तहखाना

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August 8, 20181min00

शत्रुदेश पाकिस्तान चूंकि पडौसी देश भी है लिहाजा वहां की हर गतिविधि पर हमारी नजर रहना स्वाभाविक है। वहां आम चुनाव हुए और क्रिकेटर इमरान खान की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और इमरान का पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनना तय है।

अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में ऑल राउंडर रहे इमरान राजनीति के खेल में भी इतने ऑलराउंडर निकलेंगे यह यकीन नहीं था। लेकिन जो हुआ वह सामने है। वैसे पाकिस्तान की हुकूमत में जो आतंकवादी और सेना चाहती है, वही होता है। नवाज शरीफ और भुट्टो की पार्टी इन आकाओं की कसौटी पर नहीं थी तो इमरान पर दांव खेला गया। इलेक्शन केम्पेन में मोदी के नाम की माला जप-जप कर इमरान ने मतदाताओं को खूब लुभाया। पाक की नापाक सियासत की बुनियाद में ही हिंदुस्तान का विरोध है। इमरान का भी यही फार्मूला था।

इमरान पाकिस्तान के ऐसे पहले प्रधानमंत्री बनेंगे जो क्रिकेट के बहाने ही सही भारत के दौरे पर खूब आएं हैं, यहां के कई शहरों में वे टेस्ट मैच खेले हैं। भारत की जनता के मिजाज को वे अच्छी तरह जानते समझते हैं।

उनके समकालीन क्रिकेटर कपिल देव ने भी यह बात कही है और इमरान से यह उम्मीद जताई है कि वे भारत-पाक के रिश्तों को सुधारेंगे किन्तु कपिल की शायद यह महज खुश फहमी है। इमरान ऐसा करेंगे या कर पाएंगे, इसकी संभावना क्षीण है। जब वहां की सियासत के डीएनए में ही भारत का विरोध रचा-बसाहै तो इमरान क्या कर लेंगे।और तासीर में भारत के प्रति कोई सॉफ्ट कॉर्नर होता तो वहां के आका उन्हें यह तौफ़ीक़ नवाजते ही नहीं कि वे वजीरेआजम की हैसियत तक पहुंच पाते।किसी अन्य देश का एक अच्छा क्रिकेटर यदि प्रधानमंत्री बनता तो उससे खेल भावना की उम्मीद रखी जा सकती थी लेकिन इमरान से तो कतई नहीं क्यों कि वह पाकिस्तानी है।

इमरान ने पाकिस्तान को विश्वकप क्रिकेट की पहली ट्राफी बतौर कप्तान दिलाई थी। वह अपने आकाओं को खुश करने भारत के खिलाफ कोई सियासी खिताब हासिल करने की कोशिश जरूर करेगा।हालांकि मोदी के सामने उसकी हसरतें परवान नहीं चढ़ने वाली है शिकस्त ही मिलेगी। क्योंकि विश्व समुदाय में इमरान की हैसियत फिलहाल मोदी की तुलना में इंच व फुट में भी नहीं है न होगी।क्रिकेट में कई मर्तबा मेन आफ द मैच का खिताब पाने वाला यह क्रिकेटर एक आतंकी देश की बदनाम छवि के अपने देश में मेन आफ़ द इलेक्शन जरूर बन गया किन्तु सियासत के मैदान में वह कितना कामयाब होगा अभी यह कहना मुश्किल है।

 

(ब्रजेश जोशी)


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August 8, 20181min00

संसद में उत्पन्न यह अनोखा दृश्य आज राष्ट्रीय मुद्दा हो गया है। गले मिले या गले पड़े की बहस में देश उलझा हुआ है। अविश्वास प्रस्ताव से ज्यादा यह गले वाली बात सबके गले में अटक गई है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी संसद में अपनी आसन्दी पर बैठे राहुल गांधी के इस बर्ताव से अचंभित रह गए, कुछ क्षण तो वे समझ ही नहीं पाए कि ये हो क्या रहा है, राहुल बाबा भी सपाटे से निकल गए, मोदी जी ने उन्हें वापस बुलाया कान में कुछ कहा पीठ पर हाथ फेरा। राहुल भी मुस्कुराकर चल दिये। अब यह भी फ़िल्म बाहुबली पार्ट वन की आखरी सीन के उस रहस्यमय प्रश्न की तरह तिलस्म हो गया है कि कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा, इसी तर्ज पर मोदी ने राहुल के कान में क्या कहा। खबरिया चैनलों ने तो गले और कान पर डिबेट भी करा दी है।

वैसे राहुल ने कांग्रेस के कहे अनुसार गले मिल कर और भाजपा के मुताबिक गले पड़ कर बुरा क्या किया। अब यह उन्होंने किसी स्क्रिप्ट के तहत किया या सहज रूप में भावुक हो कर किया यह तो राष्ट्रीय अनुसन्धान का विषय है लेकिन इस वाकये ने महाभारत के युद्ध की याद दिला दी।कौरव-पाण्डव दिन में युद्ध करते और शाम को युद्ध विराम के समय एक दूसरे के शिविर में एक दूसरे का हाल चाल पूछने जाते।शायद राहुल ने भी महाभारतकालीन शिष्टाचार की परम्परा का पालन किया हो या उनसे कराया गया हो। पहले तो खूब प्रहार किए और फिर गले मिलने पहुंच गए। लेकिन बाद में बड़ी चूक कर गए शर्तिया यह तो स्क्रिप्ट में नहीं होगा कि गले का मामला निपटा कर आंख मारना।

इन न्यूज चैनलों का भी क्या करो एक-एक चैनल दिन भर कम से कम सौ बार गले मिलते या पड़ते और आंख मारते दिखाते गए दिखाते गए। लोग विश्वास-अविश्वास भूल गए बस यही लीला देखते रहे कई तो जबरन अपने वालों से गले लग कर या पड़ कर इस वाकये का विश्लेषण करने लगे। कईयों की आंखे दिन भर झपझपाने लगी। कुछ ने तो बरसों बाद आंख भी मारी। जिन घरों में आंख मारना अमर्यादित माना जाता था वहां भी कहने बताने के लिए खूब आंख मारी गई। आंख मारने को किसी ने बुरा नहीं माना।

अब तो लगता है आंख मारना एक संसदीय आचरण हो गया है।संसद में जो मारी गई है,आंख मारने के एक नए युग की शुरुवात हो गई है। संसद में जो काम हो सकता है वह कहीं भी हो सकता है। आंख मारने की शिकायत यदि किसी बच्चे की माँ-बाप के सामने आई तो बच्चे के पास अपने बचाव के लिए ठोस संसदीय तर्क होगा, जो उन्हें निरुत्तर कर देगा। वाह क्या गजब की मिसाल हो गई आंख मारने वालों के लिए। प्लासी के युध्द और पानीपत की लड़ाई की तरह यह आंख कांड इतिहास का अध्याय हो जाएगा।संसद में कही गई हर बात और वाकया संसदीय रिकार्ड में सुरक्षित जो रहता है।

बहरहाल जो कुछ हुआ अच्छा हुआ या खराब यह मत-मतान्तर का विषय है मगर जो भी हुआ बड़ा दिलचस्प हुआ।

 

(ब्रजेश जोशी)


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August 8, 20181min00

कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा बेगम की सरकार क्या गिरी वह इतना बोरा गई है कि जुबान से कैसे बोल निकाल रही है। महबूबा ही नहीं देश के अन्य नेताओं के भी बोल इतने कड़वे हो गए हैं कि लगता है इनके लिए सत्ता और सियासत ही सब कुछ हो गई है। देश के तो कोई मायने ही नहीं है, हर दिन कोई न कोई नेता विवादित बयान दे ही देता है, कोई राजनैतिक दल अछूता नहीं है जिसके नेता कड़वे बोल न बोल रहे हों। इन बड़बोले नेताओं को न देश की चिंता है न अपनी पार्टी की। इन्हें तो बस कुछ भी बोल कर मीडिया की लाइम लाइट में आना है,अपनी टीआरपी बढ़ाना है। अपने वजूद को चाहे बदनाम होकर ही सही बस बनाए रखना है।

कांग्रेस की बात करें तो इस पार्टी को भाजपा से ज्यादा अपने ही बड़बोले नेताओं के कड़वे बोल से खतरा है। राहुल गांधी दिन-रात मेहनत कर पार्टी की वापसी के लिए खून-पसीना एक कर रहे हैं और उनके नेता दिग्विजयसिंह, शशि थरूर, मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद विवादित बयान देकर करे कराए पर पानी फेर देतें हैं।

यही आलम भाजपा में भी है। नरेंद्र मोदी को कभी अपने मंत्री गिरिराजकिशोर, तो कभी सांसद साध्वी निरंजना के कड़वे वचनों से आहत हो कर अपने नेताओं को जुबान पर लगाम लगाने की नसीहत देना पड़ती है।

लेकिन कश्मीर की अपदस्त मुख्यमंत्री ने तो सारी हदें ही पार कर दी। अपनी पार्टी में हो रही तोड़-फोड़ के लिए भाजपा पर आरोप लगाना तो ठीक है, पर अपनी सियासत के लिए सलाउद्दीन और यासीन मलिक जैसे दुर्दांत आतंकवादियों के फिर से पैदा होने की धमकी देकर महबूबा ने साबित कर दिया है कि वे सत्ता व सियासत के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। वैसे मुख्यमंत्री बनने के बाद पाकिस्तान और आतंकवादियों का आभार मानने वाली महबूबा से इससे भी ज्यादा गिरने की उम्मीद की जा सकती है, जो हमेशा आतंकियों की ही भाषा बोलती आई है।

इन बड़बोले और जहरीली जबान बोलने वाले नेताओं को यह जरूर सोचना चाहिए कि जनता सब देख रही है,सुन रही है और समझ भी रही है।

 

(ब्रजेश जोशी)


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August 8, 20181min00

जब जम्मू कश्मीर में सत्ता के लिए भाजपा और पीडीपी में समझोता यानि गठबन्धन हुआ था उसी वक्त राजनैतिक पंडितों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि गठबन्धन सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी,दोनों का बेमेल विवाह हुआ है तलाक हो के रहेगा इनकी नीति और नीयत जुदा-जुदा है इनमें निभ ही नहीं सकती।

और गठबन्धन पर सबसे रोचक टिप्पणी यह थी कि यह वो समझौता एक्सप्रेस है जिसे चलाने वाले जिसमें सवार होने वाले सभी जानते थे कि इसका एक्सीडेंट होना तय है फिर भी यह एक्सप्रेस चली और अब नतीजा सबके सामने है।
दरअसल गठबन्धन सरकार से जम्मू कश्मीर की सीएम बनीं महबूबा मुफ्ती और उनकी पार्टी की पाकिस्तान परक मानसिकता को जानकर भी भाजपा ने नहीं नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने उन्हें समर्थन दिया।इस निर्णय पर भाजपा व देश में भी खूब बवाल हुआ,खूब आलोचना हुई लेकिन मोदी-शाह करे सो सही पार्टी ने भी माना देश ने भी सह लिया।

यह मान भी लिया जाय कि कश्मीर में अपनी ताकत बढ़ाने और आतंक को खत्म करने के लिए सत्ता में आना या साथ रहना जरूरी समझा गया हो लेकिन इस प्रयोग को तीन साल तक असफल होते क्यों देखते रहे,जो महबूबा चुनाव के बाद पाकिस्तान और आतंकवादियों का आभार मानती हो उससे वहां आतंकवाद के खात्मे व पाकिस्तान के दखल को खत्म करने की क्या उम्मीद हो सकती थी महबूबा की कैसेट तो आज सरकार गिरने के बाद भी पाकिस्तान और आँकवादियों से संवाद करने पर अटकी हुई है।बीते 3 सालों में कश्मीर में भले ही 600 से ज्यादा आतंकियों को मार गिराने के दावे हो रहे हो लेकिन इसी दौरान वहां हमारे सैनिकों के शहीद होने की संख्या भी बढ़ी है आम नागरिक भी मारे गए हैं। पत्थरबाजी तो मानो कश्मीर में रोज की बात हो गई।नापाक हरकतों को प्रश्रय मिलता रहा और राष्ट्रवाद मोन रहा समर्थन जारी रहा और तो और रमजान में सीज फायर की महबूबा की ज़िद को भी मान लिया गया,वे हमारे सैनिकों को मारते रहे और हम सीजफायर करते रहे।पत्रकार बुखारी की हत्या कर दी गई और महबूबा संवाद ही करने पर अड़ी रही।

महबूबा मेडम यह संवाद का नहीं संग्राम का समय है।भाजपा ने समर्थन वापस लेने में बहुत देर कर दी,बहुत कीमत चुकानी पड़ी।
अब प्रायश्चित यही है कि कश्मीर पर राजनीति को छोड़कर रण नीति से काम हो,आपरेशन आल आउट को इसके नाम के अनुरूप ही पूरा किया जाए। महबूबा की तरह कायर होने की बहुत कीमत चुका दी है अब एक्शन का समय है।हर समय हर परिस्थिति पर राजनीति करने की पृवत्ति को राजनैतिक दल त्याग देवें यह उनके लिए भी अच्छा है और देश के लिए भी।

कश्मीर में अब तो राष्ट्रपति शासन ही फिलहाल एकमात्र विकल्प है और 56 इंच के सीने की भी जरूरत है।

 

(ब्रजेश जोशी)



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