“हमारे गाँव में पानी की इतनी किल्लत है कि लड़कियाँ जब पाँच, छह साल की होती हैं, तब से वो छोटे-छोटे बर्तन उठाकर पानी भरने में लग जाती हैं. मैंने ख़ुद भी आठ साल की उम्र से पानी भरना शुरू कर दिया था…”
ये शब्द 19 साल की बबीता के हैं, जिन्होंने अपने गाँव अगरौठा की सैकड़ों महिलाओं के साथ मिलकर एक पहाड़ को काटकर पानी के लिए 107 मीटर लंबा रास्ता तैयार किया है.
मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के अगरौठा गाँव में जलसंकट इतना गंभीर है कि गर्मियों में 2000 लोगों की आबादी वाले इस गाँव को दो या तीन हैंडपंप के सहारे ही रहना पड़ता है.
बबीता बताती हैं, “हमारे गाँव में पानी की इतनी परेशानी है कि कभी आप आएँ तो देख सकते हैं कि नलों पर घंटों खड़े रहने के बाद पानी मिलता है. कम पानी की वजह से खेती नहीं हो पाती है. पशुओं के लिए भी पानी चाहिए. नलों पर आलम ये होता है कि कई बार स्थितियाँ गाली-गलौच से बढ़कर हाथा-पाई तक पहुँच जाती हैं.”
मुश्किलें
लेकिन ये कहानी बस पानी की नहीं है. ये कहानी इन महिलाओं की मुश्किलों पर जीत की दास्तां है.
जल संकट से जूझ रहे भारत के तमाम दूसरे गाँवों की तरह अगरौठा में भी पानी की वजह से महिलाओं को घरेलू हिंसा का सामना करना पड़ता है. इसके साथ ही लड़कियों की कम उम्र में शादी और स्कूल छोड़ने में भी जल संकट की भूमिका मानी जाती है.
बबीता कहती हैं, “हमारे यहाँ सुबह चार बजे नल पर लाइन लगानी पड़ती है और इसके बाद दोपहर 12 बजे तक नल पर रहना पड़ता है. इसके बाद घर पर आकर खाना-पीना और फिर शाम को एक बार फिर पानी लाने की कोशिशों में लग जाना. कई बार महिलाओं को उनकी सास या पतियों की ओर से प्रताड़ना का भी सामना करना पड़ता है. क्योंकि महिलाएँ जब पानी भरने जाती हैं, तो नल पर उनकी दूसरी महिलाओं से लड़ाई झगड़े हो जाते हैं. इस वजह से उन्हें अपने घर पर कई सवालों का सामना करना पड़ता है.”
तो बबीता समेत इस गाँव की अन्य महिलाओं ने पहाड़ काटकर पानी निकालने का फ़ैसला कैसे किया.
कैसे लिया पहाड़ काटने का फ़ैसला

बबीता बताती है, “ये सब कुछ इतना आसान भी नहीं था. हम सब सोचते थे कि अगर पानी आ जाए, तो काम बन जाए, लेकिन जब जल जोड़ो अभियान वाले हमारे घर आए और उन्होंने समझाया कि ये इस तरह हो सकता है, तो लगा कि किया जा सकता है. थोड़ी बहुत दिक़्क़्तें हुईं, लेकिन आख़िर में सब साथ आ गए और काम हो गया.”
इस गाँव की रंगत बदलने में स्थानीय महिलाओं के साथ साथ उन प्रवासी मज़दूरों का भी योगदान है, जो कई-कई दिनों की पैदल यात्रा करके गाँव पहुँचे थे.
जल जोड़ो अभियान के संयोजक मानवेंद्र सिंह बताते हैं कि इस काम में उन लोगों ने भी अपनी भूमिका अदा की है, जो चार-पाँच दिनों की पैदल यात्रा करके अपने गाँव पहुँचे थे.
छतरपुर ज़िले के मुख्य कार्यपालक अधिकारी अजय सिंह बताते हैं, “कोरोना लॉकडाउन के बाद अप्रैल और मई महीने में महिलाओं ने जल जोड़ो अभियान के संयोजक मानवेंद्र के साथ जुड़कर पहाड़ काटा और अपने गाँव तक पानी पहुँचाने का काम किया है. हमने इन लोगों को नरेगा के अंतर्गत भुगतान करने का सोचा था, लेकिन इन लोगों ने अपने स्तर पर ही ये कार्य कर लिया. इसके लिए उन्हें हमारी ओर से शुभकामनाएँ हैं.”
कितना मुश्किल था ये काम?

अगरौठा गाँव की पृष्ठभूमि देखें, तो यहाँ का ज़्यादातर हिस्सा पठारी क्षेत्र है. यहाँ लगभग 100 फ़ीट की गहराई पर पानी मिलता है.
लेकिन यहाँ ये बात ध्यान देने वाली है कि इस क्षेत्र में कुएँ खोदना मैदानी भागों की अपेक्षा मुश्किल होता है.
इस क्षेत्र में पलायन, सूखे और गंभीर जल संकट को देखते हुए यूपीए सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में मध्य प्रदेश सरकार को 3600 करोड़ रुपए का पैकेज दिया था.
इस पैकेज के तहत जल संरक्षण से जुड़ी तमाम योजनाओं को पूरा किया जाना था.
मानवेंद्र कहते हैं, “बुंदेलखंड पैकेज के तहत इस गाँव में 40 एकड़ का एक तालाब बनाया गया था, जो जंगल क्षेत्र से जुड़ा हुआ था. लेकिन इस तालाब में पानी आने का कोई रास्ता नहीं था. जबकि जंगल क्षेत्र के एक बड़े भूभाग का पानी बछेड़ी नदी से होकर निकल जाता था. अब सवाल ये था कि जंगल का पानी किसी तरह इस तालाब तक आ जाए. लेकिन ये इतना आसान नहीं था.”
“काफ़ी समय तक विचार विमर्श के बाद ये तय किया गया कि फ़िलहाल ऐसा किया जाए कि अभी जितना पानी पहाड़ पर आता है, उसे ही कम से कम तालाब तक लेकर आया जाए और फिर लोगों ने ख़ुद अपने स्तर पर तालाब तक पानी लाने का ज़िम्मा उठाया और ये कर दिखाया.”
बीते दिनों जब इस क्षेत्र में बारिश हुई तो अगरौठा का तालाब पानी से भर गया और लोगों को फ़िलहाल जलसंकट से राहत मिली है.
लेकिन इस काम से बबीता की ज़िंदगी में एक अहम बदलाव आया है.
वह कहती हैं, “अब गाँव में लोग उन्हें सम्मान देने लगे हैं, लोग बबीता जी कहकर बुलाते हैं और कहते हैं कि आपने बहुत अच्छा काम किया है. ये सुनकर बहुत अच्छी फ़ीलिंग आती है कि हाँ, हमने भी कुछ अच्छा काम किया है. लेकिन सच कहें तो हमें कभी भरोसा नहीं था कि ऐसा हो पाएगा.”
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