कहानी जब्बार भाई की जिन्होंने भोपाल गैस पीड़ितों के लिए जीवनभर जंग लड़ी

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साल 1984 की 2-3 दिसंबर की रात. यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री. अब डाउ केमिकल्स का हिस्सा है. उसके प्लांट नंबर सी से गैस रिसने लगी. प्लांट ठंडा करने के लिए मिथाइल आइसोसाइनेट नाम की गैस को पानी के साथ मिलाया जाता था. उस रात इसके कॉम्बिनेशन में गड़बड़ी हो गई. पानी लीक होकर टैंक में पहुंच गया. इसका असर ये हुआ कि प्लांट के 610 नंबर टैंक में तापमान के साथ प्रेशर बढ़ गया. और उससे गैस लीक हो गई. देखते-देखते हालात बेकाबू हो गए. जहरीली गैस हवा के साथ मिलकर आस-पास के इलाकों में फैल गई. और फिर वो हो गया, जो भोपाल शहर का काला इतिहास बन गया. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस लापरवाही की वजह से 5 लाख 58 हजार 125 लोग मिथाइल आइसोसाइनेट गैस और दूसरे जहरीले रसायनों के रिसाव की चपेट में आ गए. इस हादसे में 15 हजार ज्यादा लोगों की जान गई.

इस मामले का मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन देश छोड़कर निकल गया. हादसे के वक़्त यूनियन कार्बाइड का मुख्य प्रबंधक वही था. 7 जून, 2010 को आए स्थानीय अदालत के फैसले में आरोपियों को दो-दो साल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन सभी आरोपी जमानत पर रिहा भी कर दिए गए. 2014 में वॉरेन एंडरसन की मौत हो गई.

भोपाल गैस त्रासदी देश के सबसे दर्दनाक हादसों में से एक है. आज तक बच्चे विकलांग पैदा हो रहे हैं इसकी वजह से. त्रासदी के विक्टिम्स के लिए रह-रह कर आवाज़ उठती है. फिर कहीं दबा दी जाती है, या चीखते-चीखते लोगों के गले सूख जाते हैं. लेकिन उन्हीं विक्टिम्स के लिए पिछले 35 सालों से आवाज़ उठा रहे अब्दुल जब्बार कभी पीछे नहीं हटे.

‘जब्बार भाई’ नाम से बुलाये जाने वाले अब्दुल जब्बार पुराने भोपाल के यादगार-ए-शाहजहानी पार्क में हर शनिवार प्रोटेस्ट करने जाते थे. अपने साथ त्रासदी के पीड़ितों और उनके परिवारवालों  को भी ले जाते थे.

गुरुवार यानी 14 नवंबर को उनका निधन हो गया.

वो तीन महीने से बीमार चल रहे थे. गैस त्रासदी के दौरान हुए लीक का असर उनके ऊपर भी पड़ा था. तब से जूझ रहे थे सेहत से जुड़े मसलों से. इधर हालत ज्यादा खराब हो गई थी. डॉक्टरों के अनुसार उन्हें शुगर और उससे जुड़ी दिक्कतें थीं. इस वजह से उन्हें गैंग्रीन भी हो गया था. ये एक तरह का इन्फेक्शन होता है. भोपाल के ही एक प्राइवेट अस्पताल में एडमिट थे, जहां उनकी मौत हार्ट अटैक आने से हुई.

भोपाल जैसी गैस त्रासदी भारत में पहले हुई नहीं थी. किसी को पता नहीं था कि इस तरह के झटके से उबरने के लिए क्या करें. एक झटके में जिनके पूरे के पूरे परिवार बर्बाद हो गए, वो कहां जाएं. किससे इंसाफ मांगें. किसकी ज़िम्मेदारी पर सवाल उठाएं. अपने उपाय कहां ढूंढें. इनमें एक बहुत बड़ी संख्या औरतों की थी. इनको एक साथ जोड़कर जब्बार भाई ने एक पटल पर ला खड़ा किया.

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द प्रिंट के लिए रमा लक्ष्मी ने लिखा,

‘मैंने जब्बार को पहली बार 1993 में देखा जहां वो सैकड़ों महिलाओं की एक लम्बी सर्पाकार पंक्ति को लीड करते हुए भोपाल की सड़कों पर चल रहे थे. उनमें से अधिकतर का चेहरा बुर्के और घूंघट से छुपा हुआ था, और उन्होंने प्लैकार्ड उठा रखे थे जिन पर लिखा था,

‘गैस पीड़ित को इंसाफ दो’

‘एंडरसन को फांसी दो’. जब्बार आगे आगे चलते हुए ‘लड़ेंगे , जीतेंगे’ का नारा लगा रहे थे. पीछे चल रही महिलाएं उनके साथ अपनी आवाज़ मिला रही थीं. इसी के साथ उनका नारा भोपाल के आसमान में गूंज रहा था-

हम भोपाल की नारी हैं, फूल नहीं चिंगारी हैं.

जब्बार ने गैस लीक में अपने परिवार के तीन सदस्यों को खोया था. माता-पिता और भाई. पीड़ितों का दर्द समझते थे. लेकिन लोगों को लुभाने वाली लच्छेदार भाषा नहीं जानते थे. ओपन मैगजीन के लिए हरतोश सिंह बल ने 2009 में लिखा था,

‘भोपाल में पीड़ितों के लिए दो मुख्य संगठन काम कर रहे हैं. दोनों ने ही कई केसों में राहत और न्याय के लिए कोर्ट के पास अर्जियां डाली हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर दोनों बेहद अलग तरीके से काम करते हैं. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के नेता अब्दुल जब्बार हैं, इसका फोकस है मेडिकल मदद के लिए रोजाना चलाई जा रही पीड़ितों की मुहीम में उनकी मदद करना. दूसरा भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन ऐंड एक्शन है जिसके लीडर सतीनाथ सारंगी हैं. इसका फोकस है कि बाहरी दुनिया को ये जानकारी भेजने में मदद करना कि भोपाल में चल क्या रहा है.’

बल बताते हैं कि किस तरह जब्बार भाई के जमीनी स्तर पर काम करने की वजह से पीड़ित उनसे ज्यादा करीब से जुड़े रहे. लेकिन बाहरी मीडिया के लिए सतीनाथ सारंगी का नाम ही सामने बना रहा क्योंकि अंग्रेजी जानने समझने वाले सतीनाथ NGO और बाहरी मीडिया के लिए भोपाल के पॉइंट ऑफ कॉन्टैक्ट बन गए. काफी समय तक जब्बार भाई के संगठन के लिए कोई ढंग की वेबसाइट तक नहीं थी कि लोगों को पता चल सके उसके बारे में. फंडिंग की कमी और मदद करने वाले लोगों की कमी की शिकायत जब्बार भाई ने कई बार की. वहीं सतीनाथ सारंगी के पास कॉन्टैक्ट से लेकर फंडिंग भी उपलब्ध रही. अब्दुल जब्बार की अपीलें दरवाजे खटखटाती रहीं.

लेकिन जिन कानों को उनकी सुननी थी, वो कहीं और लगे हुए थे. क्योंकि वो भाषा उनके लिए आसान थी.

जब्बार भाई ने पीड़ितों को अपने दम पर खड़ा होना सिखाया. आपस में ही चंदा जोड़-जोड़ कर आंदोलन चलाने की बात की. राहत के नाम पर मध्य प्रदेश सरकार ने दूध और राशन देना शुरू किया था. उसे चैलेन्ज किया. रमा दीक्षित बताती हैं कि किस तरह अब्दुल जब्बार ने औरतों को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित किया. सुप्रीम कोर्ट के पास पीड़ित औरतों के न्याय के लिए गए. कहा, जब तक मुआवजा नहीं मिलता, तब तक कुछ राहत तो मिलनी ही चाहिए. इसके लिए महिलाओं की खातिर सिलाई केंद्र खोले गए.

इस तरह छोटे-छोटे कदम उठाकर अब्दुल जब्बार कम से कम 20,000 महिलाओं के लिए उम्मीद का एक रास्ता बने हुए थे. भोपाल गैस त्रासदी के मामले में यूनियन कार्बाइड और भारत सरकार के बीच समझौता हो गया था. और यूनियन कार्बाइड की जिम्मेदारी 470 मिलियन डॉलर यानी आज के हिसाब से 33 अरब 75 करोड़ 65 लाख 75 हजार रुपए तक ही सीमित कर दी गई. ये रकम उसी समय भारत सरकार को दे दी गई थी. तब ये रकम लगभग 715 करोड़ के बराबर थी. उन पैसों से राहत कार्य और मुआवजा देना शुरू हुआ. लेकिन ये कहा गया कि ये रकम नाकाफी रही. सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर पेटीशन भी डाली गई थी. समय के साथ गैस त्रासदी से प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ती गई. पर उनके लिए मुआवजा नहीं बढ़ा. भोपाल  गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग के अनुसार 15,310 लोगों को मुआवजा दिया गया जिनके परिवार वालों की मृत्यु हुई थी, और 554,895 लोगों को इससे  प्रभावित हुए थे. लेकिन असली संख्या इससे कहीं ज्यादा थी. जिनको इंसाफ दिलाने के लिए अब्दुला जब्बार जैसे लोग बिना थके काम कर रहे थे.




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