‘विश्वरूपम 2’. हिन्दी में पढ़ें तो ‘म’ हटालें. लिखने में फील नहीं आ रहा. इसके राइटर और डायरेक्टर दोनों ही कमल हासन हैं. इसका पहला पार्ट 2013 में आया था. लेकिन उसका फ्लैशबैक 2018 में भी चलता है. आपके दिमाग में भी और स्क्रीन पर भी. ये फिल्म देखते वक्त आप ये सोचते हैं कि कुछ चीज़ों को पहली ही छोड़ देनी चाहिए. क्योंकि जो दूसरी कमल हासन ने बनाई है, वो खुद में इतनी उलझी हुई है कि आपको कहीं लेकर नहीं जाती. इसे पिछली फिल्म का प्रीक्वल और सीक्वल दोनों कहा जा रहा है. इनकी कृपा और कहानी दोनों यहीं रुकी हुई है. ‘विश्वरूपम’ का पहला पार्ट काफी विवादों में रहा था. उसे कई देशों और अपने यहां कई राज्यों में नहीं लगने दिया गया था. कमल हासन के मुताबिक उन्हें उस फिल्म से तकरीबन 60 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था. अब इसी चक्कर में उन्होंने अपनी ‘टाइगर ज़िंदा है’ बना दी.
‘विश्वरूपम’ की एक कहानी के अंदर इतने सारे सब प्लॉट्स हैं कि मेन प्लॉट का ख्याल ही नहीं आता. लेकिन फिल्म में उसे बीच-बीच में लाकर आपको याद दिलाया जाता है. विसाम (कमल हासन) का मकसद पिछली फिल्म से लेकर अब तक बदला ही नहीं है. अब एक ही विलेन मारने के लिए आप दो फिल्म थोड़ी बना देंगे! वो भी एक ऐसे विलेन को मारने के लिए, जो कुछ दिनों में अपने आप ही मरने वाला है. ओमर (राहुल बोस) और विसाम के बीच, जो सीन्स अफगानिस्तान में घटते हैं, वो थोड़े पावरफुल हैं. क्योंकि उसमें वहां के माहौल में बढ़ रहे बच्चों का ज़िक्र आता है. उनकी मांओं का ज़िक्र आता है. वहां की महिलाओं का ज़िक्र आता है.
फिल्म में कई सारे लूपहोल्स हैं, जो आसानी से आपकी नज़र में आ जाते हैं. जैसे फिल्म में एक सीन है, जहां शेखर कपूर का किरदार विसाम से कोड लैंग्वेज में बात कर रहा होता है. इसमें वो कोड-वोड को साइड कर एक इमोशनल सा डायलॉग मार देते हैं. ये उस समय तो बहुत चौंकाता है क्योंकि ये शेखर कपूर कर रहे होते हैं. फिर आपको याद आता है इनकी आखिरी फिल्म हिमेश रेशमिया की ‘तेरा सुरूर’ थी. फिर आप खुद को इस फिल्म के लिए तैयार कर लेते हैं. फिल्म में कहीं ऐसा नहीं होता कि आप अपने कुर्सी से बिलकुल चिपक गए हों या फिल्म में बिलकुल खो गए हों. क्योंकि ये किसी चीज़ को स्थापित करने में बहुत समय लेती है. विसाम और उसकी मां के बीच फिल्म में एक ही सीन है और वो तकरीबन पंद्रह मिनट लंबा है. लेकिन आप उस सीन में कुछ फील नहीं कर पाते. इन्हीं चक्करों में फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है.
फिल्म के जोक्स और डायलॉग्स अभी भी 2013 में ही हैं. बदला है तो बस कमल हासन का लुक. इस बार वो पूरी फिल्म में गाल पर बैंडेज चिपकाए दिखाई देते हैं. अगर अब तक वो ठीक नहीं हुआ, तो उन्हें एक बार डॉक्टर को दिखा लेना चाहिए. फिल्म में एक चीज़ बहुत सही है. वो है कैरेक्टर्स के लुक. वो पिछली फिल्म के पहले वाली कहानी (कमल हासन के फ्लैशबैक वाले हिस्सों में) में भी बिलकुल उस लुक में दिखाई देते हैं. इसकी एक वजह ये भी हो सकती है, इसकी शूटिंग पिछली फिल्म के दौरान ही कर ली गई थी. लेकिन ऐसी संभावनाएं कम ही होती हैं. ऐसे में बिलकुल सेम लुक देखने पर आपको कहानी में भटकाव नहीं लगता. इस चीज़ की तारीफ की जानी चाहिए.
फिल्म में दो महिलाएं हैं, जिन्हें ‘सशक्त’ दिखाया गया है. लेकिन वो अभी भी पति के पानी का गिलास पकड़कर खड़ी रहती हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि इन्हें सिर्फ सशक्त ‘दिखाने’ की कोशिश की गई है. ये महिलाएं हैं पूजा कुमार यानी विसाम की पत्नी निरुपमा और दूसरी उनकी साथी एजेंट अस्मिता सुब्रमण्यम यानी एंड्रिया जेरेमी. फिल्म में कमल हासन ने इतना एक्शन किया है कि देखकर सलमान खान को रश्क हो जाए. लेकिन इस उम्र में उन्हें इस तरह का एक्शन करते देखना कहीं भी खलता नहीं है. कमल हासन अपने किसी भी सीन में भारी नहीं लगते. इस फिल्म में कोई कैरेक्टर ऐसा किरदार निकलकर नहीं आता, जो आपको लंबे समय तक याद रहे. विसाम का किरदार आपको पहली फिल्म के चलते याद है.
फिल्म में बहुत सारे किरदार हैं, लेकिन उनके करने के लिए कुछ नहीं है. पिछली बार के ओमर और उसका सिपहसालार सलीम (जयदीप अहलावत) भी बिलकुल बेअसर रहते हैं. क्योंकि उनके किरदार भी इन्हीं सब-प्लॉट्स में उलझ जाते हैं. उन्हें कुछ नहीं करने के लिए आखिरी 10-15 मिनट मिलते हैं. फिल्म की एक समस्या ये भी है कि अगर किसी ने इसका पहला पार्ट नहीं देखा है, वो बिलकुल ही कंफ्यूज़ रहता है. क्योंकि विसाम का मिशन पिछली फिल्म का. फिल्म का विलेन पिछली फिल्म का. सारे किरदार पिछली फिल्म के. ऐसे में आदमी कंफ्यूज़ के अलावा और क्या हो सकता है.
पिछले दिनों एक अखबार में छपा था कि कमल हासन ने कहा है कि वो जल्दी ही एक्टिंग छोड़ देंगे. हमारी ओर से सर को गुज़ारिश है कि राइटिंग और डायरेक्शन के बारे में भी एक बार विचार कर लें. जोक्स अपार्ट (ऐसा बोलना पड़ता है), फिल्म में म्यूज़िक भी है और ठीक-ठाक है. एक गाना पूरी तरह से कृष्ण जी को समर्पित है, जो एक बेडसीन के दौरान बज रहा होता है. बाकी आपको याद नहीं रहते. सब मिलाकर बात ये है कि ‘विश्वरूपम 2’ निराश करती है. क्योंकि इससे उम्मीद थी.
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