वो नेता, जिसने 5 साल पहले ही बता दिया था कि देश का बंटवारा होकर रहेगा

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चक्रवर्ती राजगोपालाचारी. वह नाम, जिसकी अनेक पहचान सबके सामने हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेता, देश के पहले भारतीय गवर्नर जनरल, मद्रास के मुख्यमंत्री. और इन सबके साथ उनसे जुड़ी वह किंवदंती, जिसमें उनके पहले राष्ट्रपति बनाए जाने की चर्चा गाहे-बगाहे लोगों की जुबान पर आ जाती है. लेकिन इन सबके बीच ‘कहां से शुरू करें उनकी कहानी’ -यह सवाल भी आता है. तो चलिए, सबसे पहले उनके शुरूआती जीवन से आपको रूबरू कराते हैं.

राजगोपालाचारी का जन्म 10 दिसंबर, 1878 को मद्रास के थोराप्पली गांव में मुंसिफ चक्रवती वेंकटरैया आयंगर के घर हुआ था. उनकी शुरूआती पढ़ाई-लिखाई होसुर के सरकारी स्कूल में हुई. 1884 में वह सेंट्रल कॉलेज, बैंगलोर से ग्रेजुएट हुए. इसके बाद मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज से लॉ की पढ़ाई की. राजगोपालाचारी के राजनीति में आने की वजह महात्मा गांधी बने. उन्हें गांधी के छुआछूत आंदोलन और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था. गांधी के असहयोग आंदोलन का उन पर इतना असर हुआ कि उन्होंने अपनी जमी-जमाई वकालत छोड़ दी, और खादी पहनने लगे. उनकी वकालत इतनी जबर्दस्त चल रही थी कि वे सेलम (तमिलनाडु का एक जिला) में कार खरीदने वाले पहले वकील बन गए थे. उधर, महात्मा गांधी भी राजागोपालाचारी से बहुत प्रभावित थे. इतने प्रभावित कि उन्हें अपना ‘कॉन्शस कीपर (विवेक जागृत रखने वाला) तक कहा करते थे. राजगोपालाचारी को राजाजी का उपनाम भी महात्मा गांधी ने ही दिया था.

राजगोपालाचारी से जुड़े 5 रोचक क़िस्से

पहला किस्सा : ब्राह्मण लड़की बनिए से कैसे ब्याह करेगी!

1927 का साल. महात्मा गांधी के दोस्त राजगोपालाचारी ने अपनी बेटी लक्ष्मी को गांधी के वर्धा आश्रम भेजा. लक्ष्मी वहां रहकर शिक्षा ग्रहण करने लगीं. साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन के अलग-अलग पहलुओं से भी रूबरू होने लगीं. इसी दौरान उन्हें महात्मा गांधी के छोटे बेटे देवदास गांधी से प्यार हो गया. देवदास की उम्र 28 साल थी, जबकि लक्ष्मी केवल 15 साल की थीं. देवदास का बचपन और किशोरवय- दोनों दक्षिण अफ्रीका में बीता था, जबकि लक्ष्मी मद्रास से सीधे वर्धा आईं थीं. अभी किशोरावस्था में थीं. दोनों शादी करना चाहते थे, इसलिए तय किया कि वे इस बात को अपने-अपने पिता को बताएंगे. लेकिन जब दोनों ने यह बात अपने-अपने पिता को बताई तो मामला उल्टा पड़ने लगा. दरअसल उस दौर में महात्मा गांधी और राजगोपालाचारी- दोनों अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के सख्त खिलाफ हुआ करते थे. महात्मा गांधी वैश्य समाज से थे, जबकि राजगोपालाचारी तमिल ब्राह्मण थे. दोनों ने अपने बच्चों को मनाने की बहुत कोशिशें कीं, लेकिन बच्चों पर असर नहीं हुआ. तब जाकर राजगोपालाचारी ने एक रास्ता निकाला. दोनों (देवदास और लक्ष्मी) के सामने शर्त रख दी कि दोनों 5 साल तक एक-दूसरे से दूर रहेंगे, उसके बाद भी दोनों में प्यार बना रहेगा, तभी दोनों की शादी होगी. प्रस्ताव कठिन था, लेकिन दोनों मान गए. 1928 में लक्ष्मी वर्धा से वापस मद्रास चली गईं. 5 साल बाद 1933 में दोनों मिले. इस बार दोनों के पिता यानी महात्मा गांधी और राजगोपालाचारी बच्चों की जिद के सामने झुक गए. पुणे में हिंदू रीति-रिवाज के साथ शादी हो गई. इस शादी के बाद महात्मा गांधी और राजगोपालाचारी, दोनों अंतर्जातीय विवाहों के प्रबल समर्थक बन गए. देवदास गांधी बाद में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बने. देवदास और लक्ष्मी के 4 बच्चे हुए. दो बड़े मशहूर हुए- गोपालकृष्ण गांधी और राजमोहन गांधी. गोपालकृष्ण गांधी भारतीय विदेश सेवा में गए, बंगाल के गवर्नर रहे जबकि राजमोहन गांधी लेखन और पत्रकारिता से जुड़े. वैसे दोनों भाईयों को बड़ी चुनावी लड़ाई लड़ने का भी शौक रहा है.

गोपालकृष्ण गांधी ने 2017 में वेंकैया नायडू के खिलाफ उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा था. जबकि राजमोहन गांधी ने 1989 में उत्तर प्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट पर जनता दल कैंडिडेट के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से टक्कर ली थी. राजाजी के नाती ने राजाजी के दोस्त जवाहर लाल नेहरू के नाती से दो-दो हाथ किए थे. लेकिन इन दोनों चुनावी मुकाबलों में गांधी ब्रदर्स को हार का मुंह देखना पड़ा था.

सी. राजगोपालाचारी ने महात्मा गांधी के प्रभाव में आकर अपनी चलती वकालत छोड़ दी और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े.

 

दूसरा किस्सा : जब राजगोपालाचारी ने विभाजन को अवश्यंभावी बताया

1942 का साल था. उस दौर में कांग्रेस के अधिवेशन होने बंद हो गए थे. 1939 में रामगढ़ अधिवेशन के बाद कांग्रेस का कोई अधिवेशन नही हो रहा था, क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण एक जगह इकठ्ठा होने में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को परेशानी उठानी पड़ती थी. लेकिन फिर भी कांग्रेस के शीर्ष नेता कहीं न कहीं बैठक कर ही लेते थे. ऐसे ही एक बार 1942 में कांग्रेस के अधिकांश नेता इलाहाबाद में बैठे. जिन्ना के पाकिस्तान की रट लगाने और उससे देश में फैल रहे साम्प्रदायिक माहौल पर चर्चा चल रही थी. इस दौरान राजगोपालाचारी के बोलने की बारी आई. जब उन्होंने मुंह खोला तो सब आवाक रह गए. राजगोपालाचारी ने तब साफ-साफ कह दिया था कि विभाजन रोकना किसी के वश में नही है. सबने उनका खुलकर विरोध किया. खुद महात्मा गांधी ने भी विरोध किया. लेकिन 5 साल बाद 1947 में राजगोपालाचारी की बात सही निकली. इसके बाद जब कांग्रेस और जिन्ना की मुस्लिम लीग के मतभेद और ज्यादा बढ़ने लगे, तब 1944 में उन्होंने एक फार्मूला भी दिया, जिसे सीआर फार्मूला (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी फार्मूला) कहा जाता है.

 

 क्या था यह सीआर फार्मूला? 

दरअसल इस फार्मूले में उन्होंने पांच बातें रखी थी :

1.द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद एक कमीशन बनाया जाए, जो भारत के उत्तर-पश्चिम में मुस्लिम बहुल इलाकों की पहचान करे. यहां उनके बीच जनमत संग्रह करया जाए कि ये लोग भारत से अलग होना चाहते हैं या नहीं.

2. मुस्लिम लीग को भारत की आजादी के आंदोलन में जोशोखरोश से भाग लेना होगा. साथ ही उसे अंतरिम सरकारों में भी भागीदार बनना होगा.

3. विभाजन के बाद दोनों देशों के बीच रक्षा, व्यापार और कम्युनिकेशन पर एक समझौता हो.

4. अगर लोग एक देश से दूसरे देश में जाना चाहते हों तो ये पूरी तरह उनकी मर्जी पर होना चाहिए.

5. समझौते के ये नियम तभी लागू होंगे, जब भारत को ब्रिटेन पूरी तरह से आज़ाद कर देगा.

 

लेकिन जिन्ना ने इस फार्मूले को सिरे से नकार दिया. जिन्ना चाहते थे कि कांग्रेस द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर ले, और उत्तर-पूर्वी व उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में केवल मुस्लिम लोगों को ही मत देने का अधिकार मिले. उन्होंने फार्मूले में प्रस्तावित साझा सरकार के गठन का भी विरोध किया. जिन्ना का पूरा ध्यान केवल अलग पाकिस्तान की मांग पर ही था, जबकि कांग्रेस भारतीय संघ की स्वतंत्रता पर जोर दे रही थी. इन परिस्थितियों को देखते हुए महात्मा गांधी ने भी सीआर फार्मूले से सहमति जताई, लेकिन फिर भी यह फार्मूला सर्व-स्वीकार्य नही बन पाया. यहां तक कि हिन्दू महासभा के विनायक सावरकर जैसे नेताओं ने भी इस फार्मूले की तीखी आलोचना की थी.

 

सी राजगोपालाचारी ने 1944 में बंटवारे का विवाद सुलझाने की कोशिश की थी.

तीसरा किस्सा : तमिलों के बीच हिंदी के प्रसार का जोखिम उठाया

1937 में कांग्रेस ने मद्रास (आज के तमिलनाडु और आन्ध्र प्रदेश का अधिकांश इलाका, तब मद्रास प्रांत का हिस्सा था) की प्रोविंशियल असेंबली का चुनाव जीता, तो राजगोपालाचारी को मद्रास प्रांत का प्रीमियर यानी प्रधानमंत्री बना दिया गया. लेकिन उस दौर में, जब उन्होंने मद्रास प्रांत में हिंदी को स्वीकार्य बनाने की कोशिशें शुरू कीं तो हिंसक विरोध होने लगा. उस हिंसा में दो लोगों की मौत भी हुई. राजगोपालाचारी ने मशहूर तमिल पत्रिका सुदेशमित्रम में 6 मई 1937 को अपने लेख में लिखा था, ‘जब हम हिंदी सीख लेंगे तभी दक्षिण भारत को सम्मान हासिल होगा’.

दक्षिण भारत में हिंदी के प्रसार में उन्हें उस वक्त कोई कामयाबी नही मिली, लेकिन वे प्रयास करते रहे. वे दक्षिण में हिंदी को मुकाम नहीं दिला सके. फिर भी इसके प्रचार-प्रसार में जुटे रहे. कामयाबी मिलती भी कैसे? एक ओर तमिलों का उग्र हिंदी विरोध था, तो दूसरी ओर उनकी सरकार की उम्र ज्यादा लंबी नही थी. ऐसा इसलिए क्योंकि 1939 में भारत को बिना भारतीयों की मर्जी के द्वितीय विश्व युद्ध में धकेले जाने के ब्रिटिश हुकूमत के फैसले के विरोध में सभी प्रांतीय सरकारों ने इस्तीफा दे दिया था.

वैसे तमिलों का हिंदी विरोध आजादी के बाद भी जारी रहा. संविधान सभा में भी टीटी कृष्णमाचारी और रामास्वामी आयंगर जैसे सदस्यों ने हिंदी का खुलकर विरोध किया. लिहाजा हिंदी को इकलौती राजभाषा बनाने का मामला 15 साल के लिए (1965 तक के लिए) टाल दिया गया.

इसके बाद 1952-1954 के दौर में एक बार फिर से राजगोपालाचारी मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री रहे. उस दौरान उन्होंने हिंदी को माध्यमिक स्तर की शिक्षा में अनिवार्य कराया. ये अलग बात है कि तमिलों के उग्र हिंदी विरोध के चलते उनका यह प्रयास सिर्फ कागजों पर सिमट कर रह गया.

 

चौथा किस्सा : जब राव-मनमोहन से दशकों पहले लाइसेंस-परमिट राज को समाप्त करने की वकालत की

यह 50 के दशक का उत्तरार्ध था. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और उनकी नीतियों से राजगोपालाचारी के मतभेद बढ़ने लगे थे. खासकर आर्थिक नीतियों पर. 50 के दशक की शुरूआत में तो नेहरू को राजगोपालाचारी पर इतना भरोसा था कि वे उन्हें देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे. ये अलग बात है कि तब तक कांग्रेस में व्यक्तिवाद हावी नही हुआ था. आंतरिक लोकतंत्र का बोलबाला था. इस वजह से नेहरू कामयाब नही हो सके थे. उन्हीं राजगोपालाचारी को जो कभी नेहरू के बेहद विश्वासपात्र थे, लगने लगा था कि आर्थिक मामलों में नेहरू कम्यूनिस्ट नीतियों के करीब होते जा रहे हैं. बिजनेस-व्यवसाय के मामले में बेवजह सरकारी दखल बढ़ रहा है. इससे उद्यमशीलता यानी entrepreneurship की प्रवृत्ति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है. राजगोपालाचारी चाहते थे कि उद्योग-धंधों और बिजनेस के मामलों में सरकार का कम से कम दखल हो. आज की शब्दावली में कहें तो ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस.’

उस दौर में राजगोपालाचारी ने खुली आर्थिक नीतियों की वकालत की थी. आर्थिक नीतियों पर उनकी नाराजगी को देखते हुए जवाहर लाल नेहरू ने भी एक बार कहा था, ‘पता नही राजाजी चाहते क्या हैं, सरकार से क्यों नाराज रहते हैं?’

लेकिन नेहरू से अपने नीतिगत मतभेदों को राजगोपालाचारी व्यक्तिगत दोस्ती की कीमत पर क़ुर्बान करने को तैयार नही थे. वे अपने मतभेद को खुलकर व्यक्त करते थे. गांधी के दौर में भी विभाजन के मुद्दे पर उन्होंने यही किया था.

स्वतंत्र पार्टी की मुक्त बाजार की नीति को 1991 में प्रधानमंत्री नरसिंह राव और वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने स्वीकार कर लिया था.

पांचवां किस्सा : जब लोकतंत्र में विपक्ष की जरूरत को महसूस करते हुए स्वतंत्र पार्टी बनाई

राजगोपालाचारी न सिर्फ नेहरू की आर्थिक नीतियों से नाराज थे, बल्कि उन्हें नेहरू और कांग्रेस की बदली-बदली कार्यशैली भी नागवार गुजर रही थी. व्यक्तिवाद, पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव, चापलूसों का बोलबाला- ये सब ऐसे कारण थे, जिससे राजगोपालाचारी के नेहरू से गहरे मतभेद हो गए थे. इन्ही सब मुद्दों पर नेहरू और कांग्रेस से मतभेद होने के कारण स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके आचार्य जेबी कृपलानी ने भी 1951 में कांग्रेस छोड़ दी थी. और अब यही सब सवाल राजगोपालाचारी उठा रहे थे. 1957 में एक सेमिनार में भाग लेते हुए राजगोपालाचारी ने यहाँ तक कह दिया था, ’62 साल पहले देश में शासन तंत्र के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए एक पार्टी का गठन हुआ था और इसी तरह आज भी ऐसी ही एक पार्टी की आवश्यकता है. बिना विपक्ष के लोकतंत्र ऐसा ही होता है जैसे कि किसी गधे की पीठ पर एक ही तरफ कपड़ों का गट्ठर लाद दिया जाए.’

 

*दरअसल उनके 62 साल पहले एक पार्टी के गठन का आशय 1885 में कांग्रेस के गठन से था.

काफी सोच-विचार के बाद 4 जून 1959 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की अध्यक्षता में स्वतंत्र पार्टी अस्तित्व में आई. शुरूआत में इस पार्टी में मीनू मसानी जैसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) के संस्थापक, एन जी रंगा जैसे मजदूर नेता और पीलू मोदी जैसे कमाल के वक्ता जुड़े. क्षेत्रीय स्तर पर भी कई राजे-रजवाड़े और व्यापारी वर्ग के लोग इस पार्टी के मेंबर बने. जयपुर की महारानी गायत्री देवी और रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह भी इस पार्टी में शामिल हुए. रामगढ़ के राजा कामाख्या नारायण सिंह ने तो नेहरू के प्रचार तंत्र और लोगों तक उनकी पहुंच का मुकाबला करने के लिए 2 हेलीकाॅप्टर भी खरीदे. एक हेलीकाॅप्टर उन्होंने चुनाव प्रचार के लिए राजगोपालाचारी को दिया जबकि दूसरे से खुद प्रचार करते थे.

 

 

50 के दशक में सी राजगोपालाचारी के प्रधानमंत्री नेहरू से नीतिगत मतभेद सामने आ गए थे.

स्वतंत्र पार्टी ने 1962 में अपना पहला लोकसभा चुनाव लड़ा, और 18 सीटें जीतीं. बिहार समेत कई राज्यों की विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी का दर्जा भी हासिल किया. 1967 के लोकसभा चुनाव का परिणाम तो बिल्कुल 2014 की तरह था. तब सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को 282 सीटें मिली थी जबकि दूसरे नंबर की पार्टी स्वतंत्र पार्टी को लोकसभा की 44 सीटें हासिल हुई थी.

(2014 में भी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को 282 और दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं)

स्वतंत्र पार्टी लोकसभा में दूसरे नंबर पर पहुंच गई. उस दौर में स्वतंत्र पार्टी की ओर से कमाल के वक्ता लोकसभा में दाखिल हो गए. पीलू मोदी, मीनू मसानी और महारानी गायत्री देवी जैसे सांसद इंदिरा गांधी की सरकार को घेरने का कोई मौका नही छोड़ते. इंदिरा गांधी की सरकार संसद में अक्सर बैकफुट पर नजर आने लगी. लोगों में यह विश्वास जमने लगा कि राजगोपालाचारी और उनकी स्वतंत्र पार्टी ही देश का भविष्य है. लेकिन फिर 1969 का कांग्रेस विभाजन, बैंकों का नेशनलाइजेशन, राजाओं (जिनका स्वतंत्र पार्टी में वर्चस्व था) के प्रिवीपर्स की समाप्ति और सबसे बढ़कर 1971 के चुनावों में इंदिरा गांधी का गरीबी हटाओ का नारा – ये सब ऐसे कारण थे जिससे लोकसभा चुनाव में स्वतंत्र पार्टी समेत संपूर्ण विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया. स्वतंत्र पार्टी को केवल 8 सीटें मिली थीं. हालांकि इन 8 लोगों में भी पीलू मोदी और महारानी गायत्री देवी जैसे लोग संसद पहुंचने में कामयाब रहे थे.

लेकिन इस बड़ी हार के लगभग डेढ़ साल बाद 25 दिसंबर 1972 को चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का देहांत हो गया. उनके साथ ही स्वतंत्र पार्टी की रही-सही राजनीतिक ताकत भी खत्म हो गई. 2 साल बाद 1974 में पीलू मोदी समेत स्वतंत्र पार्टी के कई नेता चौधरी चरण सिंह के लोकदल में शामिल हो गए. पार्टी का बचा-खुचा अस्तित्व समाप्त हो गया. हालांकि  राजगोपालाचारी की पार्टी का अस्तित्व भले ही समाप्त हो गया, लेकिन उनकी मृत्यु के 19 साल बाद उनकी आर्थिक सोच को देश के नीति-निर्माताओं ने स्वीकार किया. दिलचस्प बात यह है कि राजगोपालाचारी की आर्थिक नीतियों को जमीन पर उतारने का काम उसी कांग्रेस पार्टी ने किया, जिसके विरोध में कभी राजाजी ने स्वतंत्र पार्टी खड़ी की थी. लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाईजेशन (LPG) जैसे नए शब्द प्रचलन में आ गए. अखबारनवीसों की भाषा में इस आर्थिक नीति को राव-मनमोहन माॅडल कहा गया और आज भी हमारा देश कमोबेश इसी आर्थिक नीति पर चल रहा है.

राजाजी के कितने किस्से सुनाऊँ आपको? उनकी साफ बोलने और दूरदृष्टि रखने के कारण ही बंगाल के गवर्नर रहे ऑस्ट्रेलियाई नागरिक आर जी केसे ने उनको “the wisest man of India” यानी भारत का सबसे बुद्धिमान आदमी कहा था.




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