घोस्ट स्टोरीज़ : मूवी रिव्यू (नेटफ्लिक्स)

0


‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ डिजिटल में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार थीं. काफी समय से बीमार थीं. दफ़्तर से भी छुट्टी पर चल रही थीं. एक बेटा था उनका. दूसरे शहर में काम करता था. पत्रकार एक दिन अपने फ्लैट में मरी हुई मिलीं. अंदर से घर बंद था. सुना, अपने बेटे के लिए अक्सर रोती थीं. ‘घोस्ट स्टोरी’ के एक सीन को देखकर लगता है कि कहीं न कहीं ज़ोया अख्तर ने इस न्यूज़ को ज़रूर पढ़ा होगा.

ज़ोया अख्तर, अनुराग कश्यप, दिबाकर बैनर्जी और करण जौहर. ‘बॉम्बे टॉकीज़’ और ‘लस्ट स्टोरीज़’ के बाद चारों डायरेक्टर्स फिर से एक साथ आए हैं. ‘घोस्ट स्टोरीज़’ में. 2 घंटे 24 मिनट की ये मूवी, बड़े पर्दे पर रिलीज़ न होकर 1 जनवरी, 2020 को ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म ‘नेटफ्लिक्स’ पर रिलीज़ हुई है.  ‘घोस्ट स्टोरीज़’ में कुल 4 कहानियां हैं. जैसे इन डायरेक्टर्स की पहली दो मूवीज़ में थीं. इस तरह की मूवीज़ को एंथोलॉजिकल मूवीज़ कहा जाता है.

 

स्टोरीज़

कहानी 1. डायरेक्टर – ज़ोया अख्तर.

एक नर्स है. समीरा. एक बूढ़ी, बीमार औरत, मिसेज़ मलिक की देखभाल के लिए उसके घर आई है. एक तरफ ये बूढ़ी और रहस्यमयी औरत है, दूसरी तरफ समीरा की बिखरी, अनस्टेबल पर्सनल और प्रफेशनल लाइफ. ज़ोया अख्तर की ये कहानी दिखाती है कि मिसेज़ मलिक के साथ जो बुरा हुआ है, उससे समीरा को क्या सीख मिलती है.

नेशनल अवॉर्ड विनर एक्ट्रेस सुरेखा सीकरी अपने पहले ही सीन से क्रीपी और रहस्यमयी लगती हैं. जाह्नवी कपूर का किरदार भी काफी चैलेंजिंग है और उसे वो इस तरह से प्ले करती हैं कि लगता है एक एक्टर के तौर पर ग्रो कर रही हैं. हालांकि कभी उनका साउथ इंडियन और कभी मराठी एक्सेंट कन्फ्यूज़न पैदा करता है कि ये उनके रोल की मांग थी ये उनकी एक्टिंग की कमी है.

इस वाले पार्ट की सबसे अच्छी बात, इसका क्राफ्ट और इसकी डरावनी फीलिंग है. साथ ही इस वाले पार्ट की बाकी के तीन पार्ट से बेहतर क्लोज़िंग है. बिटर-स्वीट. जिसमें मौत है, तो उम्मीद भी है.

सबसे बड़े नेगटिव्स की बात करें तो इस वाले पार्ट का अत्यधिक स्लो पेस होना और कहानी के बदले मोमेंट्स पर फोकस किया जाना खटकता है.

 

कहानी 2. डायरेक्टर – अनुराग कश्यप.

एक प्रेगनेंट लेडी है. नेहा. उसके घर में उसकी बड़ी बहन का लड़का अंश दिनभर रहता है और शाम को अपने पापा के साथ घर चला जाता है. क्यूंकि अंश के पापा वर्किंग हैं और मां गुज़र चुकी है. अंश, नेहा की प्रेगनेंसी से इंसिक्योर है, कि जब मौसी का खुद का बच्चा होगा तो उसे उतना प्यार नहीं मिलेगा. दूसरी तरफ नेहा के पास्ट, उसके पालतू कौव्वे और उसके गुड़ियों वाले कमरे का एक अलग ही रहस्य है.

नेहा के किरदार में जो घिनौनापन दिखाना था उसे सोभिता धूलिपाला दिखाने में सफल रही हैं. वहीं अंश के किरदार और उसके बनते बिगड़ते एक्सप्रेशंस को एक चाइल्ड एक्टर ज़ैकरी ब्रैज़ ने बहुत अच्छे से बरता है.

इस वाले पार्ट की सबसे अच्छी बात है इसका ‘काफ़्काएस्क (Kafkaesque)‘ ट्रीटमेंट जो अनुराग कश्यप की मूवी ‘नो स्मोकिंग’ में भी देखने को मिला था. सबसे बुरी बात इसका बहुत ज़्यादा घिनौना होना है. साथ ही गागर में सागर भरने के प्रयास ने इस वाले पार्ट को काफी बोझिल भी बना दिया है.

 

कहानी 3. डायरेक्टर – दिबाकर बनर्जी.

एक अनाम बंदे की एक रिमोट गांव में पोस्टिंग होती है. वो जॉइनिंग के लिए वहां जाता है तो उसे पता चलता है कि वहां पर सभी लोग या तो आदमखोर हो चुके हैं या इन आदमखोरों के शिकार. दो बच्चे बचे हैं. और कहानी इन तीनों की ही सर्वाइवल स्टोरी है, जिसमें आपको कोरियन मूवीज़ का ‘ज़ॉम्बी’ एसेंस और नेटफ्लिक्स की वेब सीरीज़ ‘वॉकिंग डेड’ का फील मिलता है.

सुकांत गोयल ने तो खैर ठीक-ठाक एक्टिंग की ही है, लेकिन जो एक्टर्स चमके हैं वो हैं दो बच्चे. आदित्य और ईवा. जहां दिबाकर आदित्य के रोल में डर और रहस्य को कूट-कूट का भर डालते हैं, वहीं ईवा का एक सीन तो ख़ास तौर पर प्रभावित करता है, जब वो अगरबत्ती जलाकर पूजा करती हैं, और साथ में बातें भी कर रही होती हैं. ये कोई डरावना या लाउड नहीं, एक सिंपल सीन है. और यहां पर ईवा काफी नेचुरल लगती हैं.

इस वाले पार्ट की सबसे अच्छी बात इसका सोशियो पॉलिटिकल सिंबोलिज्म है. यूं ये आपसे दूसरी बार देखे जाने का आग्रह करती है. लेकिन इसकी सबसे बुरी बात भी यही है कि जो दिबाकर उपमाओं के द्वारा स्टेब्लिश करना चाह रहे हैं वो अंत वाले सीन में पूरी तरह स्टेब्लिश नहीं हो पाता. साथ ही पूरी कहानी एक ड्रीम सिक्वेंस सरीखी है. इसलिए ‘फेस वैल्यू’ के हिसाब कंटेंट कंज्यूम करने वाले आम दर्शक इसे देख चुकने के बाद ठगा सा महसूस कर सकते हैं. साथ ही इसकी एडिंग बहुत ही अतृप्त करती है.

 

कहानी 4. डायरेक्टर – करण जौहर.

इरा की अरेंज मैरिज हुई है. एक ऐसी अपर क्लास फैमली में जिनके साथ बस एक दिक्कत है. वो ये कि जिस ‘नैनी’ को मरे हुए सालों हो गए हैं, उसके बारे में इस फैमिली का मानना है कि वो अब भी घर में रहती हैं. उनकी मर्ज़ी के बिना परिवार का एक पत्ता भी नहीं हिलता. करण जौहर वाला पार्ट इसी परिवार, और उनके घर में आई नई बहू के डर की कहानी है.

इस स्टोरी का सबसे बड़ा प्लस ये है कि चारों कहानियों में से ये एकमात्र ऐसी स्टोरी है जिसमें आपको दिमाग नहीं लगाना पड़ता. साथ ही इसकी क्लोज़िंग त्रिशंकु की तरह बीच में कहीं लटकी नहीं रहती. ये वाली स्टोरी अपने सेट्स और ड्रेसेज के चलते काफी प्रीमियम लगती है. यानी कोई न भी बताए तो भी आप गेस कर लेंगे ये करण जौहर ने डायरेक्ट की है.

दूसरी तरफ इसका सबसे बड़ा मायनस है डराने के लिए यूज़ किए गए बचकाने और पुराने प्रॉप्स और सीन्स. जैसे टॉर्च को अपने चेहरे के नीचे रखकर चमकाना, या फिर नींद में चलना या अंधरे में अचानक किसी के सामने आ जाने टाइप ‘जंप स्केयर’ सीन्स. साथ ही कहानी और उसका ट्रीटमेंट भी काफी पारंपरिक और बचकाना है. ये मज़ेदार है कि केवल करण जौहर वाला पार्ट ऐसा है, जिसमें बच्चे नहीं हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा बचकाना यही वाला पार्ट है.

 

सिंबोलिज्म

जहां ज़ोया की स्टोरी में सिंबोलिज्म डायलॉग्स के स्तर पर है, वहीं अनुराग की स्टोरी में ये सिंबोलिज्म सीन्स के स्तर पर है. और दिबाकर की स्टोरी में यही सिंबोलिज्म पूरी स्टोरी के स्तर पर है. लेकिन करण जौहर की स्टोरी नीट है. जिसमें कोई छुपा अर्थ नहीं है.

 

ज़ोया की मूवी का सिंबोलिज्म, डायलॉग्स के स्तर पर-

“ये ज़िंदगी की ‘बू’ है.”

“सांस ले रही है न? हाथ पैर काम करते हैं न? जान है तो जहान है.”

 

अनुराग की स्टोरी का सिंबोलिज्म, सीन्स के स्तर पर-

जब बच्चा टीवी में एक इल्लीगल इमिग्रेंट्स वाला प्रोग्राम देख रहा होता है.

जब नेहा को सपना आता है कि वो कौवा बन गई है.

टूटे हुए अंडे, सेनेट्री पैड, बच्चे की पेंटिंग वगैरह.

 

दिबाकर की स्टोरी का सिंबोलिज्म, स्टोरी के स्तर पर है-

स्टोरी के क्लाइमेक्स में हम जो देखते हैं, उससे पता चलता है कि गावों के नाम बिसघड़ा, सौघड़ा, ऐसे रखे गए हैं कि समझ में आए कौन गांव ज़्यादा डेवलप है. पूरी कहानी दरअसल एक सोशियो-पॉलिटिकल मेटाफर है. और इसी अंडरकरेंट के चलते कोई अपनी बच्ची कच्चा चबा जाता है. क्यूं, ये समझने के लिए इस वाली स्टोरी को देखना और उसे क्लाइमेक्स वाले सीन से रिलेट करना आवश्यक है.

फाइनल वर्डिक्ट-

हर स्टोरी ‘हॉरर’ विधा की होते हुए भी एक अलग दर्शक वर्ग को कैटर करती है. इन कहानियों और कुल मिलाकर फिल्म की अच्छी बात ये है कि ये दर्शकों को डराने के लिए ‘जंप स्केयर्स’ जैसे पारंपरिक फ़ॉर्मूलों का इस्तेमाल नहीं करती. लेकिन बुरी बात ये है कि आपको इनको देखकर रोंगटे खड़े हो जाने वाली फील नहीं आती.

इन चारों डायरेक्टर्स की अब तक आईं तीन एंथोलॉजिकल मूवीज़, इमोशनल लेवल पर कमतर और क्राफ्ट के लेवल पर बेहतर होती चली गई हैं. यानी इनका ‘हृषिकेश मुखर्जी’ वाला फील घटता और ‘क्वेंटिन टैरेंटीनो’ वाला कोशेंट बढ़ता चला गया है. ऑफ़ कोर्स करण जौहर वाली कहानियों का नहीं. वो कंसिस्टेंट बने हुए हैं.

एक लाइन में कहें तो टोटल मूवी की रेसिपी देखकर लगता है कि ये टेस्टी हो सकती थी लेकिन डिश बन चुकने के बाद वो कहीं अधपकी रह गई है तो कहीं जल गई है.

 




दुनिया में कम ही लोग कुछ मज़ेदार पढ़ने के शौक़ीन हैं। आप भी पढ़ें। हमारे Facebook Page को Like करें – www.facebook.com/iamfeedy

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


Contact

CONTACT US


Social Contacts



Newsletter