फिल्म रिव्यू- यारा

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‘हासिल’ और ‘पान सिंह तोमर’ जैसी फिल्में बना चुके तिग्मांशु धूलिया की नई फिल्म ‘यारा’ ज़ी5 पर रिलीज़ हो चुकी है. फिल्म की कहानी चार अनाथ बच्चों की है, जो स्मगलिंग करते हुए बड़े होते हैं. इनमें से दो बच्चों की बैकस्टोरी फिल्म दिखाती है और बाकी दो स्मगलिंग में कैसे आए ये आपके लिए गेस करने को छोड़ देती है. खैर, ये चारों लड़के फागुन, मितवा, रिज़वान और बहादुर बड़े होने के बाद भी तकरीबन हर इल्लीगल काम कर रहे हैं. इसी सब के बीच फागुन को सुकन्या नाम की नक्सली लड़की से प्यार हो जाता है. वो सुकन्या की मदद करने के लिए अपने गैंग के साथ आउट ऑफ द वे जाकर सबके रस्ते लगा देता है. चारों को पुलिस नक्सली मानकर धर लेती है. पुराने कुकर्मों की सज़ा के तौर पर उन्हें लंबा समय जेल में गुज़ारना पड़ता है. लेकिन गेम ये है कि पुलिस को नक्सलियों के बारे में खबर कहां से लगी? इसके पीछे किसका हाथ था? ये पूरी फिल्म इसी शक की सूई के इर्द-गिर्द घूमती है. और जब खत्म होती है, तो आपकी शक्ल पर 12 बज रहे होते हैं.

 

बचपन से साथ पले ये चारों लड़के बड़े होने के बाद भी हर तरह का इल्लीगल काम करते हैं.

 

फिल्म में विद्युत जामवाल ने फागुन यानी फिल्म के हीरो का रोल किया है. विद्युत गदर एक्शन करते हैं. उनकी बॉडी भी कतई जबरदस्त है. स्माइल भी एकदम किलर. लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं आता. फिल्म के अति-इमोशनल सीन्स में उन्हें देखकर घोर निराशा होती है. मितवा के किरदार में दिखे हैं अमित साध. अभी-अभी ‘ब्रीद’ में एक डार्क कैरेक्टर में नज़र आए थे. यहां भी कमोबेश उनका मामला सेम है. लेकिन जब ‘यारा’ की अच्छी बातों का ज़िक्र होगा, तो उसमें उनकी सधी हुई परफॉरमेंस भी शामिल रहेगी. रिज़वान के रोल में हैं विजय वर्मा. विजय की सबसे शानदार बात ये है कि वो अपने कैरेक्टर को हीरो वाले अंदाज़ में अप्रोच करते हैं. सेकंड लीड या सपोर्टिंग हीरो की तरह नहीं. वो हीरो के पीछे आउट ऑफ फोकस भी हैं, तो अपना कुछ कर रहे हैं. लेकिन इस फिल्म में उनका कैरेक्टर बड़ा दिशाहीन है. कहां से आया है, कहां को जाएगा. किसी को नहीं पता. केनी बासुमत्री ने चौथे दोस्त बहादुर का किरदार निभाया है. उनका रोल ज़्यादा लंबा नहीं है लेकिन बड़ा स्थिर है. फिल्म का ब्रीदर. मसला है श्रुति हासन का. उन्हें फिल्म में एक इंडीपेंडेंट महिला के तौर पर दिखाया गया है, जो आयरनी से भरा हुआ है. फिल्म में वो सिर्फ इसलिए हैं, ताकि फागुन के साथ चार रोमैंटिक गाने में डांस कर सकें. उस किरदार के साथ जो हादसा होता है, वो ‘राम तेरी गंगा मैली’ वाले ज़माने की बात है. फाइनली सुकन्या का किरदार दया का पात्रभर बनकर रह जाता है.

 

पिच्चर के हीरो विद्ययुत जामवाल.

 

‘यारा’ एक पीरियड फिल्म है, जो नॉन-लीनियर फॉरमैट में बनाई गई है. नॉन-लीनियर मतलब ग़ैर-धाराप्रवाह. जैसे ‘रॉकस्टार’ है. ये चीज़ इस फिल्म को कंफ्यूज़िंग बना देती है. लेकिन फ्लैशबैक वाले हर साल को जिस तरह से देश के किसी बड़े इवेंट से जोड़कर ह्यूमनाइज़ किया गया है, उससे समय और दौर का सही अंदाज़ा लगता है. ये छोटी डिटेल्स हैं, जो कॉन्टेंट को रिच बनाने में मदद करती हैं.

 

ये फिल्म किरदारों के बुढ़ापे से शुरू होती है और फिर बचपन से लेकर उनके अब तक के सफर को टटोलती है. फिल्म के एक सीन में बूढ़ा मितवा यानी अमित साध.

 

तिग्मांशु को लोकल पॉलिटिक्स का चस्का है, उनकी हर फिल्म में वो एक किरदार के रूप में देखने को मिलता है. और वो इवेंट्स बड़े जमीनी होते हैं, जिसे समझने में ज़्यादा दिमाग नहीं खपाना पड़ता. इस फिल्म में भी नक्सलियों और नक्सल मूवमेंट की बात आती है. लगता है कुछ बड़ा होने वाला है. लेकिन अगले कुछ मिनटों में रिलयलाइज़ होता है कि ज़िक्र आ गया यही बहुत बड़ी बात थी. उस मूवमेंट का क्या हुआ, इस बारे में फिल्म में आगे कहीं कोई बात नहीं होती. इन वजहों से धीरे-धीरे आपका इंट्रेस्ट फिल्म में कम होना शुरू हो जाता है.

 

‘गली बॉय’ से पब्लिक की नज़र में आने के बाद से ये आदमी फुल ऑन मचा रहा है. रिज़वान के किरदार में विजय वर्मा. इस फिल्म में लेजिट बच्चन भक्त बने हैं. 

 

अपने नाम को चरितार्थ करती हुई ‘यारा’ पूरे टाइम चारों दोस्तों के आसपास चक्कर काटती रहती है. इस दौरान कई ऐसी घटनाएं या मोमेंट्स आते हैं, जो बड़े मज़ेदार लगते हैं. लेकिन वो इतने बिखरे हुए कि फिल्म के काम नहीं आ पाते. फिल्म में एक्टर्स के दो लुक हैं. जवानी और बुढ़ापे का. जैसे नितेश तिवारी ‘छिछोरे’ में था. ‘छिछोरे’ में एक्टर्स का बुढ़ापे वाला लुक फिल्म की सबसे ज़्यादा खलने वाली चीज़ थी. लेकिन यहां एक्टर्स का लुक फिल्म की उन चुनिंदा बातों में से है, जिन्हें अच्छा कहा जा सकता है. ‘यारा’ में बहुत सारे गाने हैं, लेकिन उन्हें दोबारा सुनने या याद रख लेने की इच्छा नहीं होती.

 

फिल्म के एक सीन में चारों दोस्त. फागुन, मितवा, रिज़वान और बहादुर.

 

किसी फिल्म को देखने के बाद दिमाग में सबसे पहला सवाल क्या आता है? यही न कि फिल्म कहना क्या चाहती थी. वहां ‘यारा’ की बोलती बंद हो जाती है. क्योंकि एक रेगुलर कॉमर्शियल सिनेमा होने के अलावा इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है. ना ये किसी थॉट को आगे ले जाती है, ना सिनेमा को. ‘यारा’ धोखे की कहानी है. दो धोखों की. पहली फिल्म में होती है, दूसरी फिल्म देखने वाले के साथ. इस फिल्म से तिग्मांशु अपने ज़ोन में रहते हुए खुद को री-इन्वेंट करने की कोशिश की है. लेकिन उनकी ये कोशिश सिर्फ एक सीख बनकर जाएगी कि क्या नहीं करना चाहिए था. अगर आप एक लाइन में जानने चाहते हैं कि क्या ये फिल्म आपसे ज़ी5 का सब्सक्रिप्शन खरीदवाने का माद्दा रखती है, तो जवाब है- ना.




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