजूद रहेंगे. आख़िर में मुझे ये कहना पड़ा कि इस ऑपरेशन के दौरान हमारे सामने आए आम लोगों में 20 फ़ीसदी हताहत हो सकते हैं.
इंदिरा गाँधी ने कुछ सेकेंड सोच कर कहा कि वो इतनी अधिक तादाद में आम लोगों के मारे जाने का जोख़िम नहीं ले सकतीं. ‘ऑपरेशन सनडाउन’ को उसी समय तिलाँजलि दे दी गई.
‘ऑपरेशन सनडाउन’ को इस आधार पर अस्वीकार करने के बाद कि इसमें बहुत से लोग मारे जाएंगे, सरकार ने सिर्फ़ तीन महीने बाद ही ऑपरेशन ब्लूस्टार को अंजाम दिया जिसमें कहीं ज़्यादा सैनिकों और आमलोगों की जान गई और इंदिरा गाँधी को इसकी बहुत बड़ी राजनीतिक क़ीमत चुकानी पड़ी.
आदि काव्य रामायण के रचयिता ज्ञानी महर्षि वाल्मीकि का जन्मदिवस देशभर में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार वैदिक काल के महान ऋषि वाल्मीकि पहले डाकू थे. लेकिन जीवन की एक घटना ने उन्हें बदलकर रख दिया. वाल्मीकि असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे शायद इसी वजह से लोग आज भी उनके जन्मदिवस पर कई विशेष कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं.
कब है वाल्मीकि जयंती?
महर्षि वाल्मीकि का जन्म अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा यानी कि शरद पूर्णिमा को हुआ था. वाल्मीकि जयंती इस वर्ष शनिवार, 31 अक्टूबर 2020 को मनाई जाएगी.
वाल्मीकि जयंती का शुभ मुहूर्त
30 अक्टूबर शाम 5 बजकर 47 मिनट से 31 अक्टूबर को रात 8 बजकर 21 मिनट तक
कौन थे महर्षि वाल्मीकि?
कहते हैं कि वाल्मीकि का जन्म महर्षि कश्यप और अदिति की 9वीं संतान वरुण और पत्नी चर्षणी के घर हुआ था. बचपन में भील समुदाय के लोग उन्हें चुराकर ले गए थे और उनकी परवरिश भील समाज में ही हुई. वाल्मीकि से पहले उनका नाम रत्नाकर हुआ करता था. रत्नाकर जंगल से गुजरने वाले लोगों से लूट-पाट करता था.
एक बार जंगल से जब नारद मुनि गुजर रहे थे तो रत्नाकर ने उन्हें भी बंदी बना लिया. तभी नारद ने उनसे पूछा कि ये सब पाप तुम क्यों करते हो? इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया, ‘मैं ये सब अपने परिवार के लिए करता हूं’. नारद हैरान हुए और उन्होंने फिर उससे पूछा क्या तुम्हारा परिवार तुम्हारे पापों का फल भोगने को तैयार है. रत्नाकर ने निसंकोच हां में जवाब दिया.
तभी नारद मुनि ने कहा इतनी जल्दी जवाब देने से पहले एक बार परिवार के सदस्यों से पूछ तो लो. रत्नाकर घर लौटा और उसने परिवार के सभी सदस्यों से पूछा कि क्या कोई उसके पापों का फल भोगने को आगे आ सकता है? सभी ने इनकार कर दिया. इस घटना के बाद रत्नाकर काफी दुखी हुआ और उसने सभी गलत काम छोड़ने का फैसला कर लिया. आगे चलकर रत्नाकर ही महर्षि वाल्मीकि कहलाए.
नाम विजय मर्चेंट, पूरा नाम विजय माधवजी मर्चेंट. आजादी के पहले का सबसे बेहतरीन बल्लेबाज. एकदम सलीके का खेल खेलने वाला. आराम से एक पांव निकालकर ड्राइव करने वाला. लेट कट और प्यारे हुक्स का महारथी. जिसने उसका एक अलग स्टाइल बनाया. दूसरों से एकदम अलहदा. विजय मर्चेंट जिसे अपने वक्त में डॉन ब्रैडमैन और कॉम्पटन जैसे खिलाड़ियों में गिना जाता था. जिनका बर्थडे होता है 12 अक्टूबर को और बरसी होती है 27 अक्टूबर को. पढ़िए उनके ये किस्से, जो बताते हैं कि उनका करियर कितना शानदार रहा है.
विजय मर्चेंट मुंबई के क्रिकेटर थे. भरे-पूरे परिवार के थे. घर वाले व्यापारी थे. उनकी फैक्ट्रियां भी थीं. ये बात जरूर है कि विजय मर्चेंट को खेलने को ज्यादा मैच नहीं मिले. मर्चेंट अपने इंटरनेशनल करियर में बस 10 मैच ही खेल पाए. उसमें भी बस 18 ओवर. पर उनकी डोमेस्टिक क्रिकेट की बैटिंग शानदार है. और उन्होंने जम के डोमेस्टिक क्रिकेट खेला भी.
विजय मर्चेंट का नाम विजय ठाकरसे हुआ करता था. एक बार उनकी इंग्लिश टीचर ने उनसे उनके नाम और पापा के प्रोफेशन के बारे में पूछा. विजय ने अपना नाम बताया. फिर पापा का प्रोफेशन ‘मर्चेंट’ बताया. पर टीचर नाम और प्रोफेशन में कंफ्यूज कर गई और विजय का नाम विजय ठाकरसे से विजय मर्चेंट हो गया.
मर्चेंट का फर्स्ट क्लास क्रिकेट में एवरेज 71.64 का है. इससे आगे आज तक बस डॉन ब्रैडमैन ही रहे हैं. पर मर्चेंट इतना बेहतरीन खेल रहे थे तो उन्हें खेलने का मौका क्यों नहीं मिला? ये एक वाजिब और बहुत ही जरूरी सवाल है. इसकी वजह थी सेकेंड वर्ल्ड वॉर. जिसके चलते मर्चेंट के कई साल बर्बाद हुए. फर्स्ट क्लास क्रिकेट के 6 सीजन ही मर्चेंट ने खेले. जिसमें से पांच में उनका एवरेज 114, 123, 223, 285 और 117 रहा. मर्चेंट को बचपन से ही बड़े-बड़े स्कोर करने का शौक था.
रणजी में भी मर्चेंट ने 47 इनिंग्स खेलीं और 3639 रन बनाए. दिल थाम के बैठिए दोस्तों. ऐवरेज अविश्वसनीय रूप से 98.75 था.
विजय मर्चेंट को पहला इंटरनेशनल खेलने का मौका मिला था इंग्लैंड के खिलाफ. इंग्लैंड की टीम पहली बार इंडिया आई थी सीरिज खेलने के लिए.
विजय एक देशभक्त भारतीय थे. उन्होंने पहला टेस्ट खेला, जो कि उद्घाटन मैच था. पर उन्होंने इंग्लैंड के खिलाफ एक सीरिज में खेलने से मना कर दिया था क्योंकि महात्मा गांधी और कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था. चार साल बाद वो इंग्लैंड टूर पर जाने को तब तैयार हुए जब सारे नेशनल लीडर जेल से बाहर आ गए थे. इसलिए उनका टेस्ट डेब्यू 1933 में इंग्लैंड टूर पर हो पाया.
अंग्रेज खिलाड़ी विजय मर्चेंट के खेल से बहुत इंप्रेस हुए थे. एक इंग्लिश खिलाड़ी सीबी फ्रे ने कहा था, चलो इसको सफेद रंग से रंग देते हैं और इसे अपने साथ ऑस्ट्रेलिया ओपनर बनाकर ले चलते हैं. आप इससे समझ सकते हैं कि वो बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बोल रहे थे क्योंकि विजय ने अपने दो इंग्लैंड टूर पर मिडिल ऑर्डर में खेलते हुए 800 रन जड़ दिए थे.
एक दफे अपनी खराब हेल्थ के चलते मर्चेंट ने अपना ऑस्ट्रेलिया टूर कैंसिल कर दिया था. जिसके बाद ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी बड़े निराश हो गए थे. डॉन ब्रैडमैन ने इसके बाद कहा था: बहुत बुरा. हमें विजय मर्चेंट की झलक भी देखने को नहीं मिली. जिसे पक्का सारे इंडियन खिलाड़ियों में सबसे महान माना जाता है.
अपने करियर के टॉप पर होने के बावजूद भी विजय सेकेंड वर्ल्ड वॉर के चलते दस साल तक इंटरनेशनल टेस्ट क्रिकेट नहीं खेल सके. वो भी उस वक्त जब वो अपने करियर के टॉप पर थे.
दिल्ली के कोटला में अपने आखिरी क्रिकेट मैच के दौरान 154 रन बनाए थे. ये भारत की ओर से सबसे ज्यादा उम्र में सेंचुरी मारने वाले खिलाड़ी बन गए. इसी सीरीज़ में उनके कंधे में चोट आई जिसके चलते उनका करियर खत्म हो गया.
1936 के इंग्लैंड टूर में इन्होंने 51 की औसत से 1475 रन बनाए और इसके चलते उनको 1937 का विजडन क्रिकेटर ऑफ द इयर भी चुना गया था.
बांबे (अब मुंबई) में एक पेंटागुलर टूर्नामेंट हुआ करता था. इसमें मर्चेंट ने 250 रन नॉटआउट बनाकर सीरिज में हजारे का चला आ रहा रिकॉर्ड तोड़ दिया.
हजारे ने भी अगली ही इनिंग्स में 309 रन बनाकर फिर से रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया. पर मर्चेंट भी कम नहीं थे और रणजी में महाराष्ट्र के अगेंस्ट खेलते हुए 359 रन बनाकर फिर से रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया. इन दोनों का ही 30 के दशक से लेकर 50 के दशक तक भारतीय क्रिकेट पर दबदबा रहा. और इसको हमेशा लोगों ने बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था. पर इससे विजय हजारे और विजय मर्चेंट के आपसी रिश्तों पर कोई असर नहीं पड़ा.
विजय मर्चेंट के साथ विजय हजारे और विजय मांजरेकर ने फेमस विजय डायनेस्टी नाम के एक इंडियन क्रिकेट के जुमले की शुरुआत की जिसका 30 के दशक से 60 के दशक तक भारतीय क्रिकेट पर दबदबा रहा.
बाद में सेलेक्टर भी रहे. 1960 में चीफ सेलेक्टर रहे. वही सुनील गावस्कर, एकनाथ सोलकर और गुंडप्पा विश्वनाथ जैसे टैलेंट को क्रिकेट में लाने वाले के रूप में जाने जाते हैं. विविध भारती पर उनका एक शो क्रिकेट विद विजय मर्चेंट भी आया करता था.
27 अक्टूबर, 1987 में विजय मर्चेंट की 76 की उम्र में हार्ट अटैक से मौत हो गई.