प्रफेसर त्रिलोचन शास्त्री IIT और IIM जैसे इंस्टीट्यूट से पढ़े हुए हैं. IIM में डीन भी रहे. फिलहाल IIM-बैंगलोर में पढ़ा रहे हैं. असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी कि ADR के फाउंडर हैं. इसके अलावा उन्होंने Farm Veda नाम की एक कंपनी भी तैयार की है, जिसका काम है किसान की फसल को उसके खेत से सीधे हमारे किचन तक पहुंचाना. यानी बिचौलिया सिस्टम खत्म करने की दिशा में काम. देश के करीब 36 हजार किसान अब तक इससे जुड़ चुके हैं.
कृषि संबंधी तीन बिल दोनों सदनों से पास हो गए हैं. राष्ट्रपति की मुहर के बाद कानून बन जाएंगे. देश में कई जगह किसान इसका विरोध कर रहे हैं. बिल और इससे जुड़े प्रावधानों पर प्रफेसर त्रिलोचन शास्त्री ने अहम बातें की हैं. उन्होंने अंग्रेजी में लिखा है. वही बातें आपको हिन्दीं में बता रहे हैं. पढ़िए.
किसानों के लिए तीन बिल लाए गए हैं. ये बिल भारत के कृषि क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर की एंट्री को आसान बनाने की कोशिश करते हैं. इसमें APMC और निर्धारित मंडियों के दायरे से बाहर जाकर भी फसल का सौदा करने की छूट दी गई है. और इन ट्रांजेक्शन पर कोई मार्केट फीस, कोई सेस या अन्य कोई चार्ज नहीं लगेगा. ये टैक्स किसान तो भरता नहीं था. ये टैक्स भरते थे खरीदार. इस लिहाज से ये नया लाभ भी व्यापारियों को ही मिलेगा. लेकिन किसानों का भी कोई नुकसान नहीं है. नुकसान किसी का है, तो राज्य सरकारों का. जिन्हें इन टैक्स के ज़रिये एक बड़ा रेवेन्यू मिलता था. उदाहरण के लिए – फसल खरीदी पर लगने वाले टैक्स, मार्केट फीस से पंजाब सरकार सालाना करीब चार हजार करोड़ रुपए कमाती थी. ये अब धम से नीचे गिरेगा. राज्यों के कानून में जो कुछ भी केंद्र सरकार के बिल से अलग है, वो अब हटा दिया गया है. इसलिए पंजाब के राजनीतिक दल इस बिल का जमकर विरोध कर रहे हैं.
[* APMC: एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमेटी. इसका काम होता है बाज़ार के उतार-चढ़ाव से किसान को बचाना और ये सुनिश्चित करना कि उसे फसल का सही-सही दाम या एमएसपी मिलता रहे.]
बिल कहता है कि कोई विवाद होने पर उसे एसडीएम के स्तर पर हल किया जाएगा, न्यायालय के स्तर पर नहीं. असेंशियल कमोडिटीज़ एक्ट में भी संशोधन किए गए हैं. आवश्यक वस्तुओं के दाम पर सरकारी नियंत्रण कम हुआ है. सरकार इसे नियंत्रित करने के आदेश तभी जारी करेगी, जब सब्ज़ियों और फलों की कीमत में 100 फीसदी की बढ़ोतरी होगी. या फिर जब ख़राब न होने वाले खाद्यान्नों की कीमत में 50 फीसदी तक का इज़ाफा होगा. इससे उपभोक्ता को तो फायदा होता है, लेकिन किसान को नहीं. क्योंकि अधिकतर छोटे किसान कटाई के वक्त ही फसल बेचते हैं. उस वक्त तो दाम यूं भी कम ही होते हैं. दामों में उतार-चढ़ाव व्यापारी को फायदा देते हैं, किसानों को नहीं.
MSP के प्रोटेक्शन को खो देने का डर
पंजाब, हरियाणा की बात करते हैं. यहां जो फसल उगती है, उसका करीब-करीब 100 फीसदी सरकार खरीद लेती है. MSP पर. अभी धान की MSP करीब 18.68 रुपए प्रति किलो है. अब बाकी राज्यों की बात करते हैं. यहां सरकार फसल का करीब 10 फीसदी ही खरीदती है और दाम है 12 से 14 रुपए. इस उदाहरण से साफ हो रहा है कि कृषि बिल का सबसे ज़्यादा विरोध पंजाब, हरियाणा में ही क्यों हो रहा है. ये MSP के प्रोटेक्शन को खो देने का डर है. सच ये है कि भारत में जितना भी चावल या गेहूं होता है, उसका करीब-करीब दो तिहाई खुले बाज़ार में ही जाता है. सरकार इसे नहीं खरीदती. अगर हम दाल, बाजरा, ज्वार, रागी, कपास जैसी बाकी फसलों की बात करें तो सरकारी ख़रीद का ये आंकड़ा और भी कम है. इस समस्या के लिए नया बिल कोई समाधान नहीं देता.
[* MSP: मिनिमम सपोर्ट प्राइज़. सरकार जिस दाम पर किसान से फसल का प्रोक्योरमेंट (ख़रीदी) करती है, उसे MSP कहते हैं. ये सरकार की तरफ से तय होता है और किसान की लागत से ज़्यादा रखा जाता है. ताकि उसे लाभ मिले.]
क्या मंडियों का हाल एयरपोर्ट जैसा होगा?
प्रधानमंत्री कई बार आश्वासन दे चुके हैं MSP पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. फिर भी किसान लगातार विरोध कर रहे हैं. शायद इस बिल में कुछ संशोधन किसानों की चिंता को कम कर पाएं. संशोधन, जो इस बात को साफ तौर पर आगे रख सकें कि सरकारी खरीद की मात्रा और MSP तय करने के मौजूदा फॉर्मूले पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है. साथ ही बिल को स्पष्ट तौर पर ये आश्वासन भी देना होगा कि जिस तरह के देश के एयरपोर्ट का आज निजीकरण हो रहा है, कल को वैसा ही मंडियों के साथ नहीं होगा.
अब मान लीजिए अगर कृषि में प्राइवेट सेक्टर के दख़ल को स्थापित होने दिया जाए, टैक्स फ्री प्राइवेट मंडी तैयार की जाएं, तो इसका असर क्या होगा? आप दक्षिण अमेरिका की तरफ जाइए. तमाम ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जहां यूएस फूड कॉर्पोरेशन ने किसानों की फसल पर एकाधिकार हासिल किया. और यहां धीरे-धीरे, साल-दर-साल फसलों का खरीदी मूल्य कम होता चला गया. अब भारत की बात करते हैं. कई ऐसे राज्य जहां विपक्षी पार्टियों की सरकार है, वे पहले भी कई बार MSP पर खरीदी की प्रक्रिया को रोक चुके हैं. उनका कहना रहा है कि केंद्र सरकार की ओर से समय पर फंड ही नहीं मिलता. अब ये बिल आने के बाद चार राज्य साफ तौर पर कह चुके हैं कि वे या तो इस कानून को लागू नहीं करेंगे या फिर इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे. ये चार राज्य हैं- पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और केरल.
छोटे किसानों की बात अनसुनी
नया बिल मध्यम और बड़े वर्ग के किसानों को शायद शुरुआत में कुछ लाभ दे. लेकिन बड़ा लाभ फिर भी प्राइवेट सेक्टर को ही देगा. छोटे किसान, बाज़ार की पहुंच से बहुत दूर हैं. उनकी समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहेंगी. खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों को राजनेता, राजनीति के चश्मे से देखते हैं. इकॉनमिस्ट और बुद्धिजीवी लोग किसी विचारधारा के चश्मे से देखते हैं. फिर चाहे वो विचारधारा खुले बाजार की हो या समाजवाद की. कॉर्पोरेट जगत इन मुद्दों को नफ़ा-नुकसान के चश्मे से देखता है. लेकिन इन सबके बीच छोटे किसानों की बात, उसका विश्लेषण गुम ही रह जाता है. हमारे देश में ऐसे 10 करोड़ छोटे किसान हैं. इनमें से भी 85 फीसदी बहुत छोटे स्तर पर खेती-किसानी करते हैं. ये सब मिलकर देश के 40 फीसदी परिवारों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
कृषि में प्राइवेट सेक्टर की एंट्री के पक्ष में भी तर्क दिए जाते हैं. वो ये कि सरकार की तरफ से चलाए जाने वाले फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (FCI) के सिस्टम में बहुत धांधली है और इसमें बहुत बड़े स्तर पर फसलों की बर्बादी होती है. इसका एक विकल्प हो सकते हैं- कृषि उत्पादक संगठन यानी कि FPO. बस इनको बेहतर तरीके से चलाने की ज़रूरत है, ताकि किसानों को लाभ मिलता रहे. भारत का अमूल इसका दुनियाभर में जाना-माना उदाहरण है. चुके हुए सरकारी सिस्टम की जगह बड़ा प्राइवेट रिप्लेसमेंट ला देना ही एकमात्र उपाय नहीं है.
[* FCI: फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया. सरकारी संस्था है. इसका काम होता है किसानों से MSP पर खाद्यान्न खरीदकर उसका स्टोरेज करना और फिर उसके डिस्ट्रीब्यूशन पर ध्यान देना.
* FPO: कृषि उत्पादक संगठन. किसानों का समूह, जो फसल उत्पादन के साथ तमाम व्यावसायिक गतिविधियां भी चलाता है. FPO से किसानों को अपनी फसल बेचने की सुविधा मिलती है. सरकार ने इसी साल 10 हजार FPO के गठन की मंजूरी दी थी.]
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