बाला: मूवी रिव्यू

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बालमुकुंद इमोशनल होते हुए कहता है. कि नहाने के तुरंत बाद वो अपना कच्छा नहीं, अपना विग पहनता है. इसलिए कि विग न पहना हो, तो उसे लगता है वो नंगा हो गयाउसका ये कहना सुनकर आपके अंदर हास्य और करुणा एक साथ जनमती है. हास्य और पीड़ा का ये ही जोड़ आप पूरी फिल्म में पाते हैं. वही जोड़, जिसके बारे में शायद चार्ली चैपलीन कह गए हैं कि ट्रेजेडी+टाइमिंग इजकल्टू, कॉमेडी.

 

कहानी

काफी विवादों के बाद आख़िरकार 8 नवंबर, 2019 को रिलीज़ हुई फिल्म ‘बाला’. ये कहानी है बालमुकुंद शुक्ला उर्फ बाला की. बाला कानपुर का एक सेल्समैन है. ब्यूटी प्रॉडक्ट बेचता है. लेकिन उसका बॉस उससे फील्ड वर्क छुड़वाकर उसे ऑफिस वर्क दे देता है. काइंड ऑफ़ डिमोशन. और डिमोशन इसलिए क्योंकि उसके बाल नहीं हैं. बाला गंजा है. इसीलिए बॉस और समाज़ की नज़र में उसकी पर्सनेलिटी ठंडी है. बाल नहीं, तो चार्म नहीं.

बाल न होने के चलते ही उसे गर्लफ्रेंड नहीं मिलती,  बचपन वाली ब्रेक-अप कर लेती है. बाल न होने के चलते उसकी शादी नहीं होती.  बाल न होने के चलते ही वो अपने सपने पूरे नहीं कर पाता. सपना, एक स्टैंड-अप कॉमेडियन बनने का.

यानी सारी मुसीबतों की जड़ बाल ही हैं. बाल मतलब बालों का न होना. होने को एक लड़की है, जो बाला को पसंद करती है. बचपन से. लेकिन बाला उसे पसंद करना तो दूर उसकी मज़ाक और उड़ाता है. क्योंकि वो लड़की सांवली है. इन्हीं सब ‘दुखों’ के बीच जब एक दिन उसके पिता उसे बालों का विग गिफ्ट कर देते हैं, तो उसकी ज़िंदगी बदल जाती है. लखनऊ की एक टिक-टॉक सिलेब्रेटी उसकी गर्लफ्रेंड भी बन जाती है. उसकी ज़िंदगी में आए इस बदलाव के रास्ते ‘स्वीकार्यता’ की कहानी कहती है ‘बाला’.
एक बार फिर भूमि पेडणेकर को मेकअप का साथ नहीं मिल पाया. इससे पिछली फिल्म 'सांड की आंख' में भी यही हुआ था.

 

मैनरिज़्म

फिल्म में अस्सी प्रतिशत घटनाएं कानपुर और बाकी 20 फीसद चीजें लखनऊ में घटती हैं. फिल्म के राइटर (निरेन भट्ट), डायरेक्टर (अमर कौशिक), सिनेमाटोग्राफर (अनुज राकेश धवन) और बाकी की टीम ने इन शहरों के फ्लेवर को मस्त पकड़ा है. शहरों का मैनरिज़म. वहां की बोली. वहां के छोटे-छोटे लोकल शब्द जैसे – कान्हेपुर, लभेड़. वहां के इलाके. इन सबका एक नैचुरल सा रंग है फिल्म में.

वैसे मूवी ‘लल्लनटॉप’ का विज्ञापन भी करती हुई लगती है. ये शब्द (लल्लनटॉप)  दो गानों के साथ-साथ एक डायलॉग में भी सुनने को मिलता है. यानी कुल तीन अलग-अलग जगहों पर.

डायलॉग्स, वन लाइनर और बोली- इन सबमें एक चटखारा है. समझिए कि एक खास किस्म के लहजे की आंच में बहुत स्वादिष्ट ह्यूमर पकाया गया है. और यूं मूवी के डायलॉग्स इसका सबसे स्ट्रॉन्ग डिपार्टमेंट बन गए हैं. कुछ डायलॉग्स जो सिनेमा हॉल से निकलकर अब भी मेरे साथ हैं, उनकी मिसाल देखिए-

  • हेयर लॉस नहीं आइडेंटिटी लॉस हो रहा है हमारा.
  • जितने भी विकेट बचे हैं, उनके रहते अपनी इनिंग बचा लो.
  • पूरा UP भगवान के भरोसे है.

बाला के भाई के हिस्से आया एक मोनोलॉग बिना क्रिपी हुए ‘प्यार का पंचनामा’ वाले मोनोलॉग की याद दिलाता है. अपने ह्यूमर कोशेंट और तेज़-तेज़ बोले जाने के चलते. मूवी में कभी-कभी ह्यूमर व्यंग का रूप भी ले लेता है. तब, जब वो सच्चाई के साथ मिक्स हो जाता है.

 

ऐक्टिंग

आयुष्मान खुराना हों या भूमि पेडणेकर, दोनों ही लीड ऐक्टर्स ने अदाकारी के सारे बॉक्स चेक किए हैं. कनपुरिया लहजा और हाव-भाव बढ़िया पकड़ा है. लेकिन मेकअप का जो अडवांटेज आयुष्मान को मिला है, वो भूमि नहीं पा सकी हैं. मतलब आयुष्मान अगर एक गंजे आदमी का किरदार कर रहे हैं, तो उनका मेकअप कभी भी हमें अन्यथा सोचने का मौका नहीं देता. जबकि भूमि का सांवला रंग काफी हद तक बनावटी लगता है. जावेद जाफरी ने अमिताभ बच्चन को अच्छा कॉपी किया है. लेकिन ट्रेलर में उनको देखकर जो ह्यूमर की उम्मीद जगती है, वो मूवी में पूरी नहीं हो पाती. उनके छोटे और ‘नॉट सो ह्यूमर्स’ रोल के चलते ऐसा लगता है कि उनका किरदार बेकार ही चला गया. फिल्म में अच्छे तरीके से इस्तेमाल नहीं हो पाए जाफरी. बाला के पिता बने सौरभ शुक्ला के लिए तो क्या ही कहें. वो आलू हैं. जहां डालो, अपना स्वाद अपनी जगह बना लेते हैं. यामी की ऐक्टिंग तो ओके है, लेकिन उनका करेक्टर ‘परी’ गले के नीचे जाते हुए अटकता है. आपको एक्स्ट्रा जतन करके इसको निगलना पड़ता है. कारण ये कि वो अविश्वसनीय लगती हैं. उनके किरदार का ‘एक्सट्रीम’ दर्शकों को कन्विंस नहीं कर पाता.

 

स्क्रिप्ट

मूवी इंटरवल से पहले फुल ऑन एंटरटेनिंग है, लेकिन इंटरवल के बाद ऐसा लगता है कि धक्का दे-देकर चल रही हो. वैसी मक्खन चाल नहीं रह पाती.

स्क्रिप्ट कई जगहों पर ऐसी है कि आपको लगेगा, कुछ और करते. क्योंकि कहानी का वो प्लॉट बहुत ही ऑब्यस मालूम पड़ता है. मसलन, एक लीड करेक्टर कुछ कन्फेशन करने वाला होता है. मगर उसके ऐसा करने से ठीक पहले ही दूसरे लीड करेक्टर को सच्चाई पता लग गई. फिर इस संयोग के दम पर कहानी में कन्फलिक्ट पैदा किया गया. ये बहुत घिसा-पिटा फॉर्म्युला है. ऐसी ही कई और चीज़ें है जिसके चलते फिल्म वैसी रिफ्रेशिंग वाली फील नहीं दे पाती, जैसी कभी ‘दम लगा के हईशा’ ने दी थी. मैंने ‘दम लगा के हईशा’ की बात इसलिए की क्यूंकि दोनों फिल्मों के लीड एक्टर्स ही नहीं, बल्कि कहानी के कॉन्सेप्ट में भी बहुत ज़्यादा समानताएं है. दोनों फिल्मों की कहानियों में एक पुरुष किरदार है, जो खुद ‘परफेक्ट’ न होते हुए भी ‘परफेक्ट’ स्त्री की चाह रखता है. और-तो-और, 90s के नॉस्टेल्जिया को कैश करवाने का प्रयास भी दोनों ही फिल्मों में है. वहां कुमार शानू के माध्यम से था, यहां ‘फैंटम’ नाम की बच्चों की सिगरेट के माध्यम से.

 

डायरेक्शन

अमर कौशिक के डायरेक्शन में कुछेक सीन बड़े इमोशनल बन पड़े हैं. जैसे-स्टूडेंट रियूनियन वाला सीन. मगर बात बनती हुई लगती नहीं. ज़्यादातर सीन अधपके हैं. जैसे- बाप बेटे का कन्फ्लिक्ट. कोशिश की जाती, थोड़ा सोचा जाता, तो ये सीन बड़े असरदार बन सकते थे.

अगर आपने अवार्ड विनिंग वेब सीरीज़ ‘गुल्लक’ देखी है, तो आपको बाला का घर और ‘गुल्लक’ के मिश्रा जी का घर एक ही लगेगा. दोनों घरों की एक विशेषता है. ये एकदम सच्चे लगते हैं. ऐसे कि आपको अपने बचपन के घर का अस्त-व्यस्तपना याद आता है. ‘बाला’ के हर सीन की रियल्टी से पक्की वाली यारी देखने को मिलती है. और ये डायरेक्टर अमर कौशिक और उनके साथी प्रोड्यूसर दिनेश विजन की खासियत भी रही है. इनकी पिछली फिल्म ‘स्त्री’ याद कीजिए.

रेफरेंसेज़ और प्रॉप्स का भी अच्छा इस्तेमाल किया गया है. जैसे- टिक-टॉक, जिसे टियर-टू-सिटी का ट्विटर भी कहा जाता है. टिक-टॉक इस फिल्म का कहानी के नरेशन का एक ज़रूरी हिस्सा है. ये शायद पहली बार किसी मूवी में इतने बड़े स्तर पर इस्तेमाल किया गया होगा. बाकी नाइंटीज़ की वो फेंटम वाली बच्चों की सिगरेट जैसे छोटे-मोटे रेफरेंसेज़ तो हैं ही.

 

म्यूज़िक

फिल्म का म्यूज़िक बहुत औसत है. माने आपने सुना और भूल गए. आप इसे गुनगुनाना भी नहीं चाहेंगे. हां, इतना ज़रूरी है कि गानों के शब्द, इसकी लिरिक्स बहुत चुटीली और फ्रेश हैं. फिर चाहे बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह इस्तेमाल हुआ गीत हो या ‘टकीला’ सॉन्ग. ऐंड क्रेडिट में यूज़ हुआ गीत ‘डोन्ट बी शाय’ बादशाह के म्यूज़िक के चलते अच्छा लगता है. किसी संस्कृत के श्लोक की पेरोडी टाइप लगता मोटिवेशनल सॉन्ग भी अपने कंटेट में क्रिएटिव तो काफी है, लेकिन फुल लेंथ फीचर फिल्म की जो एक संजीदगी होती है, उसे थोड़ा कमज़ोर करता है. ‘प्यार तो था’ की मेलोडी प्रभावित नहीं करती. वो बस आया-गया टाइप कोई औसत से नीचे का गाना बनकर रह जाता है. ‘नाह सोणिए’ एक हिट हो चुके पंजाबी सॉन्ग का ही फ़िल्मी वर्ज़न है, जैसी कि परंपरा हो चली है आजकल.

अगर आपने ‘बाला’ के गाने सुने हों, तो गौर किया हो शायद. फिल्म की कहानी UP के बैकड्रॉप में बढ़ती है, मगर गाने अधिकतर गाने पंजाबी हैं.

 

उजड़ा चमन

पिछले हफ्ते कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोट्टेया काठे’ की ऑफिशल हिंदी रीमेक ‘उजड़ा चमन’ रिलीज़ हुई थी. उसके साथ ‘बाला’ का काफी विवाद चला था और मामला कोर्ट तक पहुंच गया था. मसला ये था दोनों की स्क्रिप्ट एक सी थी. अब चूंकि हमने दोनों ही मूवीज़ देख ली हैं, तो हमें मालूम है कि दोनों फिल्मों का मूल विषय बेशक एक सा हो, लेकिन स्क्रिप्ट और ट्रीटमेंट के चलते दोनों ही बिलकुल अलग-अलग फ़िल्में हो जाती हैं. दोनों फिल्मों की तुलना ‘जब वी मेट’ का एक डायलॉग सबसे बेहतर तरीके से करता है- एक इंच की बेंड और मीलों की दूरी. बस यही दूरी है दोनों फिल्मों के बीच. होने को दोनों फिल्मों की तुलना को अगर आप क्वांटिफाई करना चाहते हैं, तो बता दें कि बाला पहली नज़र में ‘इक्कीस’ साबित होती दिखती है.

 

अंत में एक ऑब्जर्वेशन

कुछ सालों पहले एक मूवी देखी थी- डॉक्टर ज्हिवागो. फिल्म की कहानी यूं थी कि कैसे एक समाज की कमियों से एक क्रांति जन्म लेती है. लेकिन फिर कैसे उस क्रांति के बाद का नया समाज नई कमियों को बोने लगता है. गोया एक नई क्रांति के वास्ते स्पेस बना रहा हो.

नब्बे के दशक में जब हम वही शिफ़ॉन की साड़ियां, वही बर्फ़ के पहाड़ों वाला बैकग्राउंड, वही लो-एंगल कैमरा, वही स्लो मोशन देख-देखकर उकता गए, तो नई तरह की कहानियां आईं. छोटे शहरों की कहानियां. ‘विक्की डोनर’, ‘मसान’, ‘दम लगा के हईशा’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘स्त्री’, ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘तनु वेड्स मनु’, ‘बधाई हो’. ये शुरुआत एक परंपरा के टूटने से हुई. जोखिम लेने की हिम्मत से उपजीं ये फिल्में. लेकिन ‘बाला’ तक आते-आते, इस क्रांति से उत्पन्न हुआ कॉन्सेप्ट/प्ऱडक्ट भी एक नई क्रांति के लिए कसमसाने सा लगा है. एक नए तरह के कॉन्सेप्ट का इतनी ज़ल्दी ‘कंफर्ट ज़ोन’ में आ जाना ‘डॉक्टर ज्हिवागो’ की क्रांति की याद दिलाता है.

जैसे- ‘शोले’ के बाद आईं डाकू वाली फ़िल्में. ‘जय संतोषी मां’ के बाद आईं भगवान और भक्त वाली फ़िल्में. ‘हम आपके हैं कौन’ के बाद आईं शादी-ब्याह वाली फ़िल्में. DDLJ के बाद आईं विदेशी और हाई-फाई विदेशी लोकेशन वाली फ़िल्में. इस नई वाली विधा का भी एक टेंपलेट बन चुका है. जिसमें कई चीज़ें ऐसी हैं, जो अब कमोबेश एक सी ही रहती हैं. जैसे-

  • एक विशेष तरह की मूवीज़ को ‘यश चोपड़ा’ मूवीज़ कहा जाने लगा था. अब इन नई तरह की मूवीज़ को ‘आयुष्मान खुराना’ या ‘राजकुमार राव’ विधा की मूवीज़ कह दिया जाने लगे, तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए. क्यूंकि ये दोनों कलाकार जाने-अनजाने इस टेंपलेट का एक अहम हिस्सा हो चुके हैं.
  • एक ऐसा कन्फ्लिक्ट, जिसका हल, जिसका क्लाइमेक्स समाज की कुरीतियों को तोड़ता है. एक टैबू को खत्म करने की कोशिश करता है. एक मज़बूत सामजिक संदेश देता है. चाहे वो स्त्री-विमर्श को लेकर हो, नपुंसकता को लेकर हो, स्पर्म डोनेशन को लेकर हो या बॉडी शेमिंग को लेकर हो.
  • एक ऐसा शहर जो काऊ बेल्ट (हिंदी भाषी क्षेत्र) में स्थित है. जैसे अधिकतर UP, और कभी-कभी MP या राजस्थान.
  • हास्य, जो आंचलिक भाषा के प्रयोग (कभी-कभी दुष्प्रयोग) से जन्मा हो. और भाषा, जिसमें वहां के लोकल स्लैंग्स इस्तेमाल हुए हों. जैसे- भौकाल. लल्लनटॉप. ऐसे शब्द जिनमें उस अंचल का फ्लेवर हो. जैसे, रेणु और मनोहर श्याम जोशी की कहानियों में. आपको पढ़ते हुए ही मालूम चल जाता है कि फलां जगह के किरदार हैं. ये अलग बात है कि रेणु और मनोहर श्याम जोशी को पढ़ते हुए उनकी आंचलिकता आपको गुदगुदाती है. मगर इन फिल्मों में इस्तेमाल हुए शब्द कई बार जबरन घुसाए से भी मालूम जान पड़ते हैं.
  • कहानियों का ट्रीटमेंट सच्चा सा. बहुत गढ़ा और सजाया हुआ नहीं. करण जौहर और भंसाली की फिल्मों जैसा आलीशान नहीं. इनके घर हमारे-आपके घरों की तरह हैं. घर की दीवारों में आई सीलन. सब्ज़ी खरीदने के लिए पकड़ा गया हाथ का झोला. सड़क पर लगा जाम. और शाम को परिवार का लद-फदकर टीवी देखते हुए किचकिच करना. मतलब, वो दुनिया जो हम जानते हैं.

और भी कई चीज़ें हैं इस टेम्पलेट में. टेक्निकल और क्राफ्ट के स्तर पर. लेकिन चूंकि अभी इस फ़ॉर्मूले वाले फल में काफी रस है, इसलिए इसे और निचोड़ा जा रहा है. निचोड़ा जाएगा. तब तक आनंद लीजिए, जब तक ले सकें. और इंतज़ार कीजिए एक और नई क्रांति का. एक नए टेम्पलेट का.




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