उजड़ा चमन : मूवी रिव्यू

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चमन कोहली आज जो विग पहन के कॉलेज गए हैं वो उन्हें परेशान कर रहा है. आदत नहीं है न. और इसलिए वो बार-बार अपने बाल खुजला रहे हैं. वॉशरूम में जाते हैं और विग खोलकर चैन की सांस लेते हैं. लेकिन उनका ये सारा क्रियाकलाप एक एमएमएस के रूप में पूरे कॉलेज में वायरल हो जाता है और चमन कोहली की खूब कॉलेज-हंसाई होती है.

अब इस पूरे सिक्वेंस में वही दिक्कत है जो पूरी ‘उजड़ा चमन’ मूवी में है. उस दिक्कत का नाम है- ‘अतिश्योक्ति’. ये दिक्कत इसलिए बड़ी लगती है क्यूंकि फिल्म अपने प्रोमो और अपनी पैकेजिंग में मॉडेस्ट और रियल्टी के करीब लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है.

 

कहानी

30 साल का चमन कोहली दिल्ली के हंसराज कॉलेज में हिंदी का प्रोफेसर है. वो और उसकी फैमली लगी हुई है कि कैसे न कैसे चमन की शादी हो जाए. लेकिन इसमें तीन बड़ी अड़चनें हैं. सबसे बड़ी दिक्कत है उसका गंजापन, जिसके चलते हर दूसरी लड़की उसे रिजेक्ट कर देती है और बची हुई आधी लड़कियों की या तो फैमिली रिजेक्ट करती है या उन लड़कियों को कैसे एप्रोच करना है ये चमन नहीं जानता. दूसरी दिक्कत है कि उसके पास वक्त बहुत कम है. क्यूंकि उसके फैमिली पंडित ने कहा है कि अगर 31 साल तक उसकी शादी नहीं हो जाती तो वो आजीवन कुंवारा रहेगा. तीसरी दिक्कत है चमन की खुद की एक्सपेक्टेशन.

चमन कोहली के पैरामीटर के हिसाब से अप्सरा बत्रा कुछ भी हो, अप्सरा तो कतई नहीं है.

वो चाहे कैसा भी हो, लेकिन उसे लड़की चाहिए खूबसूरत. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि उसकी ज़िंदगी में अप्सरा बत्रा आ जाती हैं जो चमन के मानकों में खूबसूरती में माइनस मार्किंग पाती हैं. इस सब घटनाओं और आपदाओं के दौरान चमन कोहली के सेल्फ रियलाइजेशन की स्टोरी है ‘उजड़ा चमन’.

 

रीमेक 

रोमांस और कॉमेडी, यानी रॉम-कॉम विधा की ये मूवी, कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ का ऑफिशियल रिमेक है. इसलिए ही कन्नड़ मूवी के राइटर और डायरेक्टर राज बी शेट्टी को हिंदी फिल्म में राइटर का क्रेडिट दिया गया है. स्क्रीनप्ले के हिसाब से कई चीज़ें अलग हैं, कुछ चीज़ें हटाई गई हैं और कुछ जोड़ी गई हैं. जैसे कन्नड़ वाले वर्ज़न में कॉलेज गर्ल का चमन को धोखा देने वाला पार्ट नहीं है जो इस मूवी में जोड़ा गया है. होने को कहीं-कहीं ट्रीटमेंट भी अलग है, जैसे लीड एक्टर-एक्ट्रेस के बीच का कॉन्फ्लिक्ट दोनों ही फिल्मों में अलग तरह से शुरू और अलग ही तरह से खत्म होता है. लेकिन ओवरऑल स्टोरीलाइन में ये सब चीज़ें थोड़ा सा भी अंतर नहीं डालतीं. और कई जगह तो ‘उड़ता चमन’ सीन दर सीन भी अपने कन्नड़ काउन्टरपार्ट की ज़िरॉक्स लगती है. जैसे प्रिंसिपल द्वारा एक स्टूडेंट का फाइन किया जाना या जैसे चमन कोहली द्वारा पंडित को शादी तोड़ने के लिए कन्विंस करना.

 

बाला से टक्कर 

अभी कुछ ही दिनों बाद बाला भी रिलीज़ होने वाली है. उस फिल्म का भी मेन प्लॉट, लीड करैक्टर का गंजा होना ही है. वैसे अगर दोनों फिल्मों के प्रोमो देखें तो समानताएं ज़्यादा और अंतर कम नज़र आते हैं लेकिन ये कितनी हैं और कौन ज़्यादा शाबाशी बटोरेगी वो बाला देखने के बाद ही पता चलेगा. एक फिल्म को अगर पहले रिलीज़ होने और ऑरिजनल मूवी का ऑफिशियल रीमेक होने का एडवांटेज़ मिला है तो दूसरी को आयुष्मान खुराना और भूमि पेडणेकर जैसी बड़ी स्टारकास्ट का.

 

एक्टिंग

‘प्यार का पंचनामा 2’ और ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ जैसी हल्की फुल्की फ़िल्में कर चुके सनी सिंह के पास इस फिल्म से अपने को साबित करने का अच्छा मौका था. लेकिन अगर उन्होंने मौका गंवाया नहीं भी तो उसे पूरी तरह से कैश भी नहीं करवा पाए. दो कारणों के चलते. एक तो मूवी के इमोशनल पार्ट इतने स्ट्रॉन्ग नहीं हैं कि उसमें अपना हुनर कोई दिखा पाए. दूसरा उनके एक्सप्रेशन पूरी मूवी में ऑलमोस्ट सेम रहते हैं. हां उन्हें ‘मेकअप’ का एडवांटेज़ ज़रूर मिला है, जिसके चलते उनको पहचानना मुश्किल है. उनकी पिछली मूवीज़ देखने के बाद आप इस बात पर उनकी तारीफ़ ज़रूर करेंगे कि उन्होंने करैक्टर के लो कॉन्फिडेंस और सेल्फ डाउट को काफी अच्छे से कैरी किया है.

मूवी का सबसे बड़ा हासिल हैं मानवी गग्रू. ये पहली बार है जब उन्होंने किसी फुल लेंग्थ फीचर फिल्म में लीड एक्ट्रेस प्ले किया हो. होने को ‘फोर मोर शॉट्स प्लीज़’, ‘ट्रिपलिंग’ और ‘पिचर्स’ जैसी वेब सीरीज़ में उनके काम को काफी सराहा गया था. इस फिल्म में भी उनके एक्सप्रेशन्स, उनकी एक्टिंग और अपने करैक्टर के लिए की गई उनकी मेहनत पर्दे पर दिखती है और उन्हें बॉलीवुड में अच्छे से स्थापित करने का माद्दा रखती है.

चमन के मम्मी पापा बने अतुल कुमार और ग्रुशा कपूर पंजाबी एक्सेंट और दिल्ली वाले हाव भाव बड़ी अच्छी तरह से पकड़ पाए हैं. सबसे अच्छी कॉमिक टाइमिंग सौरभ शुक्ला की है. बेशक वो दो एक छोटे-छोटे सीन में हैं, और बेशक वो सीन और उनका वो रोल उतना दमदार भी नहीं है. शारिब हाशमी ने कॉलेज के पियोन का किरदार बखूबी निभाया है. होने को ऑरिजनल मूवी में इस किरदार के पास करने को ज़्यादा था. हिंदी वाले वर्ज़न में उसकी स्टोरी को काफी कम कर दिया गया है साथ में उससे जुड़ा इमोशन भी सतही बनकर रह गया है. बाकी एक्टर्स का काम रूटीन तरह का है जिसमें कुछ भी अच्छा या बुरा इतना प्रोमिनेंट नहीं है.

 

स्क्रिप्ट

दो घंटे की मूवी में भी अगर दर्शक एंटरटेन नहीं हो पा रहे हैं तो यकीनन कहीं स्क्रिप्ट में बहुत बड़ा झोल है. फिल्म का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छा है. और स्क्रिप्ट के अपने मोमेंट्स भी हैं लेकिन लचर डायरेक्शन उसे पूरी तरह कैश नहीं करवा पाता. चमन और अप्सरा की सगाई के टूटने वाला सीन और चमन का पियोन राज कुमार के घर विज़िट करने वाला सीन काफी पावरफुल और इमोशनल हो सकता था. लेकिन ‘है’ और ‘हो सकता था’ का ये अंतर ही ‘मास्टरपीस’ और ‘औसत’ के बीच का अंतर है.

 

ह्यूमर और लव कोशेंट

हर हिट रॉम-कॉम मूवी में दो चीज़ें कमोबेश होती ही होती हैं. यूनिक लव स्टोरी और गुदगुदाने वाली कॉमेडी. जैसे ‘जब वी मेट’ या ‘समवन लाइक इट हॉट’. इस मूवी में भी लव स्टोरी यूनिक है, लेकिन इसे देखते हुए आपको बार-बार लगता है जैसे आप छोटे बजट की कोई वेब सीरीज़ देख रहे हों. क्यूंकि ये लव स्टोरी आईडिया के लेवल पर तो यूनिक है, लेकिन स्टोरीबोर्ड से होते हुए स्क्रिप्ट के रास्ते स्क्रीनप्ले तक पहुंचते-पहुंचते अपने साथ कई क्लिशे चिपका लेती है. फिर चाहे वो ‘प्यार की पहली सीढ़ी लड़ाई’ जैसा घिसा पिटा कॉन्सेप्ट हो या लड़की के सामने लड़के का कान पकड़ के कन्फेशन करना या ‘जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है’ जैसे डायलॉग्स.

रही बात कॉमेडी की तो वो रिपीटेटिव लगती है जब ‘मेटाबॉलिज्म’,’सेलिबेसी’ और ‘टेस्टोस्टेरोन‘ जैसे एक नहीं तीन-तीन शब्दों को तोड़-मरोड़ के उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. वो सतही लगती है जब एक विशेष प्रकार के कल्चर और एक्सेंट से उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. कहीं-कहीं उबाती और इरिटेट करती है जब टाइमिंग और बैकग्राउंड म्यूज़िक उसका साथ नहीं दे पाए हों. और वो जब अच्छी लगती है तो याद आता है कि ये वाली सीधे ऑरिजनल कन्नड़ मूवी में भी ठीक ऐसी ही थी.

 

अतिश्योक्ति

फिल्म में कई ऐसी चीज़ें हैं जिसपर आप कहेंगे ऐसा कहां होता है? कुछ चीज़ें फिजिक्स के लेन्ज लॉ की तरह अपने ही स्रोत का विरोध करती लगती हैं.

एक तरफ ये गंजेपन और मोटापे को लेकर ‘एक्सेपटेंस’ बढ़ाने का प्रयास करती है दूसरी तरफ दिल्ली और पंजाबियों को लेकर अपने प्री कंसीव नोशन रखती है. जैसे पंजाबी फैमली है तो लाउड होगी. पंजाबी हैं तो शराब पिएंगे ही पिएंगे. और इस चीज़ को हाईलाईट करने के लिए जैसे ही शराब की बात आती है, बैकग्राउंड में ‘पंजाबी’ शब्द सुनाई देता है. एक पुराने से कॉमन बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में.

बैकग्राउंड म्यूज़िक की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं. न केवल इसकी लाउडनेस से बल्कि इसकी टाइमिंग से भी दिक्कत है. कई जगह ये किसी जोक के पंच से सिंक नहीं करता तो कई जगह सीन के साथ.

हिंदी का प्रोफेसर, रोमन में टाइप करता है और इकोनॉमिक्स के टीचर के साथ टेबल वाइन के साथ फाइव स्टार में डिनर करता है. तब जबकि उसकी सैलरी, जैसा वो बताता है साठ हज़ार रुपल्ली है. आप कहेंगे कि तो क्या हो गया, ये इम्पॉसिबल तो नहीं. बेशक इम्पॉसिबल नहीं लेकिन अपाच्य ज़रूर है. और तब जबकि जैसा स्टार्ट में कहा था कि मूवी अपनी पैकेजिंग में काफी आर्गेनिक लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है.

 

दिल्ली

अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में दिल्ली अपने ‘पुरानी दिल्ली’ और ‘चांदनी चौक’ वाले पारंपरिक बॉलीवुड रूप में नहीं है. राजौरी गार्डन, हंसराज कॉलेज, मेट्रो स्टेशन, मयूर विहार, हौज़ ख़ास विलेज जैसी जगहें देखकर या उनके बारे में सुनकर एक डेल्हीआईट को कहीं भी ‘आउट ऑफ़ दी वर्ल्ड’ या ‘काल्पनिकता’ का आभास नहीं होता.

 

डायलॉग्स

मैं बार-बार रिपीट कर रहा हूं कि हर डिपार्टमेंट में ‘आईडिया’ के लेवल पर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उसकी तामीर, उसके मटरियलाइज़ेशन में परेशानी पैदा की गई है. उगाई गई है. डेलीब्रेटली. यही हाल डायलॉग्स का भी है. जैसे,’ ‘दिलों की बात करता है जमाना, पर मोहब्बत अब भी चेहरे से शुरू होती है.’ जैसे शायराना डायलॉग्स जो अलग तरह से लिखे जाने के बदले सिंपल होते तो ज़्यादा इंपेक्टफुल होते.

 

म्यूज़िक

मूवी खत्म होने के बाद क्रेडिट रोल होते वक्त यू ट्यूब सेलिब्रेटी और टी सीरीज़ स्टार गुरु रंधावा का गीत सुपरहिट होने का पूरा माद्दा रखता है. बंदया गीत भी अच्छा है. लेकिन इसका म्यूज़िक न तो इसका सबसे अच्छा डिपार्टमेंट है और न ही ऐसा कि बाकी कमियों के ऊपर पर्दे का काम करे.

 

ओवरऑल निष्कर्ष

मूवी बुरी नहीं है. लेकिन ऐसी मूवीज़ थियेटर के लिए नहीं होतीं. शुरू होने से पहले ये आपको बताती है कि इसके ऑनलाइन स्ट्रीमिंग राइट्स एमेज़ॉन प्राइम और टीवी राइट्स ज़ी टीवी के पास हैं. बाकी आप समझदार हैं हीं. और साथ में बोनस में ये बता दूं कि मैंने कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ नेटफ्लिक्स पर देखी थी.




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