अमरीका का H1B वीज़ा नहीं मिला, तो भारत में बिज़नेसमैन बन गए

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क्या हुआ अगर आपको एच1बी वीज़ा नहीं मिल पाया? आपके पास फिर भी भारत लौट कर आने और नए रास्ते तलाशने मौक़ा है और क्या पता शायद कोई बड़ा काम करने का मौक़ा आपको मिल जाए.

कई लोग हैं जिनको अमरीका में सफलता हाथ नहीं लग पाई और कई ऐसे भी हैं जिन्होंने वहां से लौटने के बाद देश में अपने पैर जमाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे. लेकिन कभी हार न मानने वाले ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने आख़िर सफलता हासिल कर ही ली.

ऐसा एक सफल उदाहरण है कुणाल बहल का जो स्नैपडील नाम की ऑनलाइन मार्केटप्लेस के संस्थापक हैं. इस कंपनी का मूल्य फ़िलहाल 680 करोड़ रूपये है.

माइक्रोसॉफ्ट से प्रोडक्ट मैनेजमेन्ट करने के बाद कुणाल का सपना था कि वो मौक़ों का समंदर कहे जाने वाले अमरीका में काम करने का. लेकिन उनका ये सपना उस वक़्त चकनाचूर हो गया जब उन्हें एक दिन एक ईमेल मिला जिसमें कहा गया था कि उन्हें अमरीका ने उन्हें एच1बी वीज़ा देने से इनकार कर दिया और उन्हें वापिस लौटना होगा.

23 साल के दूसरे युवाओं की तरह कुणाल पहले माइक्रोसॉफ्ट में काम करना चाहते थे और फिर एक बिज़नेसमैन बनना चाहते थे. साल 2007 में वो अमरीका जा कर वहां अपना बिज़नेस जमाना चाहते थे. लेकिन ईमेल के एक वाक्य में उन्हें अपने सभी सपने स्वाहा होते दिखने लगे.

कुणाल बहल ने बीबीसी हिंदी को बताया, “ऐसा नहीं है कि इसमें आपकी कोई भूमिका थी, फिर भी ऐसा लगता है कि आप कोई का करने में फ़ेल हो गए हैं. ये अनुभव ऐसा है जैसे किसी ने आपको रिजेक्ट कर दिया हो. लेकिन ये लॉटरी में हार जाने जैसा अनुभव होता है न कि किसी प्रतियोगिता परीक्षा में. तो इससे उबरने में मुझे कुछ वक़्त लगा.”

रेडमंड में मौजूद माइक्रोसॉफ्ट के दफ़्तर में दोपहर का वक़्त हो रहा था और भारत में रात हो रही थी. भारत में कुणाल के माता-पिता उस वक्त गहरी नींद में थे.

ऐसे में कुणाल ने अपने बचपन के दोस्त रोहित बंसल को फ़ोन किया. दिल्ली पब्लिक स्कूल में एक साथ पढ़ाई करते हुए कुणाल और रोहित कभी गणित की समस्याएं मिल कर सुलझाया करते थे. 16 साल की उम्र में ये दोनों दोस्त भविष्य के लिए अपने अनुभवहीन ‘बिज़नेस प्लान’ पर चर्चा किया करते थे.

इसके बाद कुणाल जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने रोहित के साथ मिल कर अपनी योजनाओं को अंजाम देना शुरू किया. दोनों ने साथ मिल कर ऐसा कुछ लाँन्च किया जैसा कुणाल ने अमरीका में देखा था.

दोनों चाहते थे कि अपने माता-पिता जैसे छोटे व्यापारियों की मुश्किलें हल करना चाहते थे. कुणाल कहते हैं, “मेरा ख़याल था कि रेस्त्रां जैसे छोटे व्यवसाय और छोटी दुकानों का बड़ा काम उपभोक्ताओं को अपनी तरफ़ आकर्षित करना है. उनके लिए हम कूपॉन बूक बेच सकते थे, ये एक ऐसा आइडिया था जो मैंने अमरीका में देखा था.”

“अमरीका में बीते तीस चालीस सालों से कूपॉन का व्यवसाय फल-फूल रहा है. वहां ये सफल बिज़नेस मॉडल और माँग बढ़ाने का अच्छा तरीक़ा है. हमने इसी से अपनी शुरुआत की. इसके बाद एक के बाद एक कुछ न कुछ होता गया और हम भी आगे नई चुनौतियों का सामने करते गए. आज हम यहां पहुंच गए हैं जब हम ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस का बिज़नेस चला रहे हैं.”

 

रिजेक्शन से शुरू हुआ मुश्किलसफ़र

रोहित बंसल, कुणाल बहल

 

ये सफ़र कतई आसान नहीं था. साल 2007, किसी भी तरह से साल 2020 के जैसा नहीं था. अच्छा बिज़नेस आइडिया होने पर भी न तो कोई उसमें निवेश करने को तैयार नहीं होता था और न ही उस वक्त निवेश आकर्षित करने वाले स्टार्ट-अप जैसे कॉन्सेप्ट थे.

कुणाल मानते हैं कि पहले तीन साल उनके लिए “बेहद तकलीफदेह” थे. वो बताते हैं कि कई बार रात के वक्त बेसमेन्ट में बने अपने दफ्तर से काम करने के दौरान वो और रोहित, नज़दीक में मौजूद दिल्ली के फर्नीचर मार्केट के वेडिंग हॉल में बिनबुलाए खाना खाने चले जाया करते थे.

बिज़नेस भी किसी तरह चल रहा था. कुणाल मानते हैं कि ये एक “नाकाम बिज़नेस मॉडल था.”

उस दौरान इंटरनेट को धनी लोगों की संपत्ति की तरह देखा जाता था. ऐसे में कनॉट प्लेस के एक रेस्त्रां से जुड़े एक शख्स ने ऑनलाइन जाने के उनके आइडिया पर दिया.

कुणाल कहते हैं, “उन्होंने कहा कि आप इन कूपॉन को ऑनलाइन क्यों नहीं डालते. हमें उस वक्त नहीं पता था कि वो क्या कह रहे हैं. पहले तो हमने भी इस आइडिया को ये कहते हुए नकार दिया था, कि ये भारत में कहां चलेगा. उस वक्त कम ही लोग ई-कॉमर्स ट्रांज़ेक्शन किया करते थे.”

“लेकिन इसके बाद हमने सोचा कि दो, पाँच या दस साल के बाद हमें भविष्य में इस तरफ बढ़ना तो होगा ही. कूपॉन की एक बुक भविष्य नहीं हो सकती. एक बार जब हमें इस बात का अहसास हुआ तो हमने तेज़ी से काम करना शुरू किया. इसके बाद हमने छोटे व्यवयासों के लिए कूपॉन बेचने वाला एक ऑनलाइन मार्केटप्लेस लॉन्च किया. देखते ही देखते 18 महीनों में हम मार्केट के लीडर बन चुके थे.”

 

थोड़ी मेहनत, थोड़ी प्रेरणा और थोड़ा टीम वर्क

ये वो वक्त था जब इन दोनों बिज़नेस पार्टनर को इस बात का अहसास हुआ कि बिज़नेस को लेकर उनकी महत्वाकांक्षा और उनक योजनाओं में तालमेल कम है.

साल 2011 में दोनों ने चीन का दौरा किया और देखा कि वहां जैक मा की कंपनी अलीबाबा कैसे काम करती है.

कुणाल कहते हैं, “अलीबाबा ऑनलाइन चीज़ें बेच रहा था और हम ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर कूपॉन बेच रहे थे.”

तो फिर क्या उन्होंने इंटरनेट और देश में बदलती आर्थिक नीतियों का फाय़द उठाने का फ़ैसला किया और इसमें सफलता पाई?

कुणाल कहते हैं, “ये चीज़ें ज़रूरी हैं और आपको सक्षम भी बनाती हैं लेकिन सफल होने के लिए ये काफी नहीं. सबसे ज़रूरी चीज़ होती है आपकी टीम और उसकी कोशिशें. अगर हमारे साथ एक बेहद प्रतिभावान, मेहनती, ज़िन्दादिल और स्मार्ट टीम न होती तो हमें सफलता नहीं मिलती. इसके सिवा कोई और रास्ता नहीं है. कंपनी के संस्थापक की हमेशा तारीफ की जाती है लेकिन असल में एक या दो लोग मिल कर कितना काम कर लेंगे. असल स्टार तो आपकी टीम होती है.”

कुणाल कहते हैं कि आज से दस साल पहले उनकी टीम में जिन लोगों ने शिरकत की थी उनका अनुभव पारंपरिक सेक्टर में काम करने का था. लेकिन आज स्थिति काफी हद तक बदल गई है और कई मार्केटप्लेस आज बाज़ार में हैं.

 

 

‘भारत में मौक़ों की कोई कमी नहीं’

जिन लोगों को अमरीका में एच1बी वीज़ा नहीं मिला और जिन्हें रिजेक्शन वाले ईमेल के अमरीका छोड़ कर वापिस आना पड़ा, उनके लिए कुणाल क्या देना चाहते हैं?

कुणाल कहते हैं, “मेरे लिए ये काफ़ी आसान रहा क्योंकि चीज़ें घटती रहीं. मैं कह सकता हूं कि सब कुछ अब तक शानदार रहा है. मुझे लगता है कि मैं भाग्यशाली था कि मुझे बेहतरीन पार्टनर मिला, मैं इस बात में भी लकी रहा कि मुझे काम करने वाली अच्छी टीम मिली, इनकी मदद से हमारे बिज़नेस को दिशा मिली और हम ऐसे आगे बढ़ते गए जैसे रनवे पर विमान आगे बढ़ता जाता है. कैपिटल मार्केट भी खुले और इंटरनेट भी अब आम होने लगा. कई बातें हैं जो अच्छी रहीं और इनके लिए आपके नसीब का अच्छा होना ज़रूरी है.”

“लेकिन मैं दूसरों की स्थिति पर असंवेदनशील नहीं बनना चाहता, लेकिन मैं कह सकता हूं कि रिजेक्ट होने वाले हर व्यक्ति कंपनी बनाए ये ज़रुरी नहीं. मैं मानता हूं कि हर किसी के लिए परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं. जो कोई भी वापिस लौट रहे हैं उन्हें इस बात का भरोसा होना चाहिए कि भारत मैं मौक़ों की कोई कमी नहीं है. ये सब आपकी सोच है.”

“अगर आप मौक़े से लाभ लेना जानते हैं तो एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही आपको हर तरफ मौक़े ही मौक़े दिखेंगे. मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मैं 23 साल का था और मेरे लिए अपना बोरिया-बिस्तरा पकड़ कर लौटना कहीं आसान था. सच कहूं तो मुजे परिवार को एक जगह से पूरी तरह हटा कर दूसरी जगह नहीं ले जाना था, तो मेरे लिए वैसी मुस्किल नहीं थी. मैं मानता हूं कि कभी-कभी जगह बदलना मुश्किल हो जाता है.”

 

कोरोना के कारण मुश्किलों भरा है मौजूदा दौर

भारत में कुणाल के शुरुआती दिनों में उनकी मदद की कैलिफ़ोर्निया में मौजूद समा कैपिटल के ऐश लिलानी ने.

ऐश लिलानी ने बीबीसी हिंदी को बताया, “मैं जितना जानता हूं कुणाल बढ़िया उदाहरण हैं. उनकी कंपनी में निवेश करने वाले पहले कुछ लोगों में शामिल था. कई लोग खुल कर बात नहीं कर पाते और कुणाल भी ऐसा एक उदहरण हैं. कई लोगों से अमरीका से लौट कर बड़ी कंपनियां ज्वाइन कर ली हैं. अब भारत सरकार विदेशी निवेश को बढ़ावा दे रही है जो अच्छी बात है.”

लिलानी कहते हैं, “2007 के मुक़ाबले आज भारत में अधिक कैपिटल तो है ही, बल्कि अधिक अनुभव और प्रतिभा भी है. और तो और अब तकनीक के साथ-साथ मार्केट भी काफ़ी बढ़ चुका है. जब कुणाल ने काम शुरू किया था उसकी तुलना में आज उपभोक्ता, फिनेन्शियल सर्विस, एग्रीटेक सब कुछ काफ़ी अलग है. सोच कर देखिए अगर एक की बजाय सौ कुणाल आ जाएं तो क्या होगा. शायद सभी सफल न हों लेकिन उसकी सफल होने की कोशिश से काफ़ी कुछ होगा.”

 


अकाउंटिंग कंपनी ग्रैंट थॉर्नटन के पार्टनर राजा लाहिरी ने बीबीसी हिंदी को बताया कि एच1बी वीज़ा को लेकर बैन लगाने में कुछ भी अजीब नहीं है. मौजूदा वक़्त में अर्थव्यवस्थाएं समस्या से जूझ रही हैं और ऐसा होना ही है. जब तक ये मुश्किल वक़्त नहीं गुज़र जाता हमें सावधानी बरतनी होगी और सकारात्मक बने रहना होगा. ये वक़्त सभी के लिए मुश्किल है और ज़िन्दगी में कुछ भी स्थाई नहीं है.”

लेकिन जैसा कि कुणाल कहते हैं कि सभी के भीतर एक तरह की “कीड़ा” होना चाहिए. कुणाल कहते हैं, “आपके भीतर हमेशा एक कीड़ा होता है. मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तो मेरी मां कहती थी ‘ये बड़ा हो कर व्यापारी बनेगा’ लेकिन किसी को ये नहीं पता था कि ये शुरू कब और कहां से होगा.”

“मैं अपनी क़िस्मत का शुक्रगुज़ार हूं कि मेरे लिए एक ऐसा माहौल बना जिसने मुझे एक बिज़नेसमैन बनने में मदद की.”




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