क्या बोले थे फैज़, जब उनके वकील ने कहा, ‘आपको फांसी हो सकती है

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मैं फैज़ साहब के बारे में बोलना-लिखना तो बहुत कुछ चाह रहा हूं, लेकिन मेरा ख्याल लफ़्जों की तलाश में है.
आज एक हर्फ को फिर ढूंढता फिरता है ख्याल.
फैज़ साहब का कहना रहा कि…

ये दाग दाग उजाला ये शब गज़ीदा सहर,
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं.’

फैज़ साहब के एक ऐसे नही, हज़ारों अशार इंसानी दर्द और जज़्बात के तर्जुमान है, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में उन्हें कद्र की निगाह से देखा जाता है.

फैज़ की ज़िंदगी दुखों और यातनाओं का एक लंबा सफर है. फैज़ को जब ज़ंजीरो में बांधकर लाहौर जेल से एक डेंटिस्ट के पास ले जाया जा रहा था, वही जाने-पहचाने रास्तों पर, जाने-पहचाने लोगों के बीच, तब रास्ते ही में फैज़ ने लिखा-

‘चश्म-नम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं
तोहमत-ए-इश्क़-ए-पोशीदा काफ़ी नहीं.
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो
दस्त-अफ़्शां चलो मस्त ओ रक़्सां चलो.
ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूं-ब-दामां चलो
राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो.’

लेकिन फैज़ ने हर दुख और यातना को सिगरेट के धुएं मे उड़ा दिया.

1951 में जब वो दूसरी बार गिरफ्तार हुए, तब उनके वकील ने उन्हें बताया कि उन्हे सज़ा-ए-मौत भी दी जा सकती है. फैज़ ने सिगरेट जलाई और हंसते हुए अपना नया शेर कह डाला:

‘फ़िक्र-ए-सूद-ओ जियां तो छूटेगी
मिन्नत-ए-इन-ओ-आं तो छूटेगी.
खैर दोज़ख मे मय मिले न मिले
शेख साहिब से जां तो छूटेगी.’

वो रवायत, जो ग़ालिब ने कायम की थी, जो अल्लामा इकबाल तक पहुंची और अल्लामा इकबाल से आगे बढ़कर फैज़ तक पहुंची. फैज़ उसी रवायत के सबसे नुमाइंदा शायर हैं 20वीं सदी के. गालिब के समय के बाद का अगर कोई सबसे बड़ा शायर था, तो वो थे फैज़ अहमद फैज़.

फैज़ साहब साहित्य को साहित्य तक सीमित नहीं रखते हैं. उसे ज़िंदगी के साथ जोड़ देते हैं.

फैज़ को समझना आसान नहीं. फैज़ साहब के चाहने वालों में कितने ही लोग ऐसे हैं, जिन्होंने कुछ ही शेर समझे. और कुछ समझ में नहीं आया. उनमें से एक मैं भी हूं. उनके कलाम के हर पहलू तक हमारा उपज नही पहुंच सकता है.

मैं कई साल पहले तक यही समझता था कि ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ जैसी रोमैंटिक नज़्म कोई लिखी ही नहीं गई. जब वो लिखते हैं…

‘मैंने समझा था कि तू है तो दरख्सा है हयात,
तेरे सूरत से है आलाम में बहारों को सबात,
तेरी आखों के सिवा दुनिया मे रखा क्या है.’

पर फिर मीटर बदलता है. फैज़ साहब अपने आसपास देखते हैं और बताते हैं कि आसपास कितना कष्ट बिखरा हुआ है.

‘रेशम-ओ-अतलसों कम ख्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कुचा ओ बाज़ार में जिस्म.
खाक मे लिपटे हुए खुन में नहलाए हुए
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे…’

लेकिन उन्हें तो लोगों के गम के पास वापस जाना होता है…

‘और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा’

फैज़ साहब कब महबूबा के लिए लिखते थे और कब मुल्क के लिए लिखते थे, फर्क महसूस ही नहीं होता. अगर उनकी नज़्म आप आशिकी के मूड मे पढ़ रहे हों, तो लगेगा कि आप आशिक हूं. ये आपके लिए ही लिखा गया है. अगर इंकलाबी नज़र से देखेंगे, तो महसूस होगा कि मैं हूं, मेरा वतन है, मेरी ज़मीन है, जिसके बारे में लिखा गया है.

ये जो नज़्म ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत’ का ज़िक्र मैंने किया, इसके लिखने के वक्त से ही फैज़ का नज़रिया और लिखने का अंदाज़ बदल गया. इस बात के लिए फैज़ ने फारसी के महान लेखक निज़ामी को अक्नॉलेज किया और उन्हीं की एक लाइन से इस नज़्म को शुरू किया-

‘दिल-ए-बुफरो खत्म
जाने-ए-खरीदन’

इसका मतलब है कि मैंने अपना दिल बेच दिया और आत्मा खरीद ली.

फैज़ अहमद फैज़ ने अपने सफर का आगाज़ अपने ज़माने के अंदाज़ के मुताबिक एक रूमानी शायर की हैसियत से ही किया. ‘इब्तदाई नज़्में’, ‘आखरी खत’ और इंतज़ार वगैरह इसी दौर के तर्जुमान में हैं और नाकाबिले फरामोश हैं. लेकिन बहुत जल्द वो अपनी सच्ची और हकीकी डगर पर चल निकले और ‘तन्हाई’ जैसी नज़्म तखलीख की.

फैज़ मार्क्सिस्ट होने के बावज़ूद ला-सऊरी तौर पर क्लासिकी रवायत पर बरकरार रहे और उनके शायरी में ये दोनों रंग शीरो-सकर हो गए हैं.

उनकी नज़्म ‘शीशों का मसीहा कोई नहीं’ इस अंदाज़ की बेहतरीन मिसाल है. उनकी नज़्में ‘ज़न्दा की एक सुब्ह’ और ‘ज़न्दा की एक शाम’ उनकी शायरी में उर्दू की क्लासिक शायरी की बेहतरीन मिसाल है.

‘रात बाकी थी के जब सरे-ए-बालीं आकर
रात बाकी थी के जब सरे-ए-बालीं आकर
चांद ने मुझसे कहा, जाग सहर आई है
जाग इस शब जो मय-ए-ख्वाब तिरा हिस्सा थी
जाम के लब से तह-ए-जाम उतर आई है
और सो रही है घने दरख़्तों पर
चांदनी की थकी हुई आवाज़
और अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फिल कर लो
अब यहां कोई नहीं, कोई नहीं आएगा.’

और ज़िंदगी… एक और मिसाल

‘ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं.’

फैज़ पर गुफ्तगू के लिए एक शाम नहीं, एक ज़िंदगी चाहिए. मैं आज की शाम इस मुख्तसर गुफ्तगू को इस ख़ुमार पर खत्म करता हूं के…

‘शब के ठहरे हुए पानी की सियह चादर पर
ज-ब-जा रक़्स मे आने लगे चांदी के भंवर
चांद के हाथ से तारों के कंवल गिर-गिरकर
डूबते, तैरते, मुरझाते रहे, खिलते रहे
रात और सुब्ह बहुत देर गले मिलते रहे’

फिर फैज़ पूछ बैठे, ‘क्या करें’…

ये ज़ख्म सारे बे-दवा
ये चाक सारे बे-रफू
किसी पे राख चांद की
किसी पे ओस का लहु
ये है भी या नही, बता
ये है कि महज़ जाल है
मिरे तुम्हारे अंकबूत-ए-वहन का बुना हुआ
जो है तो इस का क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें, बता क्या करें
बता, बता,
बता, बता’




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