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August 21, 20201min00

मीना कुमारी. अपने समय की मशहूर अभिनेत्रियों में से एक. मीना कुमारी ने बॉलीवुड को कुछ ऐतिहासिक फिल्में दी हैं. इनकी कुछ फिल्मों का नाम बॉलीवुड की क्लासिक फिल्मों में लिया जाने लगा. जैसे ‘पाकीज़ा’. फिल्मी सफर शानदार रहा. उनके फिल्म की जर्नी को अब पर्दे पर उतारा जाएगा. खबरों की मानें, तो मीना कुमारी की ज़िंदगी पर जल्द ही वेब सीरीज बनने जा रही है.

खबरों के अनुसार, अश्विनी भटनागर की आइकॉनिक स्टार ‘महज़बीं ऐज मीना कुमारी’ पर वेब सीरीज़ बनने जा रही है. इस शो को प्रभलीन कौर प्रोड्यूस कर रहे हैं. हालांकि इस वेब सीरीज़ के दूसरे कास्ट को लेकर अभी कोई चर्चा नहीं हुई है. बताया जा रहा है कि मेकर्स इस सीरीज़ के बाद मीना कुमारी की जिंदगी पर फिल्म बनाने की तैयारी भी कर रहे हैं.

प्रभलीन कौर ने कहा-

‘ये मेरे लिए सपने के सच होने जैसा है. मेरे लिए मीना कुमारी से खूबसूरत और बड़ा ज़िंदगी में कुछ नहीं है. पूरी रिसर्च के बाद ही इस प्रोजेक्ट को शुरू किया जाएगा. इसके बाद ही फिल्म पर काम शुरू होगा. जिन्हें सिनेमा की ‘ट्रेजेडी क्वीन’ कहा जाता है, उनकी ज़िदगी को पर्दे पर दिखाने की हमें कोई जल्दी नहीं है.’

वहीं बायोग्राफी के राइटर अश्विनी भटनागर ने भी वेब सीरीज़ की अनाउंसमेंट सुनकर खुशी जताई है. उन्होंने कहा-

“प्रभलीन के साथ काम करके मैं बहुत खुश हूं, जो हमेशा कुछ अलग करने के लिए जाने जाते हैं.”

मीना कुमारी की इस वेब सीरीज़ को लेकर अभी ज्यादा जानकारी नहीं दी गई है.

 

मीना कुमारी को बॉलीवुड की ‘ट्रेजेडी क्वीन’ भी कहा जाता था.

 

मीना कुमारी ने बॉलीवुड को ‘साहिब, बीवी और गुलाम’, ‘पाकीज़ा’, ‘मेरे अपने’, ‘बैजू बावरा’, ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘दिल एक मंदिर’ और ‘काजल’ जैसी सुपर हिट फिल्में दी हैं. मीना कुमारी की इस वेब सीरीज़ में उनकी ज़िंदगी से जुड़ी बहुत-सी अनकही बातें भी पता चलेंगी.

मीना कुमारी 39 साल की उम्र में साल 1972 में इस दुनिया को अलविदा कह गईं. इस वेब सीरीज़ में उनकी फिल्मों के अलावा उनकी ज़िंदगी की ट्रेजेडी और कंट्रोवर्सी को भी लोगों के सामने दिखाया जाएगा.


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August 14, 20201min00

फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट गुंजन सक्सेना पर बनी बॉयोपिक गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल 12 अगस्त को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई.

फ़िल्म में गुंजन सक्सेना का किरदार जान्हवी कपूर ने निभाया है और गुंजन के पिता का किरदार पंकज त्रिपाठी ने.

इसके अलावा फ़िल्म में अंगद बेदी, विनीत कुमार, मानव विज और आयशा रजा भी हैं.

बुधवार को नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई धर्मा प्रोडक्शन की इस फ़िल्म को मिली-जुली प्रतिक्रिया मिल रही है. एक ओर जहां फ़िल्म में किरदारों के अभिनय को सराहा जा रहा है वहीं फ़िल्म में जिस तरह भारतीय वायुसेना की छवि को दिखाया गया है, उसे लेकर आपत्ति और नाराज़गी भी है.

ख़ुद भारतीय वायुसेना ने फ़िल्म के कुछ दृश्यों को लेकर आपत्ति जताई है.

भारतीय वायुसेना के प्रवक्ता ने बीबीसी को बताया, “भारतीय वायुसेना ने फ़िल्म गुंजन सक्सेना के कुछ दृश्यों पर आपत्ति जताई है. फ़िल्म में संस्थान और वहां कामकाज की शैली में जेंडर आधारित भेदभाव के ग़लत चित्रण को लेकर आपत्ति दर्ज करायी गई है.”

लेकिन यह आपत्ति फ़िल्म रिलीज़ हो जाने के बाद क्यों? क्या फ़िल्म रिलीज़ होने से पहले उन्हें फ़िल्म नहीं दिखाई गई थी?

प्रवक्ता ने कहा, “बिल्कुल दिखाई गई थी लेकिन हमने उसी समय अपनी चिंताएँ ज़ाहिर कर दी थीं और उनमें सुधार करने के लिए कहा था लेकिन अब जबकि फ़िल्म रिलीज़ हुई है तो कुछ भी सुधार किये बिना ही रिलीज कर दिया गया है.”

भारतीय वायु सेना के आपत्ति जताने एक दिन बाद ही रीयल लाइफ़ गुंजन सक्सेना की ओर से बयान जारी किया गया है.

गुंजन सक्सेना ने फ़िल्म से इतर अपने जीवन के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि उन्हें अपने साथ के ऑफ़िसर्स, सुपरवाइज़र और कमांडिंग ऑफ़िसर्स से सहयोग मिला था.

गुंजन ने एक सवाल के जवाब में कहा कि भारतीय वायु सेना ही फ़िल्म के मूल में है और वही इसकी धड़कन भी. उन्होंने आगे कहा, यह भारतीय वायु सेना की ट्रेनिंग और संस्कार ही हैं जिसने मुझे वो अतुलनीय चीज़ें करने का साहस दिया जो मैं कर सकी. ना केवल मैं, मुझे लगता है कि ये भारतीय वायुसेना की महान परंपरा और मूल्य ही है जिन्होंने वायु सेना की अलग-अलग ब्रांच में तैनात रहीं महिला अधिकारियों और मौजूदा समय में सेवा दे रही महिलाओं को आगे बढ़ने का हौसला दिया है.

आपको बता दें कि फ़िल्म रिलीज़ होने के कुछ सप्ताह पहले ही बीबीसी ने इस फ़िल्म की प्रेरणा यानी गुंजन सक्सेना से बात की थी. इस बातचीत के पहले गुंजन यह फ़िल्म देख चुकी थीं.

फ़िल्म में जान्हवी कपूर को टॉयलेट, चेंज रूम जैसी परेशानियों से गुज़रते हुए दिखाया गया है.

जब बीबीसी ने गुंजन से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “बहुत ही कम महिला पायलट उस समय भारतीय वायुसेना में थीं. मेरे पहले के बैच में छह-सात लड़कियां थीं. जब मैं अकादमी पहुंची तो वहां इंफ्रास्ट्रक्चर था क्योंकि वहां दो साल हो चुके थे. सबकुछ तैयार हो चुका था लेकिन जब हम उधमपुर बेस पहुंचे यानी मैं और मेरी बैचमेट श्री विद्या तो हम पहले फीमेल पायलट थे जो पहली बार वहां उस बेस या यूनिट पहुंचे थे. तो थोड़ा समय लगा इंफ्रास्ट्रक्चर को तैयार होने में और हां थोड़ा ऐडजस्ट करना पड़ा… लेकिन यह सबकुछ ऐसा नहीं था जिसे हम संभाल नहीं सकते थे क्योंकि हमारी ट्रेनिंग ऐसी होती है कि हमें यह सब कुछ डील करने के लिए तैयार किया था.’

रही बात फ़िल्म की तो फ़िल्म में कहीं भी गुंजन की बैचमेट श्री विद्या का ज़िक्र नहीं है जबकि वो भी उधमपुर बेस पर गुंजन के साथ थीं.

 

अब आगे क्या?

फ़िल्म के कुछ दृश्यों को लेकर भारतीय वायुसेना ने आपत्ति दर्ज कराई है लेकिन फ़िल्म के निर्माताओं का इस पर जवाब स्पष्ट नहीं है.

इस संबंध में जब हमने धर्मा प्रोडक्शन और नेटफ़्लिक्स से बात करने की कोशिश की पर उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी.

भारतीय वायुसेना की आपत्ति के संदर्भ में रिपोर्ट्स के हवाले से कहा जा रहा है कि सेंसर बोर्ड को भी शिकायत दर्ज करायी गई लेकिन चूंकि यह फ़िल्म ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर रिलीज़ हुई है तो संभव है कि सेंसर बोर्ड इसमें कोई हस्तक्षेप ना करे.

सेंसर बोर्ड से जुड़े एक शख़्स ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि सेंसर बोर्ड इसमें दख़ल नहीं दे सकता क्योंकि यह फ़िल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ हुई है और अभी तक ओटीटी प्लेटफॉर्म सेंसर के अधीन नहीं आया है.

 

लेकिन क्या फ़िल्म रचनात्मकता के आधार पर यह छूट ले सकती है?

लगभग हर फ़िल्म की तरह ये फ़िल्म भी एक डिस्क्लेमर के साथ शुरू होती है. लेकिन इसमें एक और डिस्क्लेमर आता है.

इस दूसरे डिस्क्लेमर में साफ़ शब्दों में लिखा गया है कि यह फ़िल्म फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट गुंजन सक्सेना के जीवन की घटनाओं पर आधारित है. इस फ़िल्म को बनाने में फ़िल्ममेकर्स ने क्रिएटिव लिबर्टी ली है. सिनेमैटिक एक्सप्रेशन्स के लिए नाटकीयता का सहारा लिया गया है.

लेकिन अब सवाल यही है कि प्रेरणा के नाम पर कितनी छूट ली जा सकती है?

इस संबंध में वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं, “कोई फ़िल्म रचनात्मकता के आधार पर कितनी छूट ले सकती है इसका कोई तय मानक तो नहीं है लेकिन यह निश्चित तौर पर सही है कि इस फ़िल्म में कुछ ज़्यादा ‘लिबर्टी’ ली गई है. वो भी एक ऐसे संस्थान को लेकर जो देश के गौरव से जुड़ा हुआ है.”

वो कहते हैं कि फ़िल्म में जिस तरह से पुरूषों और महिलाओं के बीच भेदभाव को दिखाया गया है उसे देखकर कोई राय बनाने से पहले ये समझना चाहिए कि वो शुरुआती वक़्त था जब भारतीय वायुसेना ने महिलाओं के लिए द्वार खोले थे, यह क़दम ही अपने आप में यह बताने के लिए पर्याप्त है कि वायु सेना ने उस वक़्त भेदभाव को ख़त्म करने के उद्देश्य से ही यह पहल की होगी.


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August 12, 20201min00

कम ही लोगों को इस बात का इल्म है कि राहत बॉलीवुड के लिए गाने भी लिखा करते थे. तो चलिए आपको बताते हैं उन गानों के बारे में जो राहत इंदौरी की कलम से निकले और जबरदस्त हिट रहे.

दिग्गज शायर राहत इंदौरी ने मंगलवार को इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उनकी तबीयत बीते काफी वक्त से खराब चल रही थी और हाल ही में उन्हें कोरोना पॉजिटिव पाया गया था. राहत की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई. राहत बतौर शायर तो बहुत मशहूर थे ही लेकिन साथ ही उन्होंने बॉलीवुड के लिए भी तमाम नगमे लिखी थीं.

कम ही लोगों को इस बात का इल्म है कि राहत बॉलीवुड के लिए गाने भी लिखा करते थे. तो चलिए आपको बताते हैं उन गानों के बारे में जो राहत इंदौरी की कलम से निकले और जबरदस्त हिट रहे. हम यहां पर आपको उनमें से कुछ गानों का लिंक भी उपलब्ध करा रहे हैं ताकि आप उन्हें यहीं पर सुन भी सकें.

राहत इंदौरी ने मीनाक्षी फिल्म में ये रिश्ता सॉन्ग लिखा था और फिल्म करीब में उन्होंने चोरी चोरी जब नजरें मिली सॉन्ग लिखा था जो कि बहुत पॉपुलर हुआ. फिल्म हमेशा में राहत इंदौरी ने ऐ दिल हमें इतना बता सॉन्ग लिखा था जिसे उदित नारायण ने आवाज दी थी. फिल्म मर्डर में राहत ने दिल को हजार बार रोका रोका रोका गाना लिखा था जो कि काफी सुना गया.

 

 

ये गाने हुए मशहूर

इसी तरह फिल्म इश्क, तमन्ना, जुर्म और मुन्ना भाई एमबीबीएस जैसी फिल्मों के लिए राहत साहब ने छन्न छन्न, तुमसा कोई प्यारा, मेरी चाहतों का समंदर तो देखो, नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम जैसे गाने लिखे थे जो कि काफी पॉपुलर हुए. हालांकि आमतौर पर फिल्म के गानों का क्रेडिट सिंगर या उस फिल्म में काम करने वाले एक्टर ले जाते हैं इसलिए बहुत से लोगों को इस बात की जानकारी नहीं है कि बॉलीवुड गानों के लिरिक्स लिखने में भी राहत धुरंधर रहे थे.


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August 5, 20201min00

कविता-कहानियां लिखने वाली एक शांत-सी लड़की थी. पियानो बजाती थी. सपनों में खोई रहने वाली. 90 के दशक में आई बॉलीवुड फिल्मों की हीरोइन जैसी. बच्चों के लिए कहानियां लिखने में दिल रमता था उसका. ’20 जातक कथाएं’ नाम से एक किताब भी छपी थी. जी जाती, तो शायद कई किस्से-कहानियां लिखती. कई किताबें आतीं उसकी, लेकिन ऐसा हो न सका.

नियति को मंजूर था जासूस बन जाना. और इसी में अपनी जान एक ऐसी लड़ाई में खो देना, जो इतिहास का हिस्सा बनी. ऐसी लड़ाई, जो 1930 के दशक से शुरू हुई और द्वितीय विश्व युद्ध पर आकर ख़त्म हुई.

लड़की का नाम था नूरुन्निसा इनायत खान. उर्फ़ नूर. उर्फ़ नोरा बेकर.

लड़ाई थी उभरते आ रहे नाज़ी जर्मनी के खिलाफ.

अब एक फिल्म आ रही है. ‘अ कॉल टू स्पाई’ के नाम से. उसमें राधिका आप्टे नूर का किरदार निभा रही हैं.

 

 

कौन थीं नूर?

1914 में जन्म हुआ. मॉस्को में. ये रशिया नाम के देश की राजधानी है. इनके पिता इनायत खान भारतीय मूल के थे. उनका बड़ा नाम था. सूफी गायक. भारतीय मुस्लिम घराने की पैदाइश. उनकी मां यानी नूर की दादी सीधे टीपू सुल्तान के खानदान से जुड़ी थीं. इनायत की पत्नी ओरा रे बेकर (पीरानी अमीना बेगम). इन दोनों के चार बच्चे. विलायत. हिदायत. इनायत. और खैर उन निसा.

इनायत खान ने अपने बच्चों को गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों और सूफी संगीत की रौ में बहाकर पाला-पोसा. इनके चारों बच्चों में नूर सबसे बड़ी थी. नूर के जन्म के फ़ौरन बाद इनका परिवार रशिया से लंदन चला गया था. उसके बाद वो लोग फ्रांस चले गए थे. जब इनायत खान की मौत हुई, तो परिवार की जिम्मेदारी नूर ने उठा ली. दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत के बाद जब जर्मनी ने फ्रांस पर आक्रमण कर दिया, तो नूर का परिवार वापस भाग कर इंग्लैंड आ गया.

यहीं नूर ने अपने जीवन का सबसे बड़ा फैसला लिया. फैसला था ब्रिटिश सरकार के लिए काम करने का.

 

अपनी मां के साथ नूर.

 

पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर

1940 में Women’s Auxilliary Air Force जॉइन किया इनायत ने. वहां पर वो वायरलेस ऑपरेटर बनीं. ऑपरेटर्स महत्वपूर्ण जानकारी को मोर्स कोड में बाहर भेजते थे, ऐसे कि किसी को पता न चल पाए. आपने अगर ‘राजी’ फिल्म देखी हो, तो उसमें आपने आलिया भट्ट के किरदार सहमत को सन्देश भेजते हुए देखा होगा. टिक-टिक करते हुए एक मशीन पर. वो मोर्स कोड होता है. उसी का इस्तेमाल करके नूर महत्वपूर्ण जानकारी भेजती थीं.

1942 में नूर ने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल द्वारा शुरू किए गए प्रोग्राम स्पेशल ऑपरेशन्स एग्जीक्यूटिव (SOE) को जॉइन किया. उनका नेचर ऐसा नहीं था कि वो जासूस बन सकतीं. बड़ी ही लापरवाह टाइप थीं. कोड की किताबें खुली छोड़ देती थीं. लेकिन मुंह बंद रखना जानती थीं और काफी समझदार थीं. उनकी ट्रेनिंग काफी तगड़ी वाली हुई. SOE के जो अंडरकवर एजेंट होते थे, उनका काम था यूरोप के भीतर हो रही छोटी-छोटी क्रांतियों को बढ़ावा देना, ताकि वहां से जर्मनी का कंट्रोल कमजोर पड़ जाए. उनका कोड नेम मैडेलाइन (Madelein) था.

1943 में वो पेरिस में SOE बनकर जाने वाली पहली महिला थीं. उनके पेरिस पहुंचते ही गेस्टापो (हिटलर की सीक्रेट पुलिस. जैसे स्कॉटलैंड यार्ड या इजरायल का मोसाद है, वैसे ही) ने बड़ा छापा मारा था, और वो इकलौती ऑपरेटर बच गई थीं. अगले तीन महीनों तक नूर अपना हुलिया बदलती, गेस्टापो को चकमा देती रहीं. पूरी खबर लन्दन भेजती रहीं. आखिरकार एक डबल एजेंट ने धोखा देकर उन्हें पकड़वा दिया. जिस नेटवर्क में जासूस महीने भर मुश्किल से बच पाते थे, उस नेटवर्क में नूर तीन महीने बच गई थीं.

जब उन्हें पकड़ा गया, तब भी उन्होंने बचकर भाग निकलने की पूरी कोशिश की. छह तगड़े पुरुष लगे उनको पकड़ने में. तिस पर भी बार-बार नूर ने भागने की कोशिश की. एक बार बाथरूम की खिड़की से निकलकर ड्रेन पाइप के जरिये. लेकिन गार्ड्स ने शोर सुनकर उनको पकड़ लिया. जब नूर ने एक बार और भागने की कोशिश की, तो उन्हें जंजीरों में बांधकर अकेले कैद कर दिया गया. उनको टॉर्चर करते हुए सवाल पूछे गए. जो औरत प्रैक्टिस में सवालों से डर जाती थी, उसने पूरे प्रोसेस में मुंह तक नहीं खोला.

एक साल तक कैद रहने के बाद नूर को दचाऊ कंसंट्रेशन कैम्प में भेज दिया गया. उनके साथ आने वाले लोगों को तुरंत मौत के घाट उतार दिया गया. नूर को 13 सितम्बर, 1944 को गोली मार दी गई. जो लोग वहां मौजूद थे, उनके हिसाब से जब नूर को गोली मारी गई, तो उनका आखिरी शब्द था ‘Liberte’

यानी आज़ादी.


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July 16, 20201min00

आजकल बॉलीवुड वाले बायोपिक बहुत बना रहे हैं. बायोपिक माने किसी नामी व्यक्ति की लाइफ पर फिल्म. उस व्यक्ति की लाइफ को दो से ढाई घंटे के अंदर थोड़े नाटकीय तरीके से परोसा जा रहा है. इतनी बायोपिक्स बन रही हैं कि कई बार फिल्म-मेकर्स के बीच ‘मैं पहले-मैं पहले’ वाली होड़ जैसा कुछ दिखाई देता है. पहले स्पोर्ट्स पर्सन, ऐतिहासिक व्यक्तिव वगैरह पर बायोपिक बना करती थी. फिर नेताओं का नंबर आया.  नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह, बाल ठाकरे के बाद अब इस लिस्ट में एक और नेता का नाम जुड़ गया है. वो हैं मुलायम सिंह यादव. उत्तर प्रदेश के तीन बार के मुख्यमंत्री, मैनपुरी से लोकसभा सांसद और समाजवादी पार्टी को बनाने वाले. यूपी की राजनीति मुलायम के बिना अधूरी है.

मुलायम की लाइफ पर जो फिल्म बनी है उसका नाम है ‘मैं मुलायम सिंह यादव’. ट्रेलर आ गया है.

 

 

क्या है ट्रेलर में?

ट्रेलर में दिखाया है कि एक लड़का है, जो पहलवानी करता है. अच्छी पहलवानी. बड़े-बड़े नेताओं की नज़र उस पर टिकी होती है. उसे पॉलिटिक्स में लाने की प्लानिंग होती है. वो राजनीति में आ भी जाता है. इसी दौरान केंद्र में उस वक्त इंदिरा गांधी की सरकार होती है, जिनके खिलाफ लोग आवाज़ उठाना शुरू कर देते हैं. फिर देश में इमरजेंसी लग जाती है.

पहलवान लड़का, जिसका नाम मुलायम रहता है, उसे पकड़कर जेल भेज दिया जाता है. जेल में उसे काफी प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है. बाहर आने के बाद वो राजनीति में और भी बड़े झंडे गाड़ने लग जाता है. यूपी की राजनीति में कद ऊंचा होने लगता है. उसके खिलाफ साजिश होती है, मारने की प्लानिंग होती है, गोलियां भी चलती हैं, लेकिन वो किसी तरह इन सबसे लड़कर आगे बढ़ता है.

 

कौन-कौन है? किसने बनाई?

एक्टर अमित सेठी मुलायम बने हैं. उनके अलावा मिमोह चक्रवर्ती, गोविंद नामदेव, मुकेश तिवारी, सुप्रिया कार्निक, सयाजी शिंदे भी अहम रोल में हैं. फिल्म को सुवेंदु राज घोष ने डायरेक्ट किया है. मीना सेठी मंडल ने प्रोड्यूस किया है. प्रोडक्शन हाउस एम.एस. फिल्म्स एंड प्रोडक्शन्स है.

फिल्म 2 अक्टूबर को रिलीज़ हो रही है. कहां रिलीज़ होगी, अभी जानकारी नहीं दी गई है. ‘मैं मुलायम सिंह यादव’ नाम के यूट्यूब अकाउंट ने ट्रेलर पोस्ट किया है. लिखा है-

ये उस किसान के बेटे की प्रेरणादायक कहानी है, जो राज्य का सुप्रीम लीडर बना.

ट्रेलर कैसा है, उस पर हम ज्यादा कुछ नहीं कहेंगे. आप खुद ही देखें और फैसला करें. ये रहा ट्रेलर-


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July 8, 20205min00

हम लॉकडाउन से अनलॉक फेज़ में आ गए हैं. और रुके हुए काम अब धीरे-धीरे शुरू हो रहे हैं. फिल्मों की शूटिंग भी शुरू हो रही है. इसके लिए अक्षय कुमार भी पूरी तरह से तैयार हो चुके हैं. उन्होंने सोशल मीडिया के ज़रिए बताया कि उनकी फिल्म ‘बेल बॉटम’ की शूटिंग अगस्त से शुरू हो जाएगी.

अक्षय ने फिल्म से जुड़े लोगों के साथ तस्वीर भी शेयर की. लिखा,

‘जो हम सबसे अच्छे से करते हैं, वो करने के लिए उत्साहित हूं. काम पर वापस जाने का वक्त आ गया है. ‘बेल बॉटम’ अगले महीने फ्लोर पर आएगी.’

 


फिल्म एनालिस्ट तरण आदर्श ने भी इस पर ट्वीट किया. बताया कि फिल्म की शूटिंग यूनाइटेड किंगडम (UK) में होगी. लिखा,

‘UK में अगस्त से ‘बेल बॉटम’ की शूटिंग होगी. लॉकडाउन के बाद देश के बाहर शूट होने वाली ये पहली फिल्म है.’

 

कौन-कौन हैं फिल्म में?

अक्षय कुमार, वाणी कपूर, लारा दत्ता और हुमा कुरैशी अहम रोल में हैं. रंजीत एम. तिवारी डायरेक्ट कर रहे हैं. वासु भगनानी, जैकी भगनानी, दीपशिखा देशमुख, मोनिशा आडवाणी, मधु भोजवानी और निखिल आडवाणी प्रोड्यूस कर रहे हैं. फिल्म 2 अप्रैल, 2021 को रिलीज़ होगी. ये सारी जानकारी तरण आदर्श ने दी.

 


अब जैसे ही फिल्म की शूटिंग की जानकारी सामने आई, ट्विटर पर #Bellbottom ट्रेंड करने लगा. फिल्म जब आएगी, तब आएगी. इस वक्त हम आपको फिल्म के बहाने से उस पैंट की कहानी बताएंगे, जिसके नाम पर इस फिल्म का नामकरण हुआ है.

 

क्या है बेल बॉटम?

एक पैंट है. ऐसा पैंट, जिसका घेर घुटनों के बाद से चौड़ा होता जाता है, और मोहरी तक, यानी टखनों तक पहुंचते-पहुंचते ये काफी ज्यादा घेर वाला हो जाता है.

ये पैंट ट्रेडिशनल बेल यानी घंटी की तरह दिखता है. जैसे कि एक घंटी धीरे-धीरे चौड़ी होती जाती है, वैसे ही इस पैंट का घेर भी चौड़ा होता जाता है. इसी घंटी के आकार की तरह दिखने की वजह से इसका नाम बेल बॉटम पड़ा.

 

फैशन में कब और कैसे आया?

शुरुआत 200 साल पहले हुई. अमेरिका और ब्रिटेन से. 19वीं सदी की शुरुआत में यूनाइटेड स्टेट्स नेवी में काम कर रहे जहाजियों ने बेल बॉटम पहनना शुरू किया था. ‘दी गार्डियन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जहाजियों ने कामकाज में सहुलियत के मकसद से बेल बॉटम पहनना शुरू किया था. पहला अगर काम करते वक्त कोई व्यक्ति गिर जाए, तो उसके पैंट के ज़रिए उसे पकड़ने में आसानी होती थी. दूसरा अगर ये पैंट गीला हो जाए, तो उतारने में भी आसानी होती थी.

‘यूरोपियन फैशन हेरिटेज एसोसिएशन’ के मुताबिक, जहाजियों का बेल बॉटम पहनने के पीछे एक और कारण था, ये कि वो आसानी से नीचे से फोल्ड हो जाते थे. बेल बॉटम पहनने का चलन बाद में ब्रिटिश रॉयल नेवी ने भी अपना लिया था. 19वीं सदी में ही.

 

US नेवी के जहाजी बेल बॉटम पहने हुए. (फोटो- वीडियो स्क्रीनशॉट Decades TV Network)

 

आम जनता तक कब पहुंचा?

19वीं सदी में बेल बॉटम केवल नेवी की यूनिफॉर्म बना रहा. आम लोगों के बीच ये 1960 के दशक में पॉपुलर हुआ. यूरोप और US में लोग शान से इसे पहनने लगे. इसका क्रेडिट काफी हद तक अमेरिकी रॉक कपल सोनी एंड चेर (Sonny & Cher) को जाता है.

 

कौन हैं सोनी एंड चेर और क्या किया था?

सोनी बोनो अमेरिकन सिंगर और एक्टर थे. उनकी पत्नी थीं चेर. वो भी एक्ट्रेस और सिंगर थीं. 1970 के दशक में दोनों का एक कॉमेडी शो आता था. दोनों ने अपने इस शो में बेल बॉटम पहना था, जिसकी वजह से ये पैंट काफी पॉपुलर हो गया था.

70 के दशक में जितने भी म्यूज़िकल बैंड थे, उनमें शामिल लोग ज्यादातर बेल बॉटम पहनते थे. इसी दशक के आखिर तक इस पैंट की कुछ और वैरायटी सामने आईं. जैसे लून पैंट्स और एलिफेंट बेल्स.

 

लून पैंट्स- इसमें और भी ज्यादा घेर दिया जाने लगा.

एलिफेंट पैंट्स- ये लून पैंट्स की तरह ही थे, लेकिन उनसे ज्यादा लंबे होते थे. आमतौर पर इनके साथ हाई-हील्स पहने जाते थे. और ये पैंट्स हील्स को पूरी तरह ढक देते थे.

 

बेल बॉटम का जाना और लौटकर आना

1980 का दशक. फैशन बदल गया. स्किन-टाइट ट्राउज़र्स का चलन बढ़ा. लेकिन बेल बॉटम ने वापसी की. 90 के दशक के आखिरी के बरसों में. नए नाम के साथ, ‘बूट कट’. इसमें मोहरी की चौड़ाई बेल बॉटम से थोड़ी कम कर दी गई. फिर जीन्स भी बूट-कट स्टाइल के आने लगे. साल 2006 तक बूट-कट लड़के और लड़कियों के बीच काफी पॉपुलर रहा.

2006 में फिर से स्किन टाइट जीन्स का चलन आ गया. दस साल तक इन जीन्स ने जमकर राज किया, लेकिन 2015 के आस-पास से फिर से बेल बॉटम के विकसित रूपों ने वापसी की. अब लड़कियां जो पलाज़ो पहनती हैं उन्हें बेलबॉटम का एक प्रकार माना जा सकता है.

 

इंडिया में बेल बॉटम कब आया?

जैसा हमने वैश्विक स्तर पर बेल बॉटम के फैशन को देखा, इंडिया में भी इसका फैशन मिलता जुलता रहा. 60 और 70 के दशक में फिल्मों में हीरो और हीरोइन्स ने शान से बेल बॉटम पहना. चलन आम जनता तक पहुंचा. उन्होंने भी इसे अपना लिया.

 

‘डॉन’ फिल्म के एक सीन में बेल बॉटम पहने हुए अमिताभ बच्चन. (फोटो- वीडियो स्क्रीनशॉट)

 

एक फैशन ब्लॉगर हैं तान्या सचदेव. वो अपने ब्लॉग में लिखती हैं कि 1980 के दशक में इंडिया में डिस्को कल्चर बढ़ा. और बेल बॉटम्स की जगह नेरो बॉटम्स ने ले ली. फिर इस दौरान इंडस्ट्रीज़ भी विकसित हो रही थीं, ऐसे में फैक्ट्री में, मेकेनिकल इंडस्ट्री में और दुकानों में काम करने वाले लोग बेल बॉटम्स की वजह से दिक्कत महसूस करने लगे. इसलिए नेरो बॉटम्स का चलन बढ़ गया.

2000 के शुरुआती दिनों में बेल बॉटम ने वापसी की. कई वैरायटी में ये आए. फिर चले गए. फिर स्किन-टाइट जीन्स का सीज़न आया. फिर 2015 के आस-पास दोबारा बेल बॉटम्स ने वापसी की. अगर आज की बात करें तो मार्केट में अगर शॉपिंग करने जाओ, तो चौड़ी मोहरी वाले कई सारे पैंट्स, जीन्स दिखते. ये अभी भी फैशन में बने हुए हैं. तान्या सचदेव के शब्दों में कहें, तो फैशन मौसम की तरह है, जो कुछ-कुछ समय के अंतर के बाद रिपीट होता है.

मेरे आस-पास के लोगों ने बेल बॉटम्स को लेकर कहते हैं कि ये वो पैंट है, जिसकी मोहरी अक्सर साइकिल की चेन में फंस जाती थी.


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July 2, 20201min00

साइकिल गर्ल ज्योति कुमारी के जीवन पर आधारित फ़िल्म बनने जा रही है. रिपोर्ट के मुताबिक, शाइन कृष्णा ने ज्योति कुमारी पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला लिया है. कृष्णा ये फ़िल्म अपने तीन दोस्त फ़िरोज़, मिराज और सजिथ नांबियार के साथ मिल कर बनाएंगे.

फ़िल्म का डायरेक्शन कर रहे शाइन कृष्णा का कहना है कि फ़िल्म से संबंधित सभी राइट्स हासिल कर लिये गये हैं. अगस्त से फ़िल्म बनाने की तैयारी भी शुरू हो जाएगी. फ़िल्म में लॉकडाउन के दौरान ज्योति के जीवन में आये संघर्ष और उसका पिता को साइकिल पर बिठाकर बिहार पहुंचने का सफ़र दिखाया जाएगा. इसके अलावा फ़िल्म में ज्योति से जुड़ी कुछ अन्य चीज़ें भी दिखाई जाएंगी. फ़िल्म का निर्माण Wemakefilmz द्वारा किया जाएगा.

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अच्छी बात ये है कि ज्योति कुमारी के जीवन पर बन रही फ़िल्म की लीड एक्ट्रेस भी वही होंगी. यानि ज्योति ख़ुद ही ख़ुद की कहानी दर्शकों तक पहुंचाएंगी. वहीं उनके पिता के किरदार के लिये अभी एक्टर का सलेक्शन नहीं किया गया है. फ़िल्म को लेकर ज्योति ने खु़शी ज़ाहिर की है. ज्योति का कहना है कि उनका जीवन अब बहुत बदल गया है. सभी ने सपोर्ट और सम्मान दिया.

 

Jyoti Kumari

 

 

बता दें कि लॉकडाउन के दौरान ज्योति ने गुरुग्राम से दरभंगा तक पिता को साइकिल पर बिठा कर 1200 किमी का लंबा सफ़र तय किया था. इसके बाद हर तरफ़ ज्योति के साहस की चर्चा हो रही थी.


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June 27, 20205min00

सुशांत सिंह राजपूत की आख़िरी फ़िल्म ‘दिल बेचारा’ डिज़िटल प्लेटफॉर्म पर रिलीज़ होने जा रही है, लेकिन इस फ़ैसले से उनके कई प्रशंसक ख़ुश नहीं है. इनकी माँग है कि इस फ़िल्म को थिएटर में रिलीज किया जाना चाहिए.

फ़िल्म डिज्नी हॉटस्टार पर 24 जुलाई को आएगी. सुशांत सिंह राजपूत के दोस्त विकास गुप्ता ने भी इन प्रशंसकों की मांग का समर्थन किया है और फ़िल्म मेकर्स से गुज़ारिश की है कि वे सुशांत की फ़िल्म को सिनेमाघरों में रिलीज़ करने के बारे में विचार करें.

विकास ने ट्वीट किया, “भारत ‘दिल बेचारा’ को 70 एमएम पर्दे पर देखना चाहता है. फॉक्सस्टार हिंदी से गुज़ारिश है कि जब भी थिएटर खुलें, वे इस फ़िल्म को तब रिलीज़ करें.”

सुशांत सिंह राजपूत की फ़िल्म को थिएटर में रिलीज़ न करना प्रशंसकों का दिल तोड़ना होगा.”

इसी के साथ ही उन्होंने ReleaseDilBecharaINTheatre हैशटेग का इस्तेमाल किया.

 

इस बीच, अभिनेता राजकुमार राव ने कहा है कि वो सुशांत की फिल्म ‘दिल बेचारा’ को प्रोमोट करेंगे. राजकुमार ने अपने इंस्टाग्राम अकांउट पर फिल्म के पोस्टर को शेयर किया. सुशांत की डेब्यू फिल्म ‘काय पो छे’ और बाद में ‘राब्ता’ में उनके साथ काम कर चुके राजकुमार ने पोस्टर को एक रेड हार्ट इमोजी के साथ शेयर किया है.

 

 

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सुशांत की को-स्टार रहीं श्रद्धा कपूर ने भी इस फ़िल्म का पोस्ट शेयर किया है.

जाने माने संगीतकार एआर रहमान ने भी फ़िल्म की रिलीज़ की ख़बर को सुशांत की विरासत का उत्सव कहा है.

 

कुछ लोग नहीं हैं ख़ुश

लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ लोग फिल्म को ओटीटी पर रिलीज किए जाने के फ़ैसले से ख़ुश नहीं हैं और उन्होंने कुछ समय तक के लिए ही सही, लेकिन फ़िल्म को सिनेमाघरों में रिलीज किए जाने की मांग की है.

शिवम राणावत ने इंस्टाग्राम पर लिखा, “हम चाहते हैं कि ये फ़िल्म बड़ी स्क्रीन पर रिलीज़ हो !!!”ट्विटर पर भी कई लोगों ने फ़िल्म को बड़े पर्दे पर रिलीज़ करने की मांग की है.”

एक यूजर जतिन लखुवासिया ने ट्वीट किया, “ये सेलिब्रेटी सोशल मीडिया पर क्यों लिख रहे हैं कि दिल बेचारा उनकी आख़िरी फ़िल्म थी….बॉलीवुड माफ़िया के ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकते तो क्यों झूठी सहानुभूति दिखा रहे हैं ”

सुशांत 14 जून को अपने बांद्रा स्थित आवास पर मृत पाए गए थे.

पुलिस का कहना है कि सुशांत ने आत्महत्या की है. लेकिन इसकी वजह अब तक सामने नहीं आई है. ये भी बताया जा रहा है कि पिछले छह महीने से वह डिप्रेशन से लड़ रहे थे.

 


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June 17, 20205min00

सुशांत सिंह राजपूत को गुज़रे 2 रोज़ बीत चुके हैं. 15 जून को अपने मुंबई वाले घर में सुशांत की बॉडी मिली थी. 16 जून को मुंबई के ही विले पारले शवदाह गृह में उनका अंतिम संस्कार किया गया. लेकिन तब लेकर इस खबर के लिखे जाने तक सोशल मीडिया पर सुशांत की वजह से कई और सेलेब्रिटीज़ चर्चा में आ गए थे. इनमें करण जौहर से लेकर, आलिया भट्ट, सोनम कपूर और सलमान खान जैसे लोग शामिल थे. पब्लिक सुशांत की मौत का दोष इन लोगों के सिर मढ़ रही थी. क्योंकि ये सेलेब्रिटीज़ सुशांत की मौत के बाद सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें पोस्ट कर उन्हें श्रद्धांजली दे रहे थे.

सुशांत की आखिरी फिल्म ‘ड्राइव’ के प्रोड्यूसर करण जौहर ने सुशांत के साथ अपनी फोटो पोस्ट करते हुए लिखा-

”ये बहुत दिल तोड़ने वाला है. हमने जो समय साथ बिताया है, उसकी बड़ी मजबूत यादें हैं. मुझे यकीन नहीं हो रहा.  तुम्हारी आत्मा को शांति मिले दोस्त. जब हम शॉक से उबरेंगे, तो सिर्फ अच्छी यादें रह जाएंगी.

बीते साल तुम्हारे साथ टच में नहीं रहने के लिए मैं खुद को गुनहगार मानता हूं. मैंने कई बार ये महसूस किया कि तुम्हें अपनी ज़िंदगी शेयर करने के लिए लोगों की ज़रूरत होगी. लेकिन मैंने कभी अपने उन ख्यालों पर ध्यान नहीं दिया. मैं आगे ये गलती कभी नहीं दोहराऊंगा. हम एनरजेटिक और शोर-शराबे वाले माहौल में रहने के बावजूद अकेले होते हैं. हम में से कुछ इस चुप्पी और अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं. हमें सिर्फ संबंध बनाने की नहीं, बल्कि लगातार उसकी देखभाल करने की भी ज़रूरत है. सुशांत का यूं गुज़र जाना मेरे लिए आंख खोलने वाला अनुभव साबित हुआ है. मैं उम्मीद करता हूं आप सब भी वही महसूस कर रहे होंगे, जो इस समय मुझे लग रहा है. तुम्हारी मुस्कुराहट और झप्पी को मिस करूंगा.”

 

करण जौहर के ट्वीट का स्क्रीनग्रैब. करण ने यही मैसेज विस्तार से इंस्टाग्राम पर लिखा था, उसका हिंदी तर्जुमा हमने आपको पढ़वा दिया है.

 

करण के इस ट्वीट पर उन्हें लोगों ने आड़े हाथ लेते हुए नेपोटिज़्म को बढ़ावा देने वाला कहना शुरू किया. बात बढ़ते-बढ़ते यहां पहुंच गई कि सुशांत की मौत के पीछे करण जौहर जैसों का ही हाथ है. क्यों- क्योंकि पॉप-कल्चर में स्टार्स के स्टारडम का पैमाना इनके शो ‘कॉफी विद करण’ में जाने से मापा जाता है. करण के शो में अनन्या पांडे, तारा सुतारिया, इशान खट्टर, आदित्य रॉय कपूर जैसे लोग आ सकते हैं लेकिन सुशांत को उस शो पर कभी नहीं बुलाया गया. सिर्फ इसलिए क्योंकि वो ‘बॉलीवुड इन्साइडर’ नहीं थे. साथ ही लोगों ने करण को इस बात के लिए भी कोसा कि उन्होंने सुशांत सिंह राजपूत को बैन किया हुआ है. यहां देखिए वैसे ट्वीट्स के कुछ नमूने-

 

 

इसके साथ-साथ करण जौहर के शो में पूछे जाने वाले सवालों पर पब्लिक ने सवाल खड़े कर दिए. ‘कॉफी विद करण’ में एक सेग्मेंट होता है, जिसमें एक्टर्स को उनके एक्टिंग टैलेंट और सेक्स अपील के आधार पर रैंकिंग दी जाती है. यहां सीन में आती हैं आलिया भट्ट और सोनम कपूर जैसे एक्टर्स. आलिया ने सुशांत के बारे मे ट्वीट करते हुए लिखा-

”मैं गहरे सन्नाटे में हूं. मैं चाहे इस बारे में कितना भी सोच लूं, मेरे पास उसे बयां करने के लिए शब्द नहीं हैं. मैं पूरी तरह से हिल चुकी हैं. तुम बहुत जल्दी चले गए. तुम्हें हम सब मिस करेंगे. सुशांत के परिवार, उनके करीबियों और फैंस के प्रति मेरी संवेदनाएं.”

 

 

आलिया का ये ट्वीट करना था कि शॉक और गुस्से से आग बबूला बैठी जनता ने उन्हें सोशल मीडिया पर बुरा-भला कहना शुरू कर दिया. ‘कॉफी विद करण’ में करण जौहर ने आलिया भट्ट से सवाल किया कि इन तीन स्टार्स में से वो किसके साथ शादी करना चाहेंगी, किसके साथ हूक अप और किसे वो मार देना यानी इस लिस्ट से हटा देना चाहेंगी. इस लिस्ट में रणबीर कपूर, रणवीर सिंह और सुशांत सिंह राजपूत का नाम था. आलिया ने रणबीर को शादी के लिए चुना, रणवीर को हुक अप के लिए और उन्होंने सुशांत को इस लिस्ट से बाहर कर दिया. इसके फौरन बाद उन्होंने सुशांत को सॉरी कहा. आप वो वीडियो यहां देख सकते हैं-

 

यही चीज़ सोनम कपूर के साथ भी हुई. जैसे ही उन्होंने सुशांत के बारे में पोस्ट किया, लोगों ने ‘कॉफी विद करण’ का उनका भी वीडियो ढूंढकर निकाल लिया. सोनम ने इंस्टाग्राम पर सुशांत की फोटो पोस्ट कर लिखा-

”मैं आशा करती हूं कि तुम्हे शांति मिले.”

 

 

2014 में सोनम अपने पिता अनिल कपूर के साथ करण के शो पर पहुंचीं. यहां करण जौहर उनसे ये पूछ रहे थे कि बॉलीवुड में उनके मुताबिक कौन ‘हॉट’ है और कौन ‘नॉट’. यानी कौन हॉट है और कौन नहीं. सोनम ने विराट कोहली, रणबीर कपूर और इमरान खान को हॉट कहा लेकिन सुशांत का नाम सुनते ही वो चौंक गईं. सुशांत सुनते ही उनका पहला रिएक्शन था ‘हुं’. इसी सवाल के जवाब में सोनम ने आगे कहा-

”शायद हॉट. मुझे नहीं पता. मैंने उसकी फिल्में नहीं देखी हैं.”

सोनम का वो वीडियो आप यहां देख सकते हैं:

 


ये 2014 की बात है, तब सुशांत ‘काय पो छे’ और ‘शुद्ध देसी रोमैंस’ जैसी फिल्में कर चुके थे. लोगों ने इस बार सोनम पर निशाना साधते हुए लिखना शुरू किया कि अपने दम पर चपरासी बनकर भी दिखा दो तो मान जाएं. तुम चांदी के चम्मच के साथ पैदा हुई थी. और हमें लगा तुम सुशांत को जानती भी नहीं होगी, टाइप की बातें हुईं. एक बार फिर से बॉलीवुड में भाई-भतीजावाद की वाली बहस शुरू हुई.

 

 

स्टारकिड्स बनाम बाहरी एक्टर्स वाली बहस लंबे समय से चल रही है. लेकिन जिस कंफ्यूज़न में इन सभी स्टार्स को ट्रोल किया गया, उसके पीछे कमाल आर. खान की न्यूज़ एजेंसी केआरके बॉक्स ऑफिस की एक पुरानी ट्वीट का बड़ा हाथ था. 27 फरवरी, 2020 को KRKBoxOffice के हैंडल से एक ट्वीट आया, जिसमें सूत्रों के हवाले से बताया गया था कि धर्मा प्रोडक्शन (करण जौहर, ड्राइव के प्रोड्यूसर), साजिद नाडियाडवाला (नाडियाडवाला ग्रैंडसन और छिछोरे के प्रोड्यूसर), यशराज फिल्म्स (YRF), टी-सीरीज़, सलमान खान, दिनेश विजन और बालाजी (एकता कपूर) ने सुशांत सिंह राजपूत को बैन कर दिया है. यानी ये लोग उनके साथ काम नहीं करेंगे.

 

इसी ट्वीट की वजह से सोशल मीडिया पर जहर फैला हुआ है.

 

ये ट्वीट सुशांत की मौत के बाद अचानक से वायरल हो गया. सुशांत की डेथ के बाद से जो जहर सोशल मीडिया पर फैला हुआ है, उसका क्रेडिट इसी ट्वीट को जाता है. वैसे तो कमाल आर.खान को कोई सीरियसली लेता नहीं है लेकिन इस तरह की विपरीत परिस्थिति में लोगों ने इस बात पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया कि ये ट्वीट किसने और कब किया है. और जिन लोगों का नाम इस लिस्ट में है, उनकी श्रद्धांजली के बाद पब्लिक ने उनको खूब खरी-खोटी सुनाई. करण जौहर के चक्कर में नेपोटिज़्म आया, जिसके फेर में आलिया और सोनम नप गईं. हालांकि सुशांत ने आत्महत्या क्यों की ये बात अब तक साफ नहीं हो पाई है. पुलिस मामले की जांच कर रही है.


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June 10, 20203min00

मंगलवार, 9 जून की सुबह से ट्विटर पर कुछ फिल्मों के नाम ट्रेंड हो रहे हैं.वो इसलिए क्योंकि फिल्म प्रड्यूसर मनीष मूंदड़ा ने ट्विटर पर लोगों से एक सवाल पूछा. कि भई पिछले तीन-चार सालों की ऐसी बॉलीवुड फिल्म बताइए जिसे आप मास्टरपीस मानते हों. सबसे ज्यादा जिन दो फिल्मों के नाम लिए गए, वो थीं ‘तुम्बाड’, और ‘अंधाधुन’. ‘तुम्बाड’ जब रिलीज हुई थी, तब इसे बॉलीवुड की सबसे धांसू हॉरर फिल्म कहा गया था. इसी ट्विटर ट्रेंड के बहाने, आज बात ‘तुम्बाड’ की.

 

 

मिटता अब तरु-तरु में अंतर,

तम की चादर हर तरुवर पर,

केवल ताड़ अलग हो सबसे अपनी सत्ता बतलाता है!

अंधकार बढ़ता जाता है!

दिखलाई देता कुछ-कुछ मग,

जिसपर शंकित हो चलते पग,

दूरी पर जो चीजें उनमें केवल दीप नजर आता है!

अंधकार बढ़ता जाता है!

‘तुम्बाड’ फिल्म का पहला सीन जब खुलता है, हरिवंशराय बच्चन की कविता स्क्रीन से निकल कर सामने बिखर जाती है. छनाके की इतनी जोर आवाज़ के साथ कि कुर्सी से नीचे झुक कर चुन लो. उस वक़्त वहां सिनेमा हॉल नहीं होता. वहां गद्देदार कुर्सी नहीं होती. उस क्षण से लेकर आने वाले एक घंटे चवालीस मिनट तक, वो दुनिया खुलती है जो इस दुनिया के बहुत पहले से मौजूद है. जो इस दुनिया के मिट जाने के बहुत बाद तक मौजूद रहेगी. जिसका इंसान के धरती पर होने या ना होने से फर्क नहीं पड़ता. वो उसके लिए एक बाहरी तत्त्व है.

 

‘तुम्बाड’ फिल्म, जो आंखों ने देखी

तीन पीढ़ियों में बंटी ये कहानी उस समय के भारत में आ रहे बदलावों की झलक देती चलती जाती है. महाराष्ट्र के तुम्बाड नाम के छोटे-से गांव में रहने वाली एक औरत अपने दो बच्चों और एक बूढ़ी लकड़दादी के साथ गुज़ारा कर रही है. उन्हीं में से एक बच्चा बड़ा होता है, और खोज निकालता है अपने परिवार का एक बहुत पुराना रहस्य, जो उसकी ज़िन्दगी बदल देता है. राज़ है- उसके परिवार का एक ऐसे देवता को पूजना जिसे सभी देवगणों ने नकार दिया था. वो देवता जो लालची है. वो देवता जो अनाज को तरसता है. वो देवता जिसका कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता, क्योंकि ये उसकी सज़ा थी. वो देवता, जिसका नाम लेना गुनाह है. हस्तर.

 

सो जा, वरना हस्तर आ जाएगा.

 

हस्तर के पास सोने के सिक्के हैं. उसे लेने के लिए विनायक बार-बार उसके पास जाता है. हर बारफ़ एक सिक्का लेकर लौटता है. अपनी जिंदगी गुज़र-बसर करता है. उसकी शादी होती है. उम्र ढलती है. उसका बच्चा बड़ा होता है. अब विनायक का बेटा तैयार है सोने के सिक्के लेने जाने के लिए. इसके बाद क्या होता है, वो सदियों से कहानियों में लिखा गया है. मंत्रों में उचारा गया है. दीवारों पर उकेरा गया है. लेकिन जब वो इस तरह जीवित होकर सामने आ जाता है, तो सच की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती. अपने भीतर की शर्म आड़े आकर छुपा लेती है.

 

‘तुम्बाड’ के पीछे की कथा, जो 25 सालों तक राही के मन में पली

मराठी लेखक नारायण धारप की लिखी हुई कहानी 1993 में राही अनिल बर्वे को उनके दोस्त ने सुनाई थी. राही ने एक इंटरव्यू में कहा कि काफी समय बाद जब उन्होंने वो कहानी पढ़ी, तो उन्हें उसमें कुछ ख़ास नहीं लगा. लेकिन उस दिन उनके दोस्त की सुनाई हुई कहानी उनके दिलो-दिमाग पर एक साया बनकर छा गई थी. कहानी थी हस्तर की.

प्रजनन और धन-धान्य की देवी ने जब दुनिया बनाई, तो हस्तर उसका पहला बच्चा हुआ. उसके बाद 16 करोड़ देवी-देवता और हुए, लेकिन हस्तर उसका सबसे प्यारा रहा. इस लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ कर रख दिया. देवी के दिए हुए धन पर कब्ज़ा कर लिया हस्तर ने. लेकिन उसके भीतर का लालच इतना बढ़ गया था कि उसने अपने भाई-बहनों के हिस्से का खाना भी छीनने की कोशिश की. इस पर नाराज़ होकर उसके भाई-बहनों ने उस पर हमला बोल दिया. हार जाने पर वो अपनी मां की शरण में गया. देवी ने उसकी जान बख्श देने की गुज़ारिश की. हस्तर की जानबख्शी हुई, लेकिन एक शर्त पर. वो ये कि उसे कहीं भी पूजा नहीं जाएगा. उसका नाम नहीं लिया जाएगा. कोई उसके बारे में बात नहीं करेगा. बेटे की इस हरकत से लाचार मां ने उसकी जान बचाए रखने के लिए उसे वापिस अपनी कोख में रख लिया. दुनिया हस्तर को भूल गई.

लेकिन एक दिन एक परिवार ने उसे याद किया. कालचक्र के पहिये से एक सींक टूट गई. हस्तर का मंदिर बना, और उसका शाप, एक परिवार के लिए वरदान बनकर सामने आया. इस वरदान की उपज काटने के लिए बने हथियार बड़े होते गए. पीढ़ी दर पीढ़ी दर पीढ़ी. लालच हलाहल की तरह उतरा कंठ से और नसों में फ़ैल गया. विडंबना ये थी, कि देवी की कोख से उपजे उसके पहले बच्चे का छू जाना ही अमरत्व दे जाता था. ये अमरत्व विष को नहीं काटता, लेकिन शिराओं का कम्पन बनाए रखने की कूवत उसमें विद्यमान है. जिसे हस्तर ने छू लिया, वो मर नहीं सकता. मौत के साथ गलबहियां करता हुआ खुद यमराज के पैरों पर भी लोट जाए, तो भी नहीं. लकड़दादी का बताया ये सच, फिल्म के अंत में जाकर इस तरह खुलता है, कि थमी हुई सांस कब धौंकनी की तरह चलनी शुरू हो जाती है, पता नहीं चलता.

 

‘तुम्बाड’ कहानी, जो नसों में उतर गई

एक फिल्म आई थी कुछ समय पहले. ‘एपोस्टल’. डैन स्टीवंस उसमें लीड किरदार में थे. जिसका नाम था थॉमस रिचर्डसन. (द एपोस्टल नाम से भी एक फिल्म आई थी, लेकिन वो दो दशक पुरानी थी, और उसकी कहानी दूसरी थी. ये अलग फिल्म है) कहानी है एक ऐसे टापू की जहां थॉमस की बहन जेनिफर को कैद कर लिया गया है, फिरौती की खातिर. वो उसे छुड़ाने उस द्वीप पर जाता है. वहां जाकर उसे पता चलता है कि उस टापू पर एक देवी रहती है. वो जीवन दे सकती है. सूख चुके पेड़-पौधों में जान फूंक सकती है. उसकी इस ताकत का फायदा उठाने के लिए वहां के मुखिया ने उसे बांध कर कैद कर लिया. उसके भोजन के लिए लोगों को कैद कर उन्हें पीस दिया जाता. फिर ज़बरदस्ती उसके गले के भीतर खून, मांस और मज्जा उतार देते, ताकि द्वीप पर पेड़-पौधे फल-फूल सकें. फसल हो सके.

 

थॉमस की बहन भी उसके खाने के लिए अब तैयार कर दी गई है. थॉमस उसे बचाने जाता है. वहां एक पेड़ से लपेट कर बांध दी गई देवी गुहार लगाती है थॉमस से, कि वो उसे आज़ाद कर दे. उसकी कोख थक चुकी है. वो अब और जीवन नहीं दे सकती. थॉमस उसे आग लगाकर आज़ाद कर देता है. लेकिन खुद घायल हो जाता है. फिल्म के अंत में एक बेहद खूबसूरत सीन है, जहां अधिक खून बह जाने के कारण थॉमस ज़मीन पर गिर जाता है. उसकी बहन और द्वीप के बाक़ी लोग नाव लेकर जा चुके हैं. वो नहीं जा सकता, वो थक चुका है. उसके शरीर से खून बहकर मिट्टी में मिल गया है. वहां से कोपलें फूट रही हैं. वो कोपलें धीरे-धीरे थॉमस के आस-पास लिपटती हैं. उसके भीतर घुस जाती हैं. उसके भीतर की बची हुई जान धरती सोख लेती है. जहां से जो आया था, वो वहां वापस चला जाता है.

माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंदे मोहि

एक दिन ऐसा आएगा मैं रून्दूंगी तोहि

तुम्बाड फिल्म के सबसे मुग्ध कर देने वाले दृश्यों में से एक वो है जब विनायक सोने की मुद्रा लेने के लिए देवी की कोख में उतरता है. उसकी दीवारें थरथरा रही हैं. एक जीवित कोख, जिसने पूरी दुनिया को जीवन दिया है, अपने पहलौठी के लाल को आश्रय दिए जस की तस बनी हुई है. उस में उतर कर हस्तर से सोना छीन लाना विनायक के लिए एक रूटीन बन गया है. इतना, कि उसका अपना बच्चा समझ गया है कि किस तरह की तैयारी करनी पड़ेगी उसे हस्तर से सोना छीनने के लिए. विनायक की मां एक मुद्रा में खुश थी. विनायक को कई मुद्राएं चाहिए थीं. विनायक के बेटे को पूरा खजाना चाहिए.

देवी की कोख पालने भर तक की है, बच्चा पेट से बड़ा नहीं हो सकता, जीवन का यही नियम है. जो उसके नियम नहीं मानता, उसका त्याग कर दिया जाता है. जन्म के साथ पैदा हुए और पले-बढ़े अंडाणु जीवन का केंद्र बिंदु बनकर प्रस्फुटित होते हैं. अगर उन्होंने अपने होने का काम सिद्ध नहीं किया, तो गर्भ उन्हें भी निकाल बाहर करता है. अगर भ्रूण में विकार हो, तो गर्भ उसे भी स्वीकार नहीं करता. क्योंकि तब वो एक बोझ बन जाता है. ज़रूरत से ज्यादा रक्त मांस मज्जा खींचता एक पिंड. उसके सृजन से कोख को कोई फायदा नहीं. भले ही गर्भ में आना नियति रही हो उसकी, लेकिन जैसा इस फिल्म के ट्रेलर में भी सुनाई देता है,

 

‘विरासत में मिली हर चीज़ पर दावा नहीं करना चाहिए’.

विनायक का बढ़ा लालच उस गर्भ में उतरा विकार है. वो निकाल दिए जाने लायक है. अपशिष्ट की तरह. इसका निर्णय और कोई नहीं ले सकता, सिर्फ वो कोख लेगी जिसने सब कुछ बनाया. उसे पाला-पोसा. उसके भीतर ऊभ-चुभ होती नसें महसूस कर लेती हैं कि विकार बढ़ गया है. इस विकार की एक मात्र काट उसे वहीं रोक देना है, वरना रक्तबीज की तरह वो बढ़ता चला जाएगा. हर बार की तरह, इस बार भी बलि देवी को लेनी होगी. रक्तपान करना पड़ेगा. सृजन के लिए संहार ज़रूरी है.

सिर्फ मानसून के मौसम में शूट हुई ये फिल्म उस समय की दुनिया सामने ले आती है. उस समय के कोंकणस्थ ब्राह्मणों का रहन-सहन, पहनावा, सब कुछ शीशे में उतार लिया गया है. जिन जगहों पर शूटिंग हुई है, वो नैचुरल लाइट में की गई है. जो जगहें हैं, उनमें से कई ऐसी हैं जहां कई सालों से किसी ने कदम नहीं रखा. इससे भी बढ़कर है इस फिल्म की प्रतीकात्मकता. देवी की जो छवि इस्तेमाल की गई है, वो पूरी दुनिया में कई जगह पर ‘सेक्रेड फेमिनिन’ यानी पवित्र देवी के रूप में दिखाई गई है. जो पेगन धर्म है, वो भी प्रकृति से जुड़े प्रतीकों की पूजा करता है. धरती अक्सर सेक्रेड फेमिनिन के रूप में पूजी जाती है.

डेनमार्क, स्वीडन और नॉर्वे के आस-पास के इलाके से उपजी नॉर्स माइथोलॉजी में फ्रेया (Freyja) को पूर्ति, उत्पत्ति, और युद्ध की देवी माना गया है. ये वही माइथोलॉजी है जिसके किरदार मार्वल स्टूडियोज की फिल्म्स में थॉर और लोकी के रूप में देखे जा सकते हैं.’ रैग्नारोक’ फिल्म में हेला नाम की देवी मौत की देवी थी, वो भी नॉर्स माइथोलॉजी का ही हिस्सा है. प्रकृति को पूजने वाले समूहों में गर्भ और उससे जुडी हर चीज़ पवित्र बताई जाती है. ‘तुम्बाड’ में देवी की कोख का एक सेन्ट्रल कैरेक्टर के रूप में उभरना अपने आप में एक क्रान्ति है सिनेमाई भाषा और लहजे में. इसके बारे में सोच कर वैसा का वैसा परदे पर उतार लाना एक उपलब्धि है जिसके लिए डिरेक्टर को बधाई दी जानी चाहिए.

 

हॉरर की बदलती परिभाषा

एक समय था जब हॉरर फिल्मों का नाम लेते ही रामसे ब्रदर्स का नाम आंखों के आगे आ जाता था. ‘अंधेरा’, ‘डाक बंगला’ और ‘वीराना’ जैसी फिल्में उनकी ही बनाई हुई थीं जिन्होंने भारत में काफी समय तक हॉरर फिल्मों का बाज़ार चलता रखा. इन सभी में सेक्स और डरावने भूतों की भरमार होती थी. काफी समय तक ये ट्रेंड चला, उसके बाद हॉलीवुड से पोजेशन या ‘ऊपरी हवा का लगना’ जैसी चीज़ें धीरे-धीरे फिल्मों में आईं. इनमें भी अधिकतर फोकस भूतों और उनके डरावनेपन पर रहा. पिछले कुछ सालों तक बॉलीवुड में हॉरर के नाम पर इसी तरह की फिल्मों का चलन बना रहा. अंधेरे कमरे, उनमें खड़े भूत, कब्रिस्तान में भटकती आत्माएं. इन सभी में हॉरर एक एक्सटर्नल फैक्टर की तरह रहा. फिल्ममेकिंग के पूरे प्रोसेस में एलिमेंट या तो हमेशा रोमांस का आगे रखा गया, या फैमिली का. हॉरर उसे चलाए या जोड़े रखने का एक बहाना भर था. पर हाल के समय में हॉलीवुड हो चाहे बॉलीवुड, डर की परिभाषा को रीडिफाइन किया जा रहा है. सीमा रेखाएं दुबारा खींची और मिटाई जा रही हैं.

 

ऐसा सीन, जिसे देख हॉल में बैठे लोगों की हल्की चीख निकल गई थी.

 

माइक फ्लैनगन की फिल्म ‘ऑक्यूलस’ (Oculus) हो, या फिर साउथ कोरिया के किम जी वून की ‘अ टेल ऑफ टू सिस्टर्स’ (A Tale Of Two Sisters). रिचर्ड बेट्स की ‘एक्सिज़न’ (Excision) हो या फिर एम नाइट श्यामलन की ‘स्प्लिट’ (Split), इन सभी फिल्मों ने दर्शक को डर के नए पहलू से रूबरू करवाया. इन सभी फिल्मों में डर किसी बाहरी एलियन चीज़ से नहीं था. अपने भीतर से धीरे-धीरे बाहर निकलता एक अनुभव था. हॉरर की इस परिभाषा में कई चीज़ें जुड़ीं. इंसानी स्वभाव के अलग-अलग हिस्सों का अपना रिएक्शन होता है डर को लेकर. उनसे उपजा भय भी कई रूप लेता है. ‘एक्सिजन’ में एना लिन मैकोर्ड का किरदार अपनी मेंटल हेल्थ को लेकर किन गहराइयों में पहुंच चुका है, ये उसके आस-पास के लोग देख भी नहीं पाते. फिल्म के कुछ दृश्यों में एना का किरदार पॉलीन जिस तरह की चीज़ें सोचता है, वो रोंगटे खड़े कर देने वाला है.

 

एक्सिजन फिल्म का एक दृश्य. (तस्वीर: IMDb)

 

अपने भीतर का डर पहचान कर उसका सामना कर पाना सबसे डरावनी चीज़ों में से एक है. उसे परदे पर देखना या उतारना तो दूर की कौड़ी है. शायद इसीलिए सब ये कर नहीं पाते. इससे भी ज्यादा ज़रूरी ये है कि भारत में बन रही हॉरर फिल्में अब भूतों को सिर्फ डराने के काम तक सीमित नहीं रख रहीं. जहां एक ओर ओरिजिनल लोक कथाओं और मिथकों पर फिल्में बनाने का रिस्क लिया जा रहा है (‘परी’, ‘स्त्री’) वहीं डर के मूल स्त्रोत को उसके सिंगल डाइमेंशन से निकाल कर मल्टी डाइमेंशन में लाया जा रहा है. डर अपने आप में सिर्फ एक भूत प्रेत या जिन्न के रूप में फलीभूत नहीं हो रहा, एक फैक्टर तक सीमित नहीं रह रहा. खुद में एक किरदार बन रहा है. ये एक अच्छी निशानी है.

‘तुम्बाड’ फिल्म को बनने में छह साल से ऊपर लगे हैं. इस मेहनत का फल मीठा है. आने वाली कई पीढ़ियों को सींच सकता है. इसे बनाए रखने की ज़रुरत है.



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