1 जनवरी 2018 को ज़ीरो का पहला टीज़र आया था. तबसे फिल्म का इंतज़ार था. यानी 11 महीने 20 दिन का इंतज़ार. इस इंतज़ार का क्या सिला मिला आइए जानते हैं.
2018 में सलमान ने ‘रेस-3’ से और आमिर ने ‘ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान’ से हाज़िरी लगाई. इन दोनों ही फिल्मों के हिस्से तारीफ़ बेहद कम और आलोचना बहुत ज़्यादा आई. लोगों ने जमकर बखिए उधेड़े. साल के आखिर में किंग खान कहलाने वाले शाहरुख ‘ज़ीरो’ लेकर आए हैं. साथ में हैं अनुष्का और कटरीना जैसी इंडस्ट्री की टॉप की हीरोइन्स. ज़ीशान और तिग्मांशु धुलिया जैसे टैलेंटेड सह-कलाकार. आनंद एल राय जैसा तगड़ा डायरेक्टर. बावजूद इसके कुछ ख़ास पल्ले नहीं पड़ता.
मैं शाहरुख खान का बहुत बड़ा फैन रहा हूं. मैंने उनकी ‘गूड्डू, और ‘ज़माना दीवाना’ जैसी फ़िल्में तक देख रखी है. किसी फिल्म को रिव्यू करते वक़्त एक बेसिक ईमानदारी सबसे ज़रूरी चीज़ होती है. मेरे अंदर का शाहरुख़ फैन कितना ही बायस्ड होने की कोशिश करे, ‘ज़ीरो’ के बारे में ये कहने से खुद को नहीं रोक पाएगा कि ये फिल्म एक निराश करने वाला अनुभव है. एटलीस्ट मेरे लिए. ज़्यादा लंबा फैलाने का मन नहीं है तो जल्दी से अच्छे-बुरे पहलूओं पर नज़र दौड़ा लेते हैं.
क्या है जो देखा जा सकता है?
शाहरुख खान. इस आदमी का एनर्जी लेवल किसी दूसरे ही प्लैनेट की चीज़ है बॉस! फर्स्ट हाफ में तो उनसे नज़रें नहीं हटतीं. बऊआ सिंह, जो है तो एक बौना आदमी लेकिन अपनी शारीरिक दुर्बलता की वजह से किसी हीन भावना से ग्रस्त नहीं हुआ है. बल्कि वो उसे सेलिब्रेट करता है. ‘दुनिया मेरे ठेंगे’ से टाइप रवैया रखता है. एक्ट्रेस बबिता कुमारी के लिए पागल है. वहीं साइंटिस्ट आफिया युसुफ़ज़ई को इम्प्रेस करने के लिए लिटरली तारे तोड़कर दिखाता है.
फिल्म में जो कुछ अच्छा है, सब फर्स्ट हाफ में ही है. जैसे बेइंतेहा खूबसूरती से फिल्माया गया गाना ‘मेरे नाम तू’. ये इतना शानदार बन पड़ा है कि मन ही नहीं करता ख़त्म हो. इस गाने में नाइंटीज़ और उसके बाद के कुछ सालों के उस शाहरुख की झलक मिलती है, जिसकी फैली हुई बांहों में दुनिया समा जाती थी और गालों के डिम्पल्स में कायनात गर्क हुआ करती थी.
इरशाद कामिल ने बढ़िया गीत लिखे हैं. अजय-अतुल का म्यूज़िक है जो उनके स्टैण्डर्ड से काफी कमतर है. एक-दो गाने ही उम्दा बन पड़े हैं. फर्स्ट हाफ में मुहम्मद ज़ीशान अय्यूब भी कमाल का सपोर्टिंग एक्ट निभाते हैं. कुछेक बेहतरीन पंच लाइंस आईं हैं उनके हिस्से. मेरठ का लहजा वो कामयाबी से पकड़ते हैं. कुल मिलाकर फर्स्ट हाफ बढ़िया कहा सकता है.
क्रैश लैंडिंग
गड़बड़ सेकंड हाफ में है और तगड़ी वाली है. यूं जैसे फर्राटे से उड़ते किसी स्पेस क्राफ्ट की क्रैश लैंडिंग हो जाए. इस हाफ में ऐसा कुछ होता है कि टाइटैनिक से आइसबर्ग टकरा जाता है और जहाज़, अपनी पूरी ख़ूबसूरती को लिए-दिए डूब जाता है. मेरठ की कहानी मुंबई तक तो बर्दाश्त हो जाती है लेकिन यूएस आते-आते आप चीटेड महसूस करने लगते हैं. एक के बाद एक इतने अतार्किक सीन्स घटने लगते हैं कि एक वक़्त के बाद आप दिमाग लगाना बंद कर देते हैं. बस चाहते हैं कि जो भी परदे पर हो रहा है वो जल्दी से ख़त्म हो, ताकि आप घर जा सकें. यूं लगता है एक ही टिकट में आपने दो फ़िल्में देख ली हो. इंटरवल से पहले कोई और. इंटरवल के बाद कोई और.
किसी प्योर बॉलीवुड एंटरटेनर से आप महान फिल्म होने की उम्मीद तो नहीं कर सकते लेकिन ‘ज़ीरो’ जितने बड़े प्रोजेक्ट से आप थोड़ी सी तार्किकता की उम्मीद तो करते ही हैं. मैं यहां कई सीन्स का उदाहरण देकर अपनी बात समझा सकता हूं लेकिन वो सब के सब स्पॉइलर्स में आएंगे. इसलिए खुद जाकर देखिए.
एक्टिंग के फ्रंट पर शाहरुख़ ही सबसे ज़्यादा मार्क्स ले जाते हैं. कटरीना भी ठीक-ठाक हैं. ज़ीशान शानदार तो अनुष्का सबसे कमज़ोर कड़ी. तिग्मांशु पता नहीं फिल्म में क्यों थे?
कुल मिलाकर ‘ज़ीरो’ को ऐसे ही समराइज़ किया जा सकता है कि इससे बच्चे खुश होंगे और डाई हार्ड शाहरुख़ फैंस झेल जाएंगे. बाकी आप खुद देखकर तय करिए.
कसम से जियरा चकनाचूर!
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