फिल्म रिव्यू: मर्दानी 2

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इंडिया में रेगुलर पुलिसवाली फिल्म सीरीज़ की अच्छी खासी भीड़ हो गई. अजय की ‘सिंघम’, सलमान की ‘दबंग’ और रोहित शेट्टी का कॉप यूनिवर्स तो है ही. उसी लिस्ट में रानी मुखर्जी की ‘मर्दानी’ भी है. ये ‘मर्दानी 2’ देखने से पहले आपका पूर्वाग्रह या पूर्वानुमान रहता है. लेकिन ‘मर्दानी 2’ शुरू होने के 15 मिनट के भीतर आपकी इस सोच को सिर के बल खड़ा कर देती है. और खुद के लिए जमीन तैयार कर अपने पांव पर खड़ी हो जाती है. फिल्म ये चीज़ें कैसे कर पाती है, ये आप नीचे इसके अलग-अलग विभागों के बारे में लिखी गई बातें पढ़कर बेहतर तरीके से समझ सकेंगे.

फिल्म की कहानी ये है कि 2014 में मुंबई पुलिस में रहते हुए शिवानी रॉय ने दिल्ली बेस्ड चाइल्ड ट्रैफिकिंग और ड्रग्स के बिज़नेस का पर्दाफाश किया था. 2019 में उनका ट्रांसफर राजस्थान के कोचिंग हब कोटा में हो गया है. लेकिन यहां के क्राइम का कोटा मुंबई से कुछ कम नहीं है. दूसरी तरफ एक 21 साल का लड़का है सनी, जो लड़कियों का रेप करके टॉर्चर करता है और मार देता है. शिवानी के कोटा पहुंचने के तुरंत बाद एक मामला आता है. वो उसे सुलझाने में लगती है लेकिन ये घटनाएं रुकने का नाम नहीं लेती. सनी, शिवानी को बार-बार अलग-अलग तरीके से चैलेंज करता है. शिवानी हर बार उसका काट ढूंढ़ लेती है. इनकी चूहे-बिल्ली के खेल में राजस्थान पुलिस की इमेज खराब हुई पड़ी है. कहानी ये है कि वो लड़का ऐसा क्यों करता है? और शिवानी उसे पकड़ पाती है या नहीं?

‘मर्दानी पार्ट 1’ देखने का फायदा ये होता है कि आपको शिवानी रॉय यानी रानी मुखर्जी के किरदार के बारे में काफी कुछ पता होता है. सिनेमाघरों में जाकर आप चौंक जाते हैं कि ये बात शिवानी को भी पता है. रानी मुखर्जी पहले ही सीन से काफी कॉन्फिडेंट और कैरेक्टर में दिखती हैं. लेकिन फिल्म के बढ़ने के साथ ही वो भी सटल होती जाती हैं. और सारे काम खत्म करने के बाद फिल्म के आखिर में जब वो बैठकर रोती हैं, तब आपको उनका 20 साल लंबा अनुभव दिखता है. लेकिन असली खिलाड़ी है फिल्म का विलन सनी यानी विशाल जेठवा. एक 21 साल बिलकुल इनोसेंट सा दिखने वाला बंदा. उसकी शक्ल इतनी मासूम है कि आपको यकीन नहीं होता है कि इस लड़के में इंसानों वाले गुण इतने कम होंगे. लेकिन फिल्म में अपने किए से हर बार आपको यकीन दिला देता है कि ये सारे कांड उसी ने किए हैं. इस दौरान जितना परफेक्ट उसका वेस्टर्न यूपी वाला एक्सेंट है, उतना ही फाइन काम. कई बार थोड़ा सा ओवर द टॉप चला जाता है लेकिन वो आप पूरी फिल्म को देखने के बाद जाने दे सकते हैं.

फिल्म में एक भी गाना नहीं है. और होता तो बहुत खलता. क्योंकि उससे फिल्म प्रभावित होती. बैकग्राउंड स्कोर माहौलानुसार हॉन्टिंग सा है. लेकिन खुद को फिल्म के साथ बनाए रखता है. ये फिल्म कोटा में घटती है. और जिस तरह के माहौल में घटती है, वो बहुत डरावना है. मुंबई के हमने वो शॉट खूब देखे हैं, जब एक ओर झुग्गियां दिखाई देती हैं और दूसरी तरह स्काईस्क्रैपर्स. हमें कोटा के भी कुछ वैसे शॉट्स देखने मिलते हैं, जिससे ये बात साबित तो हो जाती है ये कहानी कोटा में चल रही है. लेकिन कोटा कहानी से कनेक्ट नहीं बना पाता है. आपको लगता है कि ये कहानी मुंबई, दिल्ली, बैंगलोर कहीं भी घट सकती है. फिल्म के क्लाइमैक्स में सीन है, जहां शिवानी, सनी को पकड़ने जाती है और वो बॉल फेंककर उसे डिस्ट्रैक्ट करने की कोशिश करता है. आप उसी सीन को देखने बाद यही सोचते रहते हो कि इसे शूट कैसे किया गया होगा. वो कैमरा मूवमेंट है या एडिटिंग, लेकिन जो भी है गदर है. उस सीन को आप नीचे लगे ट्रेलर में देख सकते हैं. वो सीन 2.02 मिनट पर शुरू होता है:

 

 

फिल्म में खलने वाली इक्की-दुक्की चीज़ें ही हैं, इसलिए पहले इस पर बात कर लेते हैं. फिल्म की लीड कैरेक्टर बिलकुल हॉलीवुड स्टाइल की पुलिसवाली है. वो जो केस हैंडल करने जा रही है, उसके बारे में उसे सबकुछ पता है. बावजूद इसके सनी कई बार उसकी नाक के नीचे से निकल जाता है. एक 21 साल का लड़का पुलिस को अपने पीछे-पीछे घुमा रहा है और ये सब वो इतनी ज़्यादा प्लानिंग-प्लॉटिंग के साथ कर रहा है, ये थोड़ा सा फिल्मी हो जाता है.

कई अच्छी बातों में सबसे अच्छी बात ये है कि फिल्म कभी भटकती नहीं है. वो सीधे-सीधे कहती है, जो वो कहना चाहती है. वो शुरू से लेकर आखिरी तक इक्वॉलिटी और महिलाओं-पुरुषों के बीच किए जाने वाले सामाजिक भेद-भाव की बात करती है. ये मसला फिल्म की लिखावट में ही गुंथा हुआ है. हर चीज़ में इक्वॉलिटी चाहिए लेकिन बसों और मेट्रो में रिज़र्व सीट भी चाहिए, ये किस तरह की बराबरी है. ऐसे सवाल हमने बहुत बारे सुने हैं. बहुत लोगों से सुने हैं. फिल्म इस सवाल का भी आंसर देती है. और आप उससे सहमत होते हैं. आपको समझ आता है कि आज के समय में आपको ये फिल्म एक साथ कितनी सारी रेलेवेंट बातें बता रही है. फिल्म देखते वक्त हैमरिंग सा भी लगता है लेकिन वो हमारे लिए ज़रूरी है. ताकि एक समाज या इंसान के तौर पर इन बातों को हम अपने दिमाग के एक कोने में सही तरीके से बिठा लें. और अगली बार अमल में लाएं. ताकि सामने से किसी और को आकर हमें ये चीज़ बताने की ज़रूरत न महसूस हो.

जब आप फिल्म देखने थिएटर में घुसते हैं, तो आपको रेगुलर बॉलीवुड कॉप फिल्म जितनी ही उम्मीद रहती है. लेकिन ये उससे ज़्यादा निकलती है. और बहुत तेज निकलती है. आप इंटरवल होने के बावजूद फिल्म को दो हिस्सों में बांटकर नहीं देख सकते हैं. एक शिवानी रॉय की फैमिली वाले सीक्वेंस को छोड़कर कोई भी हिस्सा बेमतलब नहीं लगता. ‘मर्दानी 2’ एकदम क्रिप्स और कट टू कट चलती है. आपके दिमाग में बहुत कुछ सोचने और समझने के लिए छोड़ती है और अपने हालातों पर रोती हुई, खत्म हो जाती है. इसे ब्रिलियंट सिनेमैटिक क्राफ्ट के लिए भले ही न याद रखा जाए लेकिन प्रासंगिकता के मामले में ये ‘मुल्क’ जैसी लैंडमार्क फिल्म के आस पास पहुंच जाती है.




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