चुनाव कब टाले या रद्द किए जा सकते हैं? इसके नियम क्या होते हैं?

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बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल यानी बीटीसी. यह असम के चार जिलों- कोकराझार, उदालगुड़ूी, चिरंग और बाकसा से मिलकर बना है. यहां पर 4 अप्रैल को 40 सीटों पर चुनाव होने थे. लेकिन कोरोना वायरस के चलते यह हो न सका. असम चुनाव आयोग ने चुनाव को आगे खिसका दिया. लेकिन 27 अप्रैल को बीटीसी का मौजूदा कार्यकाल खत्म हो गया. ऐसे में यहां पर गवर्नर रूल यानी राज्यपाल का शासन लगा दिया गया. यानी अब चुनाव होने तक राज्यपाल जगदीश मुखी की देख-रेख में ही यहां पर काम होंगे. ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव कब-कब पोस्टपोन हो सकते हैं और इसके क्या प्रावधान हैं?

 

पहले जान लेते हैं अभी और कौन-कौन से चुनाव नहीं हुए

बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल के अलावा कई राज्यों में पंचायत, नगर पालिकाओं और नगर निगमों के तहत चुनाव होने थे. ये सब आगे बढ़ा दिए गए हैं. इन राज्यों में राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश शामिल हैं. इसी तरह सात राज्यों की 18 राज्यसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने थे. लेकिन कोरोना के चलते संसद और विधानसभाओं के सत्र स्थगित करने पड़े. साथ ही उपचुनाव भी टाले गए. इसके अलावा कई राज्यों में एमएलसी के चुनाव भी अटक गए. इसी वजह से महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे का विधान परिषद में जाना भी लटक गया.

 

अब जान लेते हैं चुनाव आयोग के अधिकार

चुनाव आयोग का गठन संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत किया गया है. अनुच्छेद 324 से अनुच्छेद 329 तक उसके काम और अधिकार के बारे में बताया गया है. अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र और शक्तिशाली निकाय बनाता है. चुनाव प्रक्रिया के दौरान चुनाव आयोग के काम में कोई दखल नहीं दे सकता है. यहां तक कि कई मामलों में तो न्यायपालिका भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती है. इसके अलावा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 भी उसके कामकाज का खाका खींच देता है.

1977 में मोहिंदर सिंह गिल बनाम चीफ इलेक्शन कमिश्नर और अन्य के केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने चुनाव आयोग की भूमिका साफ कर दी थी. कोर्ट ने कहा था कि चुनाव के दौरान अगर ऐसे हालात बनते हैं, जिनके बारे में कोई कानून नहीं है, तो निर्वाचन आयोग निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने के लिए अपने अनुसार कदम उठा सकता है.

संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत निर्वाचन आयोग को ऐसी शक्ति मिली है. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में चुनाव आयोग ने अनुच्छेद 324 का प्रयोग किया भी था. इसके तहत पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार तय समय से पहले ही रोक दिया गया था.

 

 

कब-कब चुनाव टाल सकता है चुनाव आयोग

सुप्रीम कोर्ट के वकील अनस तनवीर ने बताया कि चुनाव आयोग को संविधान के अनुच्छेद 324 और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 से काफी ताकत मिली हैं. इनमें मौजूद धाराओं के सहारे वह नियम तोड़े जाने पर चुनाव टाल या रद्द कर सकता है. अनुच्छेद 324 के बूते चुनाव आयोग अपने हिसाब से चुनाव कराने को स्वतंत्र है. साथ ही लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 52, 57 और 153 चुनाव रद्द करने या टाले जाने के बारे में बताती हैं.

 

किसी मान्यता प्राप्त पार्टी के उम्मीदवार की मौत पर

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 52 में एक खास प्रावधान किया गया है. इसके तहत यदि चुनाव का नामांकन भरने के आखिरी दिन सुबह 11 बजे के बाद किसी भी समय किसी उम्मीदवार की मौत हो जाती है, तो उस सीट पर चुनाव टाला जा सकता है, बशर्तें  उसका पर्चा सही भरा गया हो. उसने चुनाव से नाम वापस न लिया हो. मरने की खबर वोटिंग शुरू होने से पहले मिल गई हो. मरने वाला उम्मीदवार किसी मान्यता प्राप्त दल से हो. मान्यता प्राप्त दल का मतलब है ऐसे दल, जिन्हें पिछले विधानसभा या लोकसभा चुनाव में कम से कम छह फीसदी वोट हासिल हुए हों. सभी शर्तें पूरी होने पर रिटर्निंग अधिकारी चुनाव टाल सकता है.

राजस्थान में पिछले दो विधानसभा चुनावों में ऐसा हुआ है. 2013 में चुरू सीट पर बीएसपी उम्मीदवार की मौत के बाद चुनाव टाला गया था. इसी तरह 2018 में रामगढ़ सीट पर बीएसपी उम्मीदवार की मौत चुनाव से पहले हो गई थी,

 

दंगा-फसाद, प्राकृतिक आपदा जैसी इमरजेंसी में

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 57 इस बारे में प्रावधान है. इसमें बताया गया है कि यदि चुनाव वाली जगह पर हिंसा, दंगा या प्राकृतिक आपदा हो, तो चुनाव टाला जा सकता है. इस बारे में फैसला मतदान केंद्र का पीठासीन अधिकारी ले सकता है. हिंसा और प्राकृतिक आपदा अगर बड़े स्तर पर हो यानी पूरे राज्य में हो, तो फैसला चुनाव आयोग ले सकता है. अभी के हालात आपदा वाले ही हैं. कोरोना वायरस के चलते भीड़ इकट्ठी नहीं हो सकती. ऐसे में कई चुनाव आगे बढ़ाए चा जुके हैं.

2006 में सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह के मामलों को लेकर एक आदेश भी दिया था. यह मामला किशन सिंह तोमर बनाम अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन का था. इसमें कोर्ट ने कहा था कि प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित त्रासदी जैसे दंगा-फसाद में हालात सामान्य होने तक चुनाव टाले जा सकते हैं.

 

ईवीएम या मतपेटी से गड़बड़ी

किसी मतदान केंद्र पर मत पेटियों या वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ किए जाने पर भी वोटिंग रोकी जा सकती है. हालांकि आजकल ज्यादातर चुनावों में ईवीएम ही काम में ले जाती है. अगर चुनाव आयोग को लगे कि चुनाव वाली जगह पर हालात ठीक नहीं है या पर्याप्त सुरक्षा नहीं है तो भी चुनाव आगे बढ़ाए जा सकते हैं या फिर चुनाव रद्द किया जा सकता है. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 58 में यह प्रावधान है.

 

पैसों के दुरुपयोग या मतदाताओं को घूस देने का मामला

किसी जगह पर मतदाताओं को गलत तरीके से प्रभावित करने की शिकायत मिलने पर भी चुनाव रद्द या टाला जा सकता है. इसके अलावा किसी सीट पर पैसों के दुरुपयोग के मामले सामने आने पर भी चुनाव रोका जा सकता है. इस तरह की कार्यवाही चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत कर सकता है.

जैसे साल 2019 में तमिलनाडु की वेल्लौर लोकसभा सीट पर चुनाव रद्द करना. या साल 2017 में भारी मात्रा में कैश बरामद होने पर तमिलनाडु के राधाकृष्णानगर विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव को रद्द करना. इसी तरह साल 2016 में रिश्वत के मामलों की वजह से तमिलनाडु की ही अरावाकुरिचि और तंजावुर विधानसभा सीट के चुनाव रद्द हुए थे.

 

बूथ कैप्चरिंग

बूथ कैप्चरिंग, यानी जिस जगह पर वोट डाले जा रहे हों, उस पर कब्जा कर लेना. ऐसे हालात में भी चुनाव की नई तारीख का ऐलान किया जा सकता है. इसके लिए रिटर्निंग अधिकारी फैसला लेता है. वह ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर नई तारीख पर मतदान के लिए कह सकता है. यह आदेश भी लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 58 के तहत दिया जाता है.

 

 

इस तरह के मामले में 1995 का बिहार चुनाव बड़ा उदाहरण है. बिहार उस समय बूथ कैप्चरिंग के बदनाम था. ऐसे में उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन ने राज्य में कई चरणों में चुनाव कराने का आदेश दिया. साथ ही चार बार चुनाव की तारीखें भी आगे बढ़ाई.

 

सुरक्षा कारणों से

चुनाव आयोग को अगर लगे कि किसी सीट पर पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था नहीं है, तो वह चुनाव रद्द या टाल सकता है. इस तरह का मामला साल 2017 में आया था. महबूबा मुफ्ती ने अनंतनाग की लोकसभा सीट छोड़ दी थी. वह मुख्यमंत्री बन गई थीं. ऐसे में उपचुनाव के लिए चुनाव आयोग ने सुरक्षाबलों की 750 कंपनियां मांगी. यानी 75,000 जवान. लेकिन सरकार ने 300 कंपनियां ही दीं. लेकिन चुनाव आयोग ने बाद में अनंतनाग के हालात खराब बताते हुए चुनाव रद्द कर दिए थे.

इससे पहले 1990 में चुनाव आयोग ने हिंसा की आशंका के चलते पंजाब में चुनाव टाल दिए थे. इसी तरह का वाकया 1991 के लोकसभा चुनावों में भी हुआ. पहले फेज की वोटिंग के बाद राजीव गांधी की हत्या हो गई. इसके बाद अगले दो फेज के चुनाव करीब एक महीने टाले गए थे.

 




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