लड़कियां लड़कों के मुकाबले कितनी ‘बुरी’ ड्राइविंग करती हैं, साफ़ हो गया

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अभी कुछ रोज़ पहले ही मैं अपने एक दोस्त के साथ किसी काम से बाहर निकली. मार्केट भरी हुई थी और पार्किंग की जगह कम थी. किसी वजह से एक बड़ी-सी SUV पार्किंग स्पेस में यूं अटकी कि आस-पास से निकल रहे लोगों को रुकना पड़ा और जाम जैसे हालात हो गए. हम उस गाड़ी के करीब पहुंचे, तो देखा गाड़ी एकदम नई है. सीट से पन्नी भी नहीं निकली है. और ड्राइवर की सीट पर एक महिला है, थोड़ी नर्वस सी. इस सोच में कि अब गाड़ी कैसे निकले.

मेरे दोस्त ने पूरा सीन देखते ही तपाक से कहा, “आज के बाद अंकल आंटी को गाड़ी नहीं चलाने देंगे.” मैंने पलटकर दोस्त से पूछा कि वो कैसे श्योर हो सकता है कि गाड़ी उस महिला की नहीं, बल्कि उसके पति की है. वो इतना कॉन्फिडेंट कैसे है कि इस महिला को पति से मिन्नतें करने के बाद ही गाड़ी चलाने को दी गई होगी. और उसके घर के पुरुष को इतना अधिकार होगा कि वो घर की महिला को डांट सके.

अब तक शायद आप मेरे दोस्त की बेहद बुरी छवि अपने दिमाग में बना चुके होंगे. लेकिन मैं यहां साफ़ कर दूं कि मेरा वो दोस्त एक बेहद संवेदनशील और समझदार व्यक्ति है. ये इसलिए बता रही हूं, ताकि हम समझ सकें कि स्त्रीद्वेष और सेक्सिजम कितने भीतर तक हमारे दिमाग में घर किए बैठा है. कि समझदार से समझदार लोगों के मुंह से सेक्सिस्ट बातें निकल जाती हैं और उन्हें मालूम भी नहीं पड़ता.

दोस्त ही क्यों. खुद मेरा ही किस्सा सुन लीजिए. एक सहेली अपने लिए ड्राइवर खोज रही थी. उसको किसी महिला ड्राइवर के बारे में पता चला. उसने कहा कि वो सोच रही है कि लेडी ड्राइवर रख ले. और मेरे मुंह से तुरंत निकला- लेकिन तुम्हें गाड़ी में कुछ भारी रखवाना हुआ या हैवी काम करवाना हुआ, तो क्या वो सहज होगी? अगले ही पल मुझे अपने ही शब्द काटने लगे. गुंजन सक्सेना का वो डायलॉग याद आया- प्लेन उड़ाना है सर, उठाना नहीं.

जब बात ड्राइविंग की हो, तो हम औरतों पर कम भरोसा करते देखे जाते हैं. मन में एक पूर्वाग्रह है कि पुरुष सधा हुआ होगा और औरत इमोशनल. भाई, औरत के इमोशनल होने के तो इतने स्टीरियोटाइप हैं. दुनिया को लगता है कि औरतें सारे काम इमोशन से ही करती हैं. चाहे वो गाड़ी चला रही हों या चांद पर जा रही हों. भाई, ऐसा मानने वालों को तो एक ही बात कहूंगी. जैसे आपकी मां घर चला रही हैं, वैसे ही आप एक महीने चलाकर देख लें. देखते हैं उसमें इमोशन लगता है या लॉजिक.

 

फिल्म ‘दूल्हे राजा’ का एक सीन.

 

खैर. हम भटके नहीं. हम इस तरह की सोच क्यों रखते हैं? इसके पीछे कोई एक वजह नहीं, बल्कि पूरी कल्चरल हिस्ट्री है. जब से हम छोटे-छोटे समुदायों में रहते थे, जब हम देशों और राज्यों में बंटे भी नहीं थे, तब से रिसोर्सेज पुरुष के हाथ में रहे हैं. हर तरीके का पैसों लेन-देन पुरुषों के हाथों हुआ. पुरुषों ने इकॉनमी बनाई और चलाई. युद्ध लड़े और देश बनाए. औरतों ने घर संभाला. ट्रेडिशनली पैसों पर पुरुषों का कंट्रोल रहा और नतीजतन प्रॉपर्टी पर भी. गाड़ियां क्या हैं, प्रॉपर्टी ही तो हैं. इसलिए जब घर में गहने आने होते हैं, तो औरत के नाम से आते हैं. गाड़ी आनी होती है, तो पुरुष के नाम से आती है. आजकल बहुत कुछ बदल गया है. पिछली कुछ पीढ़ियों से औरतें कमा रही हैं. फिर भी अधिकतर परिवारों में ये स्ट्रिक्ट डिवीज़न फॉलो होता है. न वो वाहन की मालकिन होती हैं, न ही उसे चलाती हैं. उनकी भूमिका बगल की सीट या पीछे बैठने की होती है.

और आज जब लड़कियां ड्राइविंग सीख भी रही हैं, गाड़ी अच्छे से चला भी रही हैं, फिर भी जब वो पति के साथ बाहर जाती हैं, तो गाड़ियां पति ही चलाते दिखते हैं. ये रेश्यो इतना कम क्यों है, ये जानने के लिए आपको किसी रिसर्च की ज़रूरत नहीं है. अपने घरों में ही देख लें. भाई और बहन में कौन ड्राइविंग पहले सीखता है. पति और पत्नी में किसके नाम पर गाड़ी पहले आती है. जब लंबे डिस्टेंस की ड्राइविंग हो, तो ड्राइवर की सीट पर कौन बैठता है, आपको जवाब मिल जाएगा.

 

गाड़ी ड्राइव करके ट्रिप पर जाते लड़के दिख जाएंगे आपको. लड़कियां? बेहद कम. (फिल्म ‘दिल चाहता है’ का एक सीन)

 

अब आते हैं स्टेटिस्टिक्स पर. ‘बैंक बाज़ार’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक:

-ओवरस्पीडिंग में पुरुष औरतों से 12 फीसद आगे हैं.

-हार्ड ब्रेक लगाने में पुरुष औरतों से 11 फीसद आगे हैं.

-सरकारी डाटा के अनुसार, पुरुषों के मुकाबले औरतें कम एक्सीडेंट का हिस्सा हैं.

-पुरुषों के मुकाबले औरतें ज्यादा हेलमेट और सीटबेल्ट लगाए हुए मिलती हैं.

-इसके अलावा रैश ड्राइविंग और शराब पीकर गाड़ी चलाने का काम पुरुष ज्यादा करते देखे जाते हैं.

ये हमारा ही दिमाग है. कि जब पुरुष रैश ड्राइविंग करता है, तो हम कभी ये नहीं कहते कि पुरुष है, इसलिए खराब गाड़ी चला रहा है. जबकि महिला बुरी ड्राइविंग करती है, तो झट से कह देते हैं कि महिला है, इसलिए बुरी ड्राइविंग कर रही है.

ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के अधिकतर विज्ञापन पुरुषों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं. बड़ी गाड़ियों या मोटरसाइकिल को जंगली जानवर या बीस्ट जैसी उपमाएं दी जाती हैं. सेफ्टी से पहले उनके ‘रफ एंड टफ’ होने की बात कही जाती है. गाड़ियों को पौरुष से जोड़ना इन विज्ञापनों की सबसे बड़ी थीम होती है. यहां तक कि बचपन से अब तक जो हम फैमिली कार्स के ऐड देखते आए हैं, उनमें फैमिली का बेटा मां-बाप के लिए या फिर पति, पत्नी और बच्चों के लिए गाड़ी लेकर आ रहा होता है. फिल्मों से लेकर टीवी सीरियल में अमीरज़ादे खुद गाड़ी चलाते हैं. उनकी बहनें जब बाहर जाती हैं, तो ड्राइवर चला रहा होता है. रोड ट्रिप्स पर लड़कों की तिकड़ी जाती है, लड़कियों की नहीं. और कभी 90s की फिल्मों में अमीर हिरोइन खुद गाड़ी चलाती भी थी, तो बेचारा गरीब हीरो उसकी गाड़ी के नीचे आ जाता था. लड़कियां व्हील पर हैं, तो एक्सीडेंट होना तय है. ऐसा हमें दिखाया जाता है.

कुकिंग हो या ड्राइविंग, दोनों लाइफ सेविंग स्किल हैं. होना तो ये चाहिए कि सभी बच्चों को दोनों सिखाना चाहिए. लेकिन किचन बहन के मत्थे आता है. ड्राइविंग भाई के मत्थे. हम आज भी अपने बेटों को हीरो बनाकर जी रहे हैं. कि फैमिली में मेडिकल इमरजेंसी आई, तो लड़का ही गाड़ी लेकर भागेगा. लड़की तो बस घबराकर रोएगी. सच तो ये है कि आपके घर में कल मेडिकल इमरजेंसी आएगी, तो न आपकी बीमारी को, न आपकी गाड़ी को फर्क पड़ेगा कि आपके घर में ड्राइविंग करने वाला लड़का है या लड़की.




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