1991 में संजय दत्त, पूजा भट्ट और सदाशिव अमरापुरकर को लीड रोल्स में लेकर एक फिल्म बनी थी. महेश भट्ट डायरेक्टेड इस फिल्म का नाम था ‘सड़क’. इस फिल्म की रिलीज़ के 29 साल बाद इसका सीक्वल आया है. ‘सड़क 2’ को किसी फिल्म के सीक्वल की बजाय स्टैंड अलोन फिल्म के तौर पर देखा जाना चाहिए. क्योंकि फिल्म में संजय दत्त के अलावा कोई पुराना कैरेक्टर नज़र नहीं आता. ना ही पिछली फिल्म का कोई हिस्सा या थॉट आपको इस फिल्म में देखने को मिलता है. मगर कहने को ये फिल्म अपनी 29 साल पुरानी कहानी को ही आगे बढ़ा रही है.
इस फिल्म की कहानी शुरू होती है रवि के सुसाइडल रवैए के साथ. अपनी पत्नी पूजा की मौत के बाद उसका जीवन से मन उठ गया है. वो मरकर पूजा के पास पहुंचना चाहता है. ठीक इसी समय में उसकी लाइफ और गैरेज में एंट्री मारती है आर्या. आर्या फर्जी बाबाओं के खिलाफ काम कर रही है. इसलिए एक बाबा उसकी जान के पीछे पड़ा है. आर्या ने तीन महीने पहले कैलाश जाने के लिए रवि की टैक्सी अडवांस में बुक की थी. अब जब कैलाश जाने का समय आया, तो रवि अपनी टैक्सी सर्विस बंद कर चुका है. जैसे-तैसे रवि, आर्या और उसके बॉयफ्रेंड विशाल को कैलाश ले जाने को तैयार हो जाता है. मगर बाबा के लोग रास्ते में कई बार आर्या पर अटैक करते हैं. ये सब देखकर रवि के भीतर का पिता जाग जाता है और वो आर्या को इन सब लोगों से बचाकर सुरक्षित कैलाश पहुंचाना चाहता है. लेकिन ये कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है. इस फिल्म के रास्ते में भी कई टर्न एंड ट्विस्ट आते हैं, मगर वो इसे कहीं पहुंचने नहीं देते.
‘सड़क 2’ बड़ी विचित्र फिल्म है. इसमें संजय दत्त ने रवि, आलिया ने आर्या, आदित्य रॉय कपूर ने विशाल और मकरंद देशपांडे ने फर्जी बाबा का रोल किया है. साथ में जिशू सेनगुप्ता और गुलशन ग्रोवर जैसे एक्टर्स भी हैं. अगर आदित्य को छोड़ दें, तो जिसे भी मौका मिला है, सभी एक्टर्स ने बढ़िया काम किया है. खासकर जिशू सेनगुप्ता ने. लेकिन दिक्कत ये है कि फिल्म में कोई भी कैरेक्टर ढंग से गढ़ा हुआ नहीं है. मुख्य किरदारों को बैकस्टोरी के तौर पर मानसिक विकार दे दिया गया है. किसी की फैमिली उसे पागल साबित करना चाहती है, तो कोई अपनी गुज़र चुकी प्रेमिका से बात करता है. कोई भी, कभी भी, कहीं से भी आ रहा है और कहानी का हिस्सा बनने की कोशिश करने लग रहा है. इससे पहले कि आप उस किरदार को गंभीरता से लें वो गायब हो चुका होता है या पीछे छूट चुका होता है. थोड़े समय में इतने सारे कैरेक्टर्स आ जाते हैं कि आप फिल्म में इंट्रेस्ट खो देते हैं. क्योंकि ये धागे जुड़कर भी कहानी को बांध नहीं पाते. भयानक तरीके का बिखराव और अनमनापन है.
फिल्म की सबसे बड़ी समस्या है इसका टाइम मैनेजमेंट. जब रवि, आर्या और विशाल की कैलाश यात्रा शुरू होती है, तब तक फिल्म के 48 मिनट निकल चुके होते हैं. और आप अब भी प्रॉपर तरीके से फिल्म के शुरू होने का इंतज़ार ही कर रहे हैं. इसलिए फिल्म में आगे जो भी घटता है, वो फास्ट फॉरवर्ड मोड में होता है और उसे कोई कनेक्शन नहीं बन पाता. इस झोल में फिल्म की बुरी एडिटिंग का सबसे बड़ा हाथा लगता है. अगर आप ये समझने की कोशिश करें कि फिल्म क्या कहना चाहती है? तो आपको दो चीज़ें मिलती हैं. पहली, फर्जी बाबा लोग पब्लिक के लिए खतरनाक होते हैं. दूसरी, फादरहुड यानी पितृत्व. मगर दोनों में से कोई भी चीज़ इतनी मजबूती से आपके सामने नहीं रखी जाती कि आप कुछ महसूस कर पाएं. कोई मैसेज क्लीयर तरीके से जनता तक पहुंचाने में ये फिल्म सफल नहीं हो पाती.
जब आप इस फिल्म को समझने की कोशिश कर रहे होते हैं, तब फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर आपका ध्यान भटकाने के काम आता है. वो म्यूज़िक इतना लाउड है कि फिल्म देखने के अनुभव में खलल पैदा करता है. क्योंकि वो उस सिचुएशन को मैच नहीं कर रहा है, जिसके लिए उसका इस्तेमाल हो रहा है. यही चीज़ फिल्म के गानों के साथ भी होती है. भट्ट कैंप की फिल्में अपने गानों के बूते पहचान बनाने के लिए जानी जाती रही हैं. यहां भी आपको ‘तुम से ही’ और ‘इश्क कमाल’ जैसे सुंदर गाने सुनने को मिलते हैं लेकिन फिल्म के साथ उन गानों का कोई तालमेल नहीं है.
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